टूटने बिखरने के ब्योरे दर्ज कर पाना मेरे लिए सदा दुष्कर कार्य रहा है, मेरी प्रतिभा एक सामान्य बालक, युवा और फिर अधेड़ होने की ओर अग्रसर आम आदमी जैसी ही है. मेरी ज्ञानेन्द्रियाँ भी मुझे विशिष्ट नहीं बनाती है छठवे, सातवे और उससे आगे के सेन्स मुझ तक अभी पहुंचे नहीं हैं. पंद्रह बीस दिन पहले एक सपना देखा।
दरवाज़े के नीचे की झिरी से आती ठंडी हवा से सपना उचट जाता है. रजाई को खींचते हुए देखता हूँ कि आभा और दुशु पलंग पर आराम से सो रहे हैं. बाहर माँ के कदमों की आहट आती है, लगता है कि इस समय उन्होंने मुंह में ब्रश दबा रखा होगा और पिताजी के स्वभाव के ठीक विपरीत, घूमते हुए हुए दांत मांज रही है.
मैं अपने कुछ मित्रों के साथ किसी आर्मी एरिया के पास जंगल में किसी की हत्या करने का ताना बुन रहा हूँ. बेतरतीब खड़े पेड़ भयावहता का चित्र उकेरते हैं, अँधेरा उसमे कुटिलता भर रहा है. अनचीन्ही पदचापों पर हम सिहर जाते हैं या फिर किसी गुप्त आयोजन के लिए किये जाने वाले संवाद कि तरह हौले हौले बतिया रहे हैं. करवट बदलता हूँ और महसूस करता हूँ कि सपना देख रहा हूँ लेकिन वह फिर से से मुझे उसी जंगल में खींच ले जाता है.
एक दुबली सी लड़की और उसके साथ एक लड़का है जिसके बाल कुछ इस तरह बढे हुए हैं कि वह संगीत का साधक दीख पड़ता है और लड़की को देखते हुए वह मुझे नाटक में काम करनेवाली कोई प्रशिक्षु जान पड़ती है. इस लड़की को देखते हुए लगता है कि लड़का मुहब्बत का इज़हार करते ही शादी जैसे विकार से ग्रसित हो जायेगा. वे दोनों एक सड़क जैसे फुटपाथ पर चलते हुए हमारे जंगल में दाखिल होते हैं. मैं उकडूं बैठा हुआ उन्हें किसी गहन विचार विमर्श में व्यस्त देखता हूँ. एक पल में दृश्य बदलता है और उन दोनों के जाते ही मैं नायलोन की एक रस्सी से टेंट में लेटे हुए एक अजनबी आदमी का गला घोंटने लग जाता हूँ. अपने पूरे सामर्थ्य को झोंक देता हूँ कि कहीं ये बच न जाये. वह मर गया...
उसके चहरे को देखने पर सोचता हूँ कि क्या इसके चेहरे पर गला घोटे जाने से पहले भी यही भाव थे लेकिन मुझे स्मृति नहीं हो पाती कि इसका चेहरा मैंने पहले भी देखा था या नहीं. भय किसी सांप सी सरसराहट सा रेंगता हुआ मेरे चारों और पसर जाता है. मेरी कामयाबी के बाद तुरंत एक मित्र हाजिर होता है. हम दोनों अविश्वास से उस लाश को ठिकाने लगा देते हैं. एक घने झुरमुट के नीचे बनाये हुए गड्ढे में दफन कर दिए जाने के बाद लगता कि अब पाँव साथ नहीं देंगे.
दरवाज़े के नीचे की झिरी से आती ठंडी हवा से सपना उचट जाता है. रजाई को खींचते हुए देखता हूँ कि आभा और दुशु पलंग पर आराम से सो रहे हैं. बाहर माँ के कदमों की आहट आती है, लगता है कि इस समय उन्होंने मुंह में ब्रश दबा रखा होगा और पिताजी के स्वभाव के ठीक विपरीत, घूमते हुए हुए दांत मांज रही है.
ये सपना देखने के बाद, उस दिन मेरे साथ क्या हुआ याद ही नहीं आता. वैसे स्मृतियाँ इस बात पर ही निर्भर करती है कि आप उनसे कितनी नफ़रत या मुहब्बत करते हैं. एक शतरंज का खिलाड़ी अपने सामने बिछी शतरंज की बिसात की तस्वीर को एक सैकेंड में याद रख सकता है. उसका तरीका तभी तक कारगर है जब तक कि बिसात में रखे मोहरे, खेल के नियम तोड़ते ना हों. मेरी बिसात से डेढ़ साल पहले बादशाह अलविदा कहे बिना जा चुके हैं. गंभीर हृदयाघात ने पल भर में मुझे प्यादे से भी छोटे कद का बना दिया. दुनिया के दिए हुए हौसले हमेशा नाकाफी होते हैं. जब तक दो तीन तेज हवा के झोंकों से रूबरू होने का समय न आये. पिता जी एक निम्न मध्यम वर्ग के परिवार को मध्यम वर्ग का जीवन जीने लायक बना गए थे किन्तु उनके जाने के बारे में अब भी परिवार का कोई सदस्य बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता.
जीवन के पांच सौ दिन अधिक नहीं होते मगर जब आप भय की वादी में अकेले होने का अहसास पाते है तो साहस के पाठ याद नहीं आते. इन पांच सौ दिनों की हर सुबह मैं दुशु को नहलाने में लग जाता, आभा नाश्ता तैयार करती फिर दोनों बच्चों को स्कूल के लिए बस तक छोड़ने जाता रहा हूँ. दस बजे तक आभा अपने सरकारी स्कूल चली जाती, मैं दिन भर घर में कुछ पढ़ने या अपने पसंद के कामों में दिन बिता देता. मेरी पसंद का एक काम है कि शाम चार बजे नहाया जाये. इस पर पता नहीं घर वाले बीस पच्चीस साल से हँसते रहे होंगे पर मुझे याद नहीं आता क्योंकि मुझे इस कार्य पर होने वाली प्रतिक्रिया में कोई आकर्षण नहीं दीखता था. आभा चार बजे घर लौटती तब हमेशा मैं उसे बाय कहने के लिए आखिरी सीढ़ी उतर रहा होता. उसके लिए घर फिर से स्कूल जैसा हो जाता और मैं आकाशवाणी में शाम की ड्यूटी के दौरान बंद स्टूडियो में सूरज का उतरा हुआ मुंह नहीं देख पाता था. जब बाहर निकलता तब तक कस्बा सो चुका होता किन्तु दो तीन जोड़ी आँखों में इंतजार बना रहता था. बस घर लौटते ही दरवाजे के खुलने के के साथ कुछ स्मृतियाँ पांवों से लिपट जाती कि पहले हमेशा दरवाजा पापा ही खोला करते थे.
जब वह सपना देखा था, उसके कुछ दिन बाद पाया कि मेरे बाएं पैर के नीचे एक कोन बनने लगा है. इस बीमारी को स्थानीय भाषा में आईठाण कहते हैं. अंगुली रखने जितने स्थान पर चमड़ी सख्त हो गयी थी और पाँव को ज़मीं पर रखते हुए कष्ट का अनुभव होने लगा था. एक सहपाठी दोस्त को फोन किया. यार डॉक्टर इसका क्या करें तो वह बच्चों के समाचार पूछने लग गया. मुझे निर्देश दिए कि जमाना बहुत कम्पीटीशन का है इसलिए बच्चों पर ध्यान दो. कुल मिला कर आठ मिनट के दौरान हुई बातचीत के बाद उसने बताया कि सोफ्ट शू पहना कर और कामरेडी चप्पल छोड़ दे. पाँव दर्द करता रहा मैं जींस पर कुरता डाल कर ऑफिस के रस्मो-रिवाज पूरे कर आता. रात को लौटते समय क़स्बे के अपनापन को हमेशा गुम ही पाता. सर्दी का मौसम रेगिस्तान में मेहमान बन के आता है रात भर ठण्ड दिन में तेज धूप. सुबह या देर रात अलाव तापने वाले नंगे बदन लोगों ने अब यहाँ रंग बिरंगी डांगरी पहन ली है. वे या तो केयर्न इण्डिया वाले नीले रंग में दीखती है या फिर एल टी की पीली वाली. फुरसत के दिन मल्टी नॅशनल कंपनियों ने लूट लिए हैं.
तेल उत्पादन शुरू हो चुका है और पैसे की होड़ में भाई ने भाई के विरुद्ध हर स्तर पर मोर्चे खोल लिए हैं. मेरा घर आदिवासी भील, मेघवाल, गाडोलिया लुहार और सिंध से आये शरणार्थी परिवारों के बीच है. यहाँ भी अब पुश्तैनी कामों को अलविदा कहा जा चुका है. मजदूरों की पहचान आसान नहीं रही. गली गली में यू पी, बिहार, और बंगाल से आये मजदूर किराये पर रहते हैं. रेगिस्तान की सहिष्णु परम्परा कभी किसी का विरोध नहीं करती, परन्तु से मुझे सख्त नफ़रत है. वैसे सभ्यताएं और संस्कृतियाँ उजडती रही हैं और उनका विकास भी होता रहा है. हमारी नस्लों में अगर रेत के जींस होंगे तो वे भी कोई नया ठिकाना ढूंढ लेगी, जहाँ आदमखोर दैत्याकार मशीनों का शोर नहीं होगा और कोई कोस भर दूर हवा में लहराते हुए कपडे को देख कर मन हुलस उठेगा. मुझे ये गहरा एकांत पसंद है.
कल रात ग्यारह बज कर तीस मिनट पर घर आया. सब जाग रहे थे. खाना गर्म करके खाया और सो गया. बड़ी बुरी आदत है. सब कुढ़ते हैं. मैं अच्छी आदतें पाल नहीं सकता फिर भी परिवार मुझे ख़ुशी से पाल रहा है. रात को करवट ली होगी, याद नहीं. सुबह फिर वही घना जंगल मेरे आस पास खिल उठा.
वही दुबली लड़की और उसका साथी लड़का बातें कर रहे थे. सरकारी एजेंसी के लोग गुम हुए आदमी का पता लगाने की प्रक्रिया में जांच का कार्य कर रहे थे. जंगल के उसी मुहाने पर मैंने सुना. जिस आदमी की मैंने हत्या की थी, वह इस लड़की का पिता था या कुछ इसी तरह का रिश्ता. एक संवाद किसी अजगर की तरह मेरे चारों ओर कुंडली मार गया कि लापता आदमी की लाश को बरामद किया जा चुका है. हत्यारा उसकी गर्दन को मिट्टी में दबाना भूल गया था.
मेरी रजाई फांसी के फंदे में तब्दील हो चुकी थी और वह निरंतर मेरे गले की और बढती हुई सी लगने लगी. एक अपराधबोध से पीड़ित मैं पाषाण हो कर अनंत अँधेरे में खुद को डूबते हुए देख रहा था. भयानक सपना, ऐसा सपना कि मैं दो घंटे तक उसका सच खोजता रहा. मेरे सजीव होने का आभास मुझे डराने लगा, वह सब अव्यक्त है. आभा ने जब दूसरी बार कॉफी दी तब मैंने तय किया कि आज सुबह ही नहा लेना चाहिए. गीजर का गर्म पानी मुझे किसी यातना गृह में रखे उबलते कड़ाहे का आभास देगा, ये सोच कर डर गया. फ्रायड का मनोवैज्ञानिक विश्लेष्ण मैंने कई बार पढ़ा है इसलिए समझ आ गया कि मैं अवसाद में हूँ. नहा लेने से राहत हुई और यकीन भी कि मानसिक तौर से अस्वस्थ होने की दिशा में जा रहा हूँ. मैंने पाया कि अभी आभा को स्कूल जाने में एक घंटा है तब तक कुछ ब्लॉग देख लूं. "सुख अकेले सिपाही की तरह आते हैं और दुःख फ़ौज की तरह" नेपोलियन के ये कथन मेरे सामने खड़ा था. अपूर्व की पोस्ट देखी, ब्लोगिंग को अलविदा. मेरे सपने के बाद की इस ख़बर ने मुझे और अवसाद की स्थिति में पहुंचा दिया. दिन भर ऑफिस में रहा, दो बार संजय से बात हुई. वे दुखी थे. उन्होंने अपनी चिंताओं से मुझे वाकिफ कराया थोड़ी राहत हुई, पर ये मेरे लिए नाकाफी थी.
इन्हीं उजड़े बिखरे दिनों में, मैं लंगड़ाते हुए चलता हूँ, दोस्तों से बात करने को बेताब रहता हूँ कि कोई राहत की लहर इधर भी आये मगर दोस्तों को खुश नहीं रख पाता और अपने बेटे से कहता हूँ आज बेडमिन्टन की जगह एक चेस की बाज़ी हो जाये. आज की शाम होते होते एक मित्र से बात हुई. वो मित्र, एक सोने की अंगूठी है. जिसका हीरा अब आसमान का नक्षत्र हो चुका है. जब भी अंगूठी पर हाथ जाता है, खाली किनारे अन्दर तक चुभते हैं. अकेले बच्चों को बड़ा करते हुए, सिटी बस, स्कूटर, ट्राम का पीछा कर हमेशा ज़िन्दगी पर एक दिन की जीत दर्ज करता है. उन्हें जीवन से हार जाने वालों के प्रति सहानुभूति हो सकती है पर मैदान छोड़ जाने वालों के लिए शायद नहीं. उनकी हज़ार तकलीफों के आगे मेरे भयावह सपने बौने हैं. हमारी बातचीत इस वाक्य के साथ समाप्त हुई कि हम बात नहीं कर सकते.
ये एक बुरे दिन की बुरी शाम थी. मेरा मन असंयमित और अजीब सी उदासी में था. जो लोग ब्लॉग छोड़ कर जा रहे थे, उनके कोई पते मेरे पास न थे. मेरे पास थी आर्थर नोर्त्जे की स्मृतियाँ, नोर्त्जे यानि दक्षिण अफ्रीका का सबसे संभावनाशील कवि जो 1942 में जन्मा और 1970 में विलोपित हो गया. मात्र अट्ठाईस साल की उम्र में दुनिया छोड़ जाना कितना दुखद है. कहते हैं कि उसने ख़ुदकुशी कर ली थी. उसमे रंगभेद नीति का विरोध करने के लिए स्वदेश लौटने का साहस नहीं था. दोस्तों, मैं उस ऑर्थर नोर्त्जे की स्मृतियों के सहारे ही नहीं जीना चाहता हूँ. मुझे अपने आस पास संभावनाशील कवि कथाकारों की जरूरत है. सोचता हूँ कि क्या हिंदी ब्लॉग में सिर्फ लफ्फाज, लम्पट व शोहदे बचे रहेंगे और कवि कथाकार अपनी आहत आत्मा की संतुष्टि के लिए अलविदा कहते जायेंगे ? और कुछ सापेक्ष प्रश्नों के उत्तर में अपना लेखन स्थगित कर देंगे.
मेरा मन विचलित है और मेरे ख़यालों की दौड़ भंवर में फंस गयी है. ऑर्थर नोर्त्जे के कुछ शब्द आप तक भेज रहा हूँ, अगर वे अपील करे तो सब लौट आओ. हिंदी ब्लोगिंग में सिर्फ लम्पट ही नहीं बचे रहने चाहिए ? मैं आपको मेरे ब्लॉग रोल में देखना चाहता हूँ.
मुझे भय नहीं है सृष्टि की अनंतता
या प्रलय से
यह तन्हाई है जो क्षत विक्षित करती है
और रात को बल्ब की रोशनी
जो दिखाती है मेरी बाँह पर राख...
[ Photo Courtesy : http://www.unisa.ac.za/]
हिंदी ब्लोगिंग में सिर्फ लम्पट ही नहीं बचे रहने चाहिए
ReplyDeleteइस कथन से सहमत
बी एस पाबला
किशोर जी,
ReplyDeleteनिःसंदेह यह दुखद है...!!
हम सबके लिए...हिंदी ब्लॉग जगत के लिए कुछ सबल हस्ताक्षरों का इस तरह लुप्त होना..
लेकिन मन में विश्वास है ..ये फिर उभरेंगे एक नयी उर्जा के साथ ...
आप भी यही विश्वास बनाये रखिये.....
जिन्हें लिखने की आदत है वो इस आदत से इतनी जल्दी पीछा नहीं छुड़ा सकते ....
लगता है यह एक छोटा सा विराम है....और फिर सब लौट आयेंगे पहले की तरह...
इसी अटूट आशा के साथ...
आभार..
बढ़िया पोस्ट।
ReplyDeleteएक ही बात कहना चाहता हूं। आप मुझसे अभी तक नहीं मिले हैं। बात भी एक बार ही हुई है।
शायद कभी मिल लेंगे तो उसके बाद ऐसी अभिव्यक्तियों का अंत कुछ अलग ही हुआ करेगा।
उम्मीद है नए साल की शुरुआता में या किसी अन्य महिने में मिलेंगे। ये तय हो चुका है। 2010 में जोधपुर-बाड़मेर भ्रमण। ...क्या हुआ, घबरा गए?
चीयर्स...
पहली बार आपका लेख पूरा पढ़ा। खुशी ही हुई कि इससे पहले आपको मन से नहीं पढ़ा और अब वह सब पढ़ने के लिये बचा है मेरे लिये।
ReplyDeleteसंवेदनशील लेख। अपूर्व और उसके पहले नंदिनी ने ब्लाग छोड़ने की बात कही।ये ब्लाग जगत के बेहतरीन लिखने वाले लोगों में हैं। इनकी कमी खलेगी।
लेकिन मुझे लगता है ये फ़िर लौटकर आयेंगे।
हिंदी ब्लागिंग में सिर्फ़ लम्पट ही नहीं बचेंगे।
यह दुखद है! बढ़िया पोस्ट।
ReplyDeleteमेरी समझ से परे है.. क्यों हम किसी के कहने पर अपना ब्लोग बंद कर चलते बनते है... किशोर जी ये कांरवा एसे ही चलता रहेगा.. पर अच्छे ब्लोग गलत कारणों से बंद हो तो दुख तो होता है..
ReplyDelete@ वडनेरकर जी,
ReplyDeleteकभी-कभी अप्रत्याशित ख़ुशी भी चेहरे पर घबराहट सदृश्य भाव प्रदर्शित करती होगी. आपके आने की प्रतीक्षा 2010 के अंत से भी आगे तक बनी रहेगी.
अपूर्व से बात हुई थी। उसके विचारों से सहमत होते हुये भी उसे वापस आने के लिये बस एक बार कहा मैंने।
ReplyDeleteआज का लिखा कुछ अंदर तक हिलकोरें मचाता गया है। किसी का जाना, न जाना पूर्णतया व्यक्तिगत निर्णय है। आपके शब्दों में बचे हुये लंपट को पढ़ना, न पढ़ना भी तो व्यक्तिगत निर्णय है। मैं खुद अपने को शामिल करते हुये आप समेत हम सब को जाने कितने पोस्टों पे झूठी वाह-वाही करते देख चुका हूँ, देखता हूँ। इन कथित लम्पटों को भी हम सब ही तो तरजीह दे रहे हैं। लेकिन काश कि पलायन ही सारी समस्याओं का इलाज होता...!!! कितना आसान होता सारा कुछ तब तो! हमसब पलायन कर शहिदों की फ़ेहरिश्त में शामिल हो जाते कथित रूप से पूजे जाने को। नहीं????????
सपने की बेचैनी का वर्णन कुछ इतना रियल-सा हो उठा है कि पढ़ने वाले को बेचैन कर रहा है।
आप सही कह रहे हैं किशोर जी . वैसे मैने भी अपने ब्लॉग के माध्यम से उन्हें लौट आने का आग्रह किया है . मैं भी चाहता हूँ की अच्छे लिखने वाले यूँ नहीं चले जाने चाहिए . वैसे भी अच्छा लिखने वालों की तादात कम है .
ReplyDeleteमैं फिर से उन सभी से गुज़ारिश करूँगा कि वी पुनः लिखना प्रारंभ करें.
नहीं तो दोस्तों को छोड़कर कोई यूँ जाता है भला , फिर वो दोस्त कैसा भला ?
दोस्तों नाराज़गी छोड़ो और अपने दोस्तों की खातिर ही लौट आओ
बीते कुछ दिनों के मन्वंतर पर खरा खरा सा संवेदित कर देने वाला लिखा है आपने.
ReplyDeleteहिंदी ब्लोगिंग में बहुत विभिन्नताएं भी है पर साझा आनंद है इसलिए छोड़ने पर दुःख होता है.अपूर्व से मेल पर बात हुई थी.वे बहुत दुखी और नाराज़ है.नंदिनी जी से मेल संपर्क नहीं है पर यही से गुजारिश कर रहा हूँ की किशोरजी के इस आलेख को ज़रूर पढ़ें और पुनर्विचार करें.बाकी सभी लेखक मित्रों से यही निवेदन दोहराता हूँ.
ापने शब्दों के साथ हमारा अनुरोध भी दर्ज कर लें प्रवाह मय सपनों की कहानी बहुत अच्छी लगी धन्यवाद और शुभकामनायें
ReplyDeleteजो लोग इस तरह से नादान किस्म का निर्णय लेते हैं, उन्हें ब्लॉगिंग-श्लॉगिंग की सतही किस्म की ही जानकारी रहती है, ऐसा मेरा मानना है.
ReplyDeleteब्लॉगिंग एक प्लेटफ़ॉर्म है, अपनी सृजनात्मकता को दुनिया तक पहुँचाने का. इस माध्यम से कोई मैला भी फेंक कर दुनिया तक पहुँचाना चाहता है तो कोई मिश्री की डली भी.
कचरा, मैला और धूल सड़क पर, फुटपाथ और पगडंडियों में भी फैला रहता है. क्या इन्हें सड़क पर पाकर आप चलना बन्द कर देते हैं?
यारों, जमाने भर के कचरे की बातें करते हो तो अपने स्वर्ण-लकीरों को बड़ा कर के तो दिखाओ जरा!!
नहीं जानता क्या कहूं...मन में बहुत कुछ था....नंदनी ने अचानक से अप्रत्याशित निर्णय लिया ..उनसे संपर्क सूत्र ढूंढ ही रहा था .के अपूर्व ..मन उदास हो उठा ...क्यों ये लोग मान कर चलत्ते है के कंप्यूटर के पीछे देवता लोग है ....तुरंत फुरंत भावुक होकर निर्णय... .खैर अपूर्व से लम्बी बात हुई है ..फ़िलहाल उसे एक ब्रेक की जरुरत है .. ...वापस आयेगा..... .मन कई बार मेरा भी खिन्न हुआ है ...अब चीजो को देखता समझता हूं...सिर्फ इतना ही कह सकता हूं के रचनात्मक प्रक्रिया ओर अच्छी सोच बाधित नहीं होनी चाहिए ...वैचारिक प्रदूषण के इस दौर में ... निराशा को अस्थायी होना चाहिए ......मई फिर भी एक बेहतर उम्मीद लगाये बैठा हूं......
ReplyDelete.नंदनी आप पढ़ रही है न.......
पता नहीं ये 'अलविदा' वाली पोस्ट्स पढ़कर मुझे उस विज्ञापन की क्यूँ याद आ रही है..."मैं घर छोड़ कर जा रहा हूँ"....."पर माँ ने जलेबी बनायी है"...और वो बच्चा sheepish smile लिए घर में दाखिल हो जाता है....ऐसा ही लग रहा है जैसे रूठकर बचपने में ये कदम उठाये जा रहें हैं...
ReplyDeleteअपूर्व को शिकायत है कि सब तटस्थ क्यूँ हैं?...मुझे भी एक बार सबों से यह शिकायत हुई थी,जब किसी धर्म विशेष के खिलाफ बड़ी अभद्रता से लिखा गया था और सब मौन थे(अपूर्व भी)....और वह कोई बेनामी टिपण्णी नहीं थी...किसी ने बाकायदा अपने नाम के साथ वह पोस्ट लिखी थी....मैंने एक ई-मेल तैयार किया था और सभी established bloggers को उनकी email id ढूंढ भेजने ही वाली थी (मैं नयी आई थी,और मुझे नहीं पता था कि पोस्ट लिख कर भी विरोध जताया जा सकता है) एक मित्र ऑनलाईन मिले और उन्होंने सलाह दी कि नयी नयी आई हो,अभी चुप कर बैठो...पहले देखो ,समझो....मैंने वो मेल नहीं भेजा...
ब्लॉग के सहारे अभिव्यक्ति का एक माध्यम मिला है...चंद अनुपयुक्त और बेनामी टिप्पणियों से डर कर ब्लॉग बंद कर देना..समझदारी नहीं कही जा सकती...आपके साथ हम सबको इनलोगों के ब्लॉग बंद कर देने के फैसले का दुःख है.
hamjuban hain ham...
ReplyDeleteaapke saath hamara bhi vinamra aagrah ki lout aayen sab.
ओह ! कितने अच्छे शब्दों में आपने अपनी छाप छोड़ते हुए हर दिल का हाल व्यक्त कर दिया। अभी-अभी ओम आर्य के ब्लॉग पर कुछ लिख कर आ रहा हूं। काश इतना अगर सबके ब्लॉगिंग पर होता तो मैं इंसपैक्टर की तरह कहता - खबरदार ! कोई अपने जगह से नहीं हिलेगा। कोई कहीं नहीं जाएगा।
ReplyDeleteखैर...
अपूर्व की अभिव्यक्ति क्षमता, विनम्रता और विद्वता उस श्लोक की याद दिलाते हैं - एक्कोहं द्वितीयोनास्ति न भूतो न भविश्यति। हो सकता है कुछ ज्यादा ही कह गया लेकिन अभी तो ऐसा ही लग रहा है।
निदा फाज़ली याद आ रहे हैं
शाख हो सब्ज तो
हस्सास (भावुक) फज़ा होती है
हर कली फूल की सूरत
जुदा होती है।
तुमने बेकार ही मौसिम को सताया
वरना फूल जब खिलकर महक जाता है।
खुदबखुद
शाख से गिर कर जुदा हो जाता है...
उम्मीद करता हूँ नंदिनी, ओम आर्य अपूर्व औ' डिम्पल लौट आयेंगे.. इनमें से तीन का लौटना तो तय लग रहा है...
aa ab laut chale ,phir se aane ki umeed bandhe ,ise antraal samjhe sabki ichchhao ka khyaal liye is jagat me apni khatir na sahi auro ke liye hi aana hi hoga tumhe aana hoga .hridyasparshi rachna ,sundar lekh ,kai baar yoon bhi hota hai ,ye jo man ki seema rekha hai ,man todne lagti hai ,jaanoo na ...
ReplyDeleteबहुत उम्दा पोस्ट. विश्वास है, अपूर्व और नन्दिनी वापस आयेंगे. इस तरह भी जाता है कोई?
ReplyDeleteब्लॉग की इस दुनिया में थोड़े थोड़े दिनो में तूफान आता रहता है.बहुत बार मन में आता है कि क्यूँ समय व्यर्थ कर रहे हैं यहाँ ..
ReplyDeleteएक बार मैं भी ब्रेक ले चुकी हूँ..लेकिन कुछ इस तरह से यहाँ बँध जाते हैं और लौट आना पड़ता है.
पलायन निश्चित रूप से हल नहीं है लेकिन कुछ बातें है जो व्यथित अवश्य करती हैं.
यही उमीद करते हैं की जो चले गये हैं वे वापस आएँ चाहे एक ब्रेक के बाद..जो अच्छा लिख रहे है उनसे हम भी सीखते ही हैं इसलिए उनका जाना चोट लगने जैसा ही होगा
आप के सपने के विवरण पढ़ कर बहुत अजीब सा महसूस हो रहा है.
आज किन भावनाओं में आप ने यह लेख लिखा है ..वह समझ आ रहा है. उमीद है यह संदेस सब तक पहुँचे.
आपका लेख बेहद संवेदनशील है , सुभाशा से ओत-प्रोत !
ReplyDeleteअच्छे लोग लौट आयेंगे , हमें विश्वास है क्योंकि कहीं
न कहीं उनके अंतर्मन में यह ध्वनित हो रहा होगा ---
'' ...चाहता तो बच सकता था
मगर कैसे बच सकता था ,
जो बचेगा ...
वो कैसे रचेगा ....... ''
........................ ( श्रीकांत वर्मा )
रवि रतलामी जी ने जो कहा, उससे आगे कहने को कुछ नहीं रह जाता...
ReplyDeleteअगर कीचड़ न हो तो कमल की पहचान कौन करेगा...
अपने को उच्चतर समझने का बोध भी कई तरह की समस्याओं को जन्म देता है...अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी...
जय हिंद...
ब्लॉग एक खतरनाक माध्यम है। इससे बहुत ज्यादा उम्मीद न रखें। इसके जरिए कुछ लोग अगर आपके सीधे संपर्क में आ सकें तो बहुत अच्छा। वरना समझ लें कि अपना संदेश बोतल में बंद करके आपने समुद्र में फेंक दिया। कोई पढ़ ले तो ठीक, न पढ़े तो कोई बात नहीं। किसी का जवाब आ जाए तो खुदा की नेमत, और न आए तो भी ऐसा क्या हो जाएगा। आपका तो जो होना है, वह अपनी ही रफ्तार से होगा।
ReplyDeleteलोग आते हैं, जाते हैं
ReplyDeleteकिसी के लिये कोई रुकता है कहां?
किशोर
ReplyDeleteपिता पेड़ सरीखे होते हैं .घनी छाया , हरियाली और फलों से भरे .और पंछी सरीखे हम .
जो उनकी मजबूत टहनियों , शाखाओं, फूलों, पत्तों के बीच ,बना लेते हैं अपने घौंसले .हर डर से हो कर निडर .जब वे पेड़ नहीं रहते .गिर जाते हैं तो उनकी यादों के साथ रहना हमारी विवशता बन जाती है .जीना इस लिए पड़ता है कि अब हमें पेड़ बनना है .कि अब पिता बनना है इसलिए कि कई जोड़ी आँखें हमारी राह तकती हैं और उन्हें हम निराश नहीं कर सकते और फिर मरना हमारे हाथ में भी कहाँ होता है .. और हाँ बचाना भी . लेकिन मुस्कराना तो होता है .तो ....
dil ki baat dil tak pahunchi.......
ReplyDeleteuttam aalekh !
in a day ,when you don't come across any problems -you can be sure that you are traveling in a wrong path ....
ReplyDeleteपिता जी के बारे में जो भी लिखा वो हृदय छूने वाला था? आपके व्यक्तित्व के संवेदनशील कोने से परिचय करवाने वाला।
ReplyDeleteबाकि मन थोड़ा अशांत है तो बिंबों में स्थिर नही हो पा रहा।
ब्लॉगजगत की उथल पुथल पर मेजर साब के ब्लॉग पर मन की बातें लिखी हैं....! फिर क्या दोहराऊँ
एक कोने में खड़े होंकर देख रहे है सबको.. और पहचान भी रहे है..
ReplyDeleteयहाँ से आ कर वापस जाना मुश्किल है ...मेरा तो यही मानना है ..ब्रेक लिया जा सकता है पर पूर्ण रूप से न आ पाना असम्भव है ..यही सब होंगे यह मन का विश्वास है ..
ReplyDeleteभावनाओं और संभावनाओं से भरपूर पोस्ट,
ReplyDeleteजाना किसे सुहाता है, लेकिन जाना शाश्वत है,
हां, बीच राह में छोड़कर जाना अखरने वाला होता है।
ब्लाग जगत में अच्छे लोग हैं और रहेंगे। जाने वाले भी कभी-कभी लौटकर आ जाते हैं, शायद दूसरे रूप में।
one child cried when hi had no shoes ,suddenly hi stopped crying when he saw a man without leg ....
ReplyDeletelife is full of blessings, sometimes we don't "understand" it
aapki itni rachna padhi magar itna peecha kisi ne nahi kiya jitna is lekh ki kuchh baton ne ,khalbali macha rahi hai ,shayad jo maine dekha yaa mahsoos kiya wo kisi ne dekha nahi yaa kaha nahi aur hum kahne me asmarth hai ,isliye khiche chale aa rahe hai ,aur vichar sandesh ke roop me chhodte jaa rahe hai .baar-2 aana uchit na lage magar mazboor hai jab tak ye post hai .sorry, isme khta aapki hai jo aesa likha yaa tarif kahoon .
हम सभी को रोचक सपने आते रहे हैं, कभी-कभार कुछ याद भी रह जाता है और अक्सर सब भूल ही जाते हैं. कभी-कभी तो भूल जाने की प्रक्रिया याद रखने से पहले ही हो जाती है. मगर आपने उसे याद रखा और इतनी कुशलता से हम तक पहुंचाया. जब यह टिप्पणी लिखने लगा तो वह इतनी बड़ी हो गयी कि एक पोस्ट ही बन गयी. संभव हो तो यहाँ क्लिक करके पढ़ लेना.
ReplyDeleteअद्भुत लिखते हैं आप -अन्यथा कोई इतनी लम्बी ब्लॉग पोस्ट एक ही सांस में नहीं पढ़ लेता !
ReplyDeleteआपने अपने मन की बात कही. पिता जी का जाना हर बेटे के लिए दुखद है. मगर संभालना तो होता है. जीवन इसी का नाम है. आपका लेखन देख आप सुलझे हुए लगते हैं, निश्चित ही इस गहन दुख से उबर पायेण्गे. मेरी शुभकामनाएँ एवं पिता जी की आत्मा की शांति हेतु परम पिता से प्रार्थना.
ReplyDeleteबाकी की विषय वस्तु-क्या कहा जाये किन्तु लेखनी आपकी प्रभावित करती है एवं बाँधे रखने में सक्षम है. पूरा ध्यान से अक्षरशः पढ़ा.
कौन लम्पट, कौन साहित्यकार, कौन कवि, कौन कथाकार-सबकी अपनी पसंद हैं. जिसे मैं अच्छा लेखक मानूँ, जो मुझे लुभाये, जो मुझे मनभावन लगे वो शायद आपको लम्पट या ठीक इसका विपरीत या एक जैसा..कुछ ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता.
किसी को कोई प्रभावित करता है, किसी को कोई-बुकर अवार्ड मिल जाता है मात्र तीन लोगों को प्रभावित कर, जो तीनों एक कमरे में बंद हो घोषणा करते हैं.
इस हेतु हर पाठक का स्वविवेक होता है...और पसंद..कोई मेरठी साहित्य पढ़ कर पूरा रेल का सफर काट लेता है तो कोई विष्णु प्रभाकर की अर्द्ध नारिश्वर के चार पन्ने पढ़कर नींद के खर्राटे लेने लगता है.
सबके अपने ब्लॉगरोल हैं, सबकी अपनी पसंद. ब्लॉगरोल साहित्यकार की घोषणा नहीं, मात्र आपकी/हमारी पसंद है.
आप अच्छा लिखते हैं. आता रहूँगा नियमित. लिखते रहिये.
निश्चित ही जब प्रसार की आवश्यक्ता है तो ऐसे में किसी भी ब्लॉगर का जाना, जो जरा भी सार्थक लेखन कर रहा था, एक दुखद एवं अफसोसजनक घटना है.
वापसी के लिए मात्र निवेदन ही किया जा सकता है.
आपकी अंतिम लाइनें मन को छू गयीं, वाकई हिन्दी ब्लॉगिंग में सिर्फ लम्पट ही नहीं बचे रहने चाहिए।
ReplyDeleteआशा है आपकी आवाज रंग लाएगी।
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छोटी सी गल्ती जो बडे़-बडे़ ब्लॉगर करते हैं।
क्या अंतरिक्ष में झण्डे गाड़ेगा इसरो का यह मिशन?
हमारी भी उपस्थिति समझी जाए!!!!
ReplyDeleteवैसे आपके तरीके ने प्रभावित किया तो रह ना सका बिना चर्चा किये|
हमारी नस्लों में अगर रेत के जींस होंगे तो वे भी कोई नया ठिकाना ढूंढ लेगी, जहाँ आदमखोर दैत्याकार मशीनों का शोर नहीं होगा और कोई कोस भर दूर हवा में लहराते हुए कपडे को देख कर मन हुलस उठेगा. मुझे ये गहरा एकांत पसंद है लेकिन इन दिनों में रेगिस्तान का चेहरा बदलता रहा है और मैं भीतर से टूटता. सच तो ये है कि पापा के जाने से मेरी नीव तिड़क गई है और उसका असर अब बाहर दीख रहा है.
ReplyDeleteaapki pair ki samasya ka asaan sa ilaaj hai ,ek chemist ki shop par jaa kar usse CORN-CAPS maangiye unhe wahaan par lagaayiye ,istemaal karne ka tareeka wo apko bata hi dega ,nahi to ek bahut si choti si surgery se isko durust karwaya jaa sakta hai.sapnon par bhi aapne baht kch padha hi hoga ,bahut achchi post hai.laag lapet nahi ekdam satya hai ,yakeen kijiye janaab .
अंग्रेजी में जिसे कोर्ण(ठल्ला) कहते हैं,वही तो नहीं हुआ है पैर में,जिसमे की गोल सी चमड़ी इतनी सख्त हो जाती है,कि चलते वक़्त कांटे सी जबरदस्त चुभन होती है ??यदि यही है तो, दवाइयों की दूकान में कोर्न कैप (बैंड ऐड जैसा) मिलता है..जिसे ठल्ले वाले जगह में लगातार बदल बदल कर दो तीन महीने लगाने पर वह सख्त मांस फिर से नरम पड़ जाता और अलग से कोई शल्य क्रिया नहीं करवानी पड़ती... मैंने इसे आजमाया था...यदि यही समस्या है तो एकबार आजमाकर इसे देख सकते हो...
ReplyDeleteबाकी इस पोस्ट में जो कुछ भी कहा,सारे शब्द मन में आकर ऐसे घुल मिल कर एक हो गए कि आगे क्या कहूँ,सूझ नहीं रहा...हाँ ,अवसाद को हावी नहीं होने देना चाहिए किसी भी हाल में...इससे मुक्त होने का हर संभव प्रयास इसलिए करना चाहिए कि किसके पास कितने साँसों की पूंजी है,कोई नहीं जानता...और जाते समय यह न लगे कि अपने से जुड़े लोगों तक भी अपने अवसाद को प्रसारित कर उन्हें नाहक दुखी किया ...यह सही न किया...
पुत्र पिता पति होने के नाते केवल यह कर्तब्य नहीं बनता कि उनके भरण पोषण के निमित्त उपाय करे...घर का मुखिया यदि प्रसन्न न रहे तो घर में भी एक मायूसी सी छा जाती है...इसलिए किसी को भी प्रफुल्लता देने के लिए स्वयं उत्साहित रहना परम आवश्यक है..
भावुक संवेदनशील लोग स्वाभाविक रूप से अवसादग्रस्त भी कुछ अधिक होते हैं,लेकिन इससे निकलने का प्रयास भी करना ही होगा...
मैं स्वयं भी प्रयास में हूँ कि अच्छे लिखने वाले जो अभी तक नेट से जुड़े नहीं हैं,उन्हें किसी तरह इससे जोड़ कर हिन्दी चिट्ठाकारी को समृद्ध होते देखूं...अच्छा लिखने वाले किसी भी कारण से इससे विमुख न हो पायें,इसके लिए अपने भर जितना भी कुछ किया जा सकता है ,जरूर करना ही चाहिए...
In halaton main isse behterin post nahi ho sakti thi,
ReplyDeleteCheezon ko dekhne ka nazariya aur unhein abhivyakt karna dono ek saath hona ek hi vyakti main hatprabh karta hai.
Jaisa main kaha tha 'Samayik' vishaya main likhi ab tak ki sabse behterin post jo kai logon ko ki aankhein num kar gayi (Unki bhi jo emotionless hone ka jhoota natak karte hain)
;)
(I hope some one is reading it.)
बढ़िया पोस्ट
ReplyDeleteसमृद्ध भाषा शैली
लम्बा लेख था शुरू किया तो पूरा पढ़ गया
एक बार नहीं दुबारा भी पढ़ा
अच्छा लगा यहाँ आकर।
हिन्दी ब्लोगिंग में बहुत से अच्छे लोग हैं
यह हमारी नादानी है कि हमारा सारा ध्यान
लंपट ही खींच लेते हैं।
मुझे विशवास है नंदिनी वापस आएंगी.ब्लॉग जगत में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का दुरूपयोग किया जा रहा है पर जूं के के डर से घाघरा उतार देना बुद्धिमता नहीं कही जायेगी.पोस्ट अच्छी लगी.
ReplyDeleteni:sandeh BEHTREEN post...
ReplyDeleteउम्मीद करती हूँ आपकी वेदना और विनती के समक्ष वो भी पिघलें जिनके लिए आपने पोस्ट लिखी है..
ReplyDeleteऑर्थर नोर्त्जे की जिगर भेदती सिफारिश को तो कोई कैसे ठुकरा सकता है?
क्षमाप्रार्थी हूँ ब्लॉग पर देर से आने के लिए कुछ समयाभाव था.एक बहुत अच्छी पोस्ट . हर शब्द अपनी दास्ताँ बयां कर रहा है आगे कुछ कहने की गुंजाईश ही कहाँ है बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteजी किशोर जी हम सभी चाहते हैं अच्छे लोग ब्लॉग जगत से जुड़े रहे .....!!
ReplyDeleteहम तो आज भी चुन चुन के पुरानी पोस्ट्स पढ़ते हैं इधर उधर से... :)
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