निस्तब्ध कोठरी के कोनों से निकलकर अँधेरा बीच आँगन में पसरा हुआ था। दीवारों से सटी चुप्पी से अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल था कि यहाँ पाँच लोग बैठे हैं। उन सब लोगों में एक ही साम्य था कि वे सभी एक लड़की को जानते थे या उसकी ज़िंदगी को कहीं से छू गए थे। चमकदार सड़क से होता हुआ गठीले बदन वाला ऑफिसर मद्धम प्रकाश वाली इस बड़ी कोठरी में दाखिल हुआ। दुनिया देख कर घिस चुकी उसकी आँखें छाया प्रकाश की अभ्यस्त थीं। ऑफिसर ने कम रोशनी में भी पंक्ति बना कर बैठे लोगों को पहचान लिया। एक पर्दा कोठरी को दो भागों में बाँट रहा था। नीम अँधेरे में ये पर्दा और अधिक भय एवं रहस्य को बुन रहा था।
ऑफिसर ने पर्दे के ठीक आगे, एक बिना हत्थे वाली बाबू-कुर्सी रखी। उस पर अपना पाँव रखते हुए बोला "कोतवाल साहब, अब रीडर जी और एल. सी. को बुलाओ।" बिना पदचाप के दो साये आये और कोने में एक टेबल के पीछे रखी दो कुर्सियों पर बैठ गए। जबकि ऑफिसर अभी भी उसी मुद्रा में खड़ा था। सन्नाटा तोड़ने के लिए कोई तिनका भी न था, मानो ऑफिसर इसे एक मनोवैज्ञानिक हथियार की तरह धार दे रहा हो। कै हो जाने से पहले की हालात में बैठे हुए लोगों के चहरे पर यहाँ से बाहर निकल पाने की उम्मीद जगी, जब कुछ क्षणों के बाद बयान दर्ज़ किये जाने की प्रक्रिया आरंभ हुई।
ऑफिसर का इशारा पाकर एक लड़का खड़ा हुआ और बोला विनीत श्रीवास्तव यानि दोस्त
पहचान ?
सर, मेरे पिता नहर परियोजना में इंजीनियर हैं और माँ कॉलेज में दर्शनशास्त्र पढ़ाती हैं। मैं बेंगलुरु के एक निजी अभियांत्रिकी कॉलेज में पढ़ता हूँ।
क्या जानते हो लड़की के बारे में ?
मैंने उसे पहली बार घर के बाहर दूब में पानी देते हुए देखा था फिर वह कई बार कॉलेज जाती हुई दिखी। हमारी जान पहचान बढ़ती गयी क्योंकि हम दोनों के पापा एक ही ऑफिस में थे। सर फिर हमारी दोस्ती हो गयी थी। कभी-कभी हम शाम को पार्क में मिला करते थे। ऐसे ही जैसे और लड़के लड़कियाँ मिला करते हैं। वहाँ उसके साथ बैठकर शाम को पंद्रह-बीस मिनट रोज़ बात किया करता था। वह कई बार मुझसे कुछ किताबें मँगाया करती थी। मैं अपने दोस्तों से लाकर उसे दिया करता था। वह पढ़ने में बहुत अच्छी थी, वह देखने में बेहद सुंदर थी। उसके कपड़े पहनने का सलीका भी आधुनिक था। वह किसी से डरती नहीं थी और उसने मुझे दोस्त कहा था इसलिए मैं उसे पसंद करता था।
कितना पसंद ?
विनीत ने बुझी हुई आशंकित निगाह से देखा और कहा। सर पहले करता था मगर बाद में उसका व्यवहार बदलने लगा बहुत देर तक पार्क में बैठी रहने लगी। वह अजीब से सवाल भी करने लगी। मुझे कहती थी कि तुम बदल गए हो। जबकि मैं और वह सिर्फ दोस्त ही थे। हम छोटे से क़स्बे में रहते हैं, वहाँ लोग कई तरह की बातें बना लिया करते हैं। इस तरह से बागीचों में मिलना अच्छी बात नहीं मानी जाती है। ये मैंने उसे समझाया लेकिन उसने मेरी बात नहीं मानी। एक बार वह मेरा हाथ पकड़ कर बैठी थी तब मेरी मम्मी ने देख लिया और फिर मुझे बहुत डांटा गया। हम दोनों को अलग रहने की हिदायतें दी गयीं। उसके बाद भी वह ज़िद करती थी मगर मैं फिर कभी उससे नहीं मिला।
कभी नहीं ?
जी कभी नहीं।
ऑफिसर ने लड़के को उसी जगह बैठ जाने को कहा जहाँ से वह खड़ा हुआ था। उसके आगे एक सुंदर-सी नाटे कद की लड़की बैठी हुई थी। लड़की ने उठकर अपना नाम बताया। रमा दीवान। मैं अंजलि के साथ पढ़ती थी।
रमा दीवान यानि सहपाठी
एक रात को कॉलेज हॉस्टल में हो-हल्ला सुन कर मैं अपने रूम से बाहर निकली तब पहली बार उसके नाम पर मेरा ध्यान गया, अंजलि सिंह। हॉस्टल की कुछ लड़कियों ने वॉर्डन से शिकायत की थी कि पास के रूम से सिगरेट के धुँए की गंध आ रही है। उसका रूम खुलवाया गया। उसमे से बहुत तेज गंध आ रही थी। आप जानते हैं कि बंद कमरे में भले ही एक सिगरेट पी जाये किंतु उसमें बहुत देर तक गंध बसी रहती है। अंजलि रूम में रखे हुए लकड़ी के पाट पर चुप बैठी थी और शिकायत करने वाली लड़कियाँ अपनी नाक को इस तरह सिकोड़ रही थीं जैसे वे किसी अस्पृश्य बू से नापाक हो गयी हों। कमरे की बालकनी में बहुत सारे सिगरेट के टोटे पड़े हुए थे। वॉर्डन और उनकी सहायक ने हिकारत भरी निगाह से अंजलि और उसके सामान को देखा। उनकी निगाहें इस अक्षम्य अपराध पर सब कुछ उठा कर बाहर फेंक दिये जाने जैसे भाव दिखा रही थीं।
सर, अंजलि को कल सुबह ऑफिस में आने को कह कर वॉर्डन चली गयीं। कुछ लड़कियाँ फुसफुसाती, मंद-मंद हँसती और कुछ चेहरे पर आश्चर्य के भाव बनाते हुए, अपने-अपने कमरे में चली गयीं। मुझे इसतरह एक लड़की को अकेली छोड़ कर आना अच्छा नहीं लगा तो मैं उसके पास रुक गयी। “क्या हुआ?’’ मेरे पूछने पर बोली। “क्या हुआ सिगरेट ही तो पी है” उसके चेहरे पर किसी तरह के नए भाव नहीं थे। वह बेहद शांत थी और उसकी आँखें किसी शून्य के मोह में बँधी हुई दिख रही थीं। “किसने सिखाया तुम्हें सिगरेट पीना?” अंजलि ने एक डूबी हुई किंतु गहराई से उपजी मुस्कान से कहा- “मेरे दोस्त ने।“ उस रात के बाद मैं हमेशा उसे अपने साथ रखती थी लेकिन उसका अकेलापन चारों ओर से उसे घेरे रहता था।
उससे घनिष्ठता के बाद के दिनों में, कई बार वह शाम होने से पहले हॉस्टल से निकल जाया करती थी। रात को मालूम नहीं किसी तरीके से अपने रूम में बिना किसी को ख़बर हुए पहुँच जाया करती थी। अंजलि ने एक बार मुझे बताया था कि वह किसी मंदिर जाया करती है। वह सुनसान पहाड़ी के बीच में बना हुआ है। वहाँ एक बाबा रहता है मगर बड़ा बेकार आदमी है। एक ख़ास बात उसने मुझे बताई थी, जिसे मैं आज तक नहीं भूल पाई हूँ। वह एक शाम बेहद निराश होकर सड़क पर खड़ी थी और उसने एक ऑटो रुकवाया था फिर जब ऑटो वाले ने पूछा कहाँ जाना है तो उसने कहा था। “जहाँ चाहो ले चलो।” उसने जब मुझे ये बताया तो मैं उसके एकाकीपन से डर गयी थी।
सर हम लोग कोई एक साल तक साथ में रहे थे, उसके बाद।
एक मौन का सिरा थामे हुए, रमा चुप हो गयी। ऑफिसर ने तीसरे आदमी की तरफ देखा।
मंडल नाथ यानि पहाड़ी शिव मंदिर के महंत
बम भोले!, ईश्वर सबका भला करें। साहेब, उस दिन शाम के सात बजने को थे और मैं आरती के लिए नहाकर मंदिर की झुक आई ध्वजा को सही करने के लिए दीवार पर खड़ा हुआ था। वहाँ से मैंने देखा एक लड़का पहाड़ी से कूद कर अपनी जान देना चाहता है। मैंने चिल्लाना उचित नहीं समझा क्योंकि मैं ऐसा करता तो वह निश्चित ही कूद जाता। इसलिए मैं बिना आवाज़ किये उस तक पहुँचा और उसको कमर से कस कर पकड़ लिया। पहाड़ी के ठीक ऊपर खड़ा देखकर जिसे मैंने लड़का समझा था, वह वास्तव में एक लड़की थी। उसने कमीज और पैंट पहनी थी इसलिए मुझे धोखा हो गया था। मैं उसे अपने साथ मंदिर तक लाया और पूछा- “बेटी ऐसा गलत काम क्यों करना चाहती हो?” साहेबान वह बेहद दुखी लड़की थी। हमारे समाज में स्त्रियों को घनघोर कष्ट दिये जाते हैं, कुछ हल्के होते हैं जिन्हें आप शारीरिक कहते हैं और बाकी गंभीर जिन्हें मानसिक कहा जाता है। वह मानसिक कष्टों से घिरी थी। ईश्वर की कृपा से उस बच्ची ने मेरी बात मानी अपने मन के विकारों को प्रकट किया। प्रभु के द्वार पर मैंने उसे चरणामृत दिया, धूणे की चुटकी भर राख उसको दी और फिर वह चली गयी।
और क्या हुआ था उस दिन ?
मैं भगवान का भक्त हूँ, उसकी आराधना में लीन रहता हूँ। उसे सीढियाँ उतरते हुए देख लेने के बाद, मैं आश्वस्त हो गया था। मेरा मन भी प्रसन्न था कि देव चरणों में बैठने से मैं ये शुभ कार्य कर सका। ईश्वर की लीला अपरंपार है फिर कभी उसका आगमन उस मंदिर में नहीं हुआ।
बाबा की जिज्ञासु आँखों के कोरों पर अटकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा को अनदेखा करते हुए ऑफिसर ने चौथे आदमी की तरफ देखा, जिसने नीली जींस पर खाकी रंग का कमीज पहना हुआ था।
बीदा रावत यानि टैक्सी ड्राईवर
नमस्कार साब! सितंबर का महीना था और शाम को पाँच बजे थे, तब मैंने उसे पहली बार देखा था। उसने मुझे रुकने का इशारा किया। वह टैक्सी में बैठी और बोली, फतेहसागर चलो। मैं उसको वहाँ ले गया। उसने मुझे पंद्रह रुपये दिये और झील के सामने पहाड़ी पर बने बागीचे की सीढियाँ चढ़ गयी। मैं वहाँ से घाटी में अपने घर चला गया। शाम की चाय पीकर जब वापस जा रहा था तब सड़क के किनारे कुछ लोग गोल घेरा बनाये हुए खड़े थे। मैंने उन लोगों के बीच जाकर देखा तो वही लड़की सड़क के किनारे आधी बेहोशी जैसी हालात में थी।
साहब, मैंने लोगों से कहा कि इसे अस्पताल पहुँचा देते हैं लेकिन मुँह पर पानी के छींटे मारने से वह होश में आने लगी थी। वह टैक्सी में बैठते ही बोली- “मैं यहाँ अकेली हूँ इसलिए मुझे अपने घर ले चलो।“ साहब मैं उसको अपने घर ले गया। मेरी बीवी ने उसको एक ग्लास जूस पिलाया, पंखे से हवा की। मैंने इशारा कर बीवी को एक तरफ बुलाया और कहा कि पता करे मामला क्या है? खामखाह हम न उलझ बैठें। उसने बताया कि वह यहाँ अकेली रहती है और उसका मन नहीं लगता इसलिए बाहर घूमने चली आया करती है और कमजोरी से चक्कर आ गया है। उसको अपने परिवार की बहुत याद आती है। जब हम ने देखा कि वह यहाँ आराम से है तो मैंने कहा- “तुम मुझे अपना भाई समझो और जब भी जी करे यहाँ भाभी के पास चली आया करो।“
बड़ी जल्दी रिश्तेदारी हो गयी ?
साब, बच्चों की कसम खा के कहता हूँ कि मैंने उस अकेली लड़की की मदद करने को ही बहन बोला था। वह मेरे राखी बाँध के गई। मेरी बीवी ने उसको अपने हाथों से गरम खाना खिलाया। परदेस में कहीं अपनापन मिल जाये तो बड़ा आसरा होता है। हाँ वो खुश थी, उसके बाद हमारे घर नहीं आई मगर उसने कहा था कि लौट के आएगी तब यहीं रुकेगी।
अधेड़ उम्र के इस आदमी ने दोनों हाथ एक याचक की तरह जोड़ लिए थे। एक चालीस-पैंतालीस साल की औरत अपनी जगह से उठ कर ऑफिसर के सामने चली आई।
बादामी यानि काम वाली बाई
अंजलि बेबी बहुत अच्छी लड़की थी साब, उसको संगत सही नहीं मिली। एक सुबह झाड़ू मारते हुए मैंने फर्श पर गिरी हुई, उसकी पैंट को अलमारी में टाँगा। उसमें एक टूटी हुई सिगरेट थी। मुझे उसी समय मालूम हो गया कि कुछ गड़बड़ है। मैं रोज़ उसका ध्यान रखने लगी। मुझे मालूम था कि बीड़ी पीती है तो जरुर कुछ गड़बड़ है। इसी चक्कर में एक दिन मैंने उसके पेट पर लाल निशान देखा तो उसे पकड़ लिया। फिर पूछा किसने किया? वह बहुत देर तक नहीं बोली फिर रोने लगी। उसको दोस्त लोगों ने ख़राब कर दिया था। उसके बदन पर नोंच के निशान देखकर मुझे भी अपनी पीठ याद आ गयी। ऐसा होता है सब औरत के साथ, पर साब उसकी तकलीफ़ थी कि ये शादी से पहले होने लगा। मैंने उसको बोला कि छोड़ दे सबको, अच्छा अफसर की बेटी है, अच्छा काम करो अच्छा से जीयो। वो मेरी सब बात सुन कर भी चुप रही।
किसने ख़राब किया ?
साब उसने कभी नाम बताया नहीं, वो बोलती थी कि कौन किसको ख़राब करता है? सब आप डूबते हैं। मुझे डूबे रहने दो। बाई, तुम बड़ी मूरख बात करती हो।
बादामी देवी के बयान की आखिरी पंक्ति बीदा रावत, मंडल नाथ और विनीत को किसी वेदवाक्य की तरह सुनाई दी। ज्यादा सवाल न पूछे जाने से और सख्ती किये जाने के भय से निकल आने के कारण कोठरी का मटमैला अँधियारा कुछ हल्का हो गया था। सब अपने फ़र्ज़ की अदायगी हो जाने के अहसास से कुछ आराम में आ गए थे। ऑफिसर अभी भी उसी पोजीशन में खड़ा हुआ था जैसे कोई विचारमग्न मूर्ति एक नियत अंतराल से निर्धारित सवाल पूछने के लिए बनाई गयी हो। घड़ीभर की ख़ामोशी के बाद ऑफिसर ने मीता पुरी को आवाज़ लगाई।
ठक-ठक की आवाज़ वाले कील लगे जूतों की जगह चीते जैसी चुप्पी वाले क़दमों से कंधे पर दो सितारे लगी वर्दी पहने हुए एक लड़की रौशनी से नीम अँधेरे की तरफ आकर सेल्यूट करके खड़ी हो गयी।
सर!, मीता पुरी यानि इन्वेस्टिगेशन ऑफिसर फॉर स्युसाईड केस ऑफ़ अंजलि सिंह
जनाब थाना कोतवाली सिटी में सुबह आठ बजे सूचना मिली कि अशोक सिंह वल्द हनुवंत सिंह की पुत्री अंजलि की मौत हो गयी है। मौका मुआयना करने पर पाया गया कि किसी प्रकार के संघर्ष के निशान मर्ग कारित होने के स्थान पर नहीं थे। कमरे में सभी सामान सलामती के साथ था। दरवाज़े के अलावा कमरे में आ सकने के स्थान, खिड़की से भी किसी आमद का कोई संकेत नहीं पाया गया। लड़की के शरीर के नीला हो जाने के कारण उसको ज़हर दिये जाने की आशंका के चलते परिवारजनों को पोस्टमार्टम के लिए राज़ी किया गया। लड़की के चाल-चलन और ताअल्लुकात पर कोई एतराज़ पडौ़सियों को नहीं था।
इस जाँच के दौरान मुझे यानि मीता पुरी को मृतका की एक निजी डायरी भी मिली है। इसके कुछ पन्ने इस मर्ग को सुलझाने में अहम हैं।
अंजलि ने एक विनीत नामक लड़के के बारे में लिखा है।
तुम मुझे छूते हो तो अच्छा नहीं लगता, मगर तुम्हारी बातें मुझे बहुत अच्छी लगती हैं। आज की शाम हमेशा की तरह बहुत सुंदर होती अगर तुमने मुझे पार्क के मूर्तिकक्ष वाले कोने में ले जाकर, जानबूझ कर अपनी सौगंध देकर सिगरेट ना पिलाई होती। तुम कहते हो कि मैं मर जाऊँगा। मगर मैं ऐसा होने नहीं दूँगी। तुम्हारे लिए मैं हज़ार सिगरेट पी सकती हूँ। आई लव यू। लव लव लव यू।
आगे एक महीने के बाद अंजलि ने लिखा है कि विनीत उससे प्यार नहीं करता।
आज की शाम मरी हुई है पर मैं ज़िंदा क्यों हूँ। उस राक्षस ने मुझे सिगरेट में जाने क्या पिलाया। उसने मुझे नोंच खाया। मेरा बदन दर्द से भरा है मगर उससे ज्यादा मुझे अपमान की तकलीफ़ है। वो कहता तो मैं कुछ भी करती मगर... तुम नफ़रत के लायक हो, तुम हर बार बात प्यार से शुरू करते हो और शरीर पर ख़त्म। कितने कमीने हो तुम..।
जनाब इन पंक्तियों के आगे एक पीपल के पत्ते जैसा दिल बना हुआ है और उसके कई टुकड़े हो गए हैं। पन्ने पर बूँद- बूँद टपकता हुआ पानी है, जो शायद आँसुओं का चित्रण है। आगे दो-तीन जगह विनीत लिख कर उसे काट कर वि-नीच कर दिया गया है।
जनाब, इस डायरी में हॉस्टल के बारे में भी लिखा है।
आज मुझे लगा कि मेरी साँस फूल रही है। मैं दम घुटने जैसा महसूस करने लगी हूँ इसलिए समझ नहीं आया कि क्या करूँ..। इस कमरे में कितनी उदासियाँ हैं और बाहर कितने तन्हा साये डोलते हैं। मैंने सिगरेट पी। मुझे बहुत आराम मिला। पता है कि ये थोड़ी देर ही रहेगा मगर है तो सही। वे कमीनी लड़कियाँ शोर मचाती हैं, तो मचाती रहें। मैं रमा के गले लग कर रोना चाहती हूँ मगर नहीं अब थक गयी हूँ रो-रोकर। हॉस्टल में यही एक सही लड़की है बाकी साली सब की सब मुँह में राम और बगल में कंडोम लिए घूमती है।
आगे कुछ शब्द और उनके अर्थ लिखे गए हैं।
समर्पण- अत्याचार की मौन स्वीकृति, वफ़ा- तू जो चाहे करने की अनुमति, पतिता- जो साथ सोने से इंकार कर दे, वॉर्डन- सरकार की ओर से नियुक्त दलाल। इसके बाद ज़िंदगी लिखकर कई सारे अपमानजनक शब्द लिखे गए हैं।
बीदा रावत का भी इसमें उल्लेख है।
शाम से बेचैन हूँ। मुझे नहीं पता कि क्यों पर मैं सड़क पर निकल गयी। कहाँ जाना था ये भी नहीं पता। ये भी मालूम नहीं कि मैं हूँ क्यों? आज जब टैक्सी में बैठी तो उसने पूछा कहाँ जाना है? मैं ज़िंदगी से परेशान थी तो कहा ' कहीं भी ले चलो '। वह ऑटो चलाते हुए कुछ देर मौन रहा फिर उसने अपना नाम बीदा रावत बताया और कहा 'बहन परेशान न हो'। वह मुझे अपने घर ले गया, शायद वो उसका घर भी नहीं था। उसकी किसी गिरी हुई दोस्त का रहा होगा। मुझे उस घर में मौजूद औरत ने जूस पिलाया फिर कुछ नया नहीं हुआ।
मीता पुरी ने डायरी के कुछ खास पन्नों को पढ़ना जारी रखा।
जनाब एक पन्ने पर शीर्षक लिखा है “एक हसीन शाम का भाग-दौड़ भरा अंत”
पहाड़ी के छोर पर बैठ कर ढलते हुए सूरज को देखना कितना प्रीतिकर होता है। यह तेज़ चमकता हुआ सूरज जाने कैसे एक सिंदूरी थाली में बदल जाता है। पेड़ों से छनकर जब इसकी किरणें मेरे चेहरे पर गिरती हैं तो मैं उनको हथेली में लेकर देखती हूँ। वे कितनी पवित्र हैं लेकिन ये ढोंगी लोग कहाँ नहीं है। मैं सूरज को देखते हुए सिगरेट पी रही थी कि किसी ने पीछे से आकर मुझे पकड़ लिया। मेरे प्राण सूख गए। उन बलिष्ठ बाँहों के उत्पात से मैं कभी न छूट पाती अगर मैंने दिमाग से काम लेकर उन बाबाजी को पटाया ना होता। वह मूर्ख, मेरे सहमति भरे संकेतात्मक वाक्य सुन कर सहज हो गया था। मैंने उसका नाम पूछा तो उसने बताया मंडलनाथ फिर कहने लगा कि ज़िंदगी में बहुत मज़ा है, जितना चाहो ले लो। वह कुदरत के उपहारों का वर्णन करने में खोया हुआ था तभी मैंने सीढ़ियों से भाग लेने का फ़ैसला किया। उसने मेरा वहशी तरीके से पीछा किया। मैं दौड़कर थक गयी हूँ बहुत ज्यादा.. बहुत ज्यादा। ये बाबा से बचने की दौड़ नहीं है वरन ज़िंदगी के उपहारों से बचने की है।
इस डायरी में बादामी देवी का शुक्रिया अदा किया गया है।
उसके चोट खाए बदन और नोंची गयी छातियों को देखकर मुझे क्रोध हुआ, अपार दुःख हुआ मगर क्या ये मेरी ज़िंदगी से मिलता जुलता नहीं है? क्या हर औरत की ज़िंदगी से मिलता-जुलता नहीं है? आज उसने मुझे गले लगाया, मुझे अच्छा होने की याद दिलाई। उसने अपने दुःख सुनाये, जो मेरे से मिलते हैं। वो घर में बर्तन माँजती है, झाडू़ लगाती है। उससे मिले पैसे से उसका पति दारू पीकर, उसी को पीटता है और अपमानित करता है। मैं उसके लिए सिगरेट पीने लगी हूँ और अपमानित होने भी। मैं तुम्हारी आभारी हूँ कि तुमने मुझे शादी यानि समझौते के बाद के सीन भी अभी दिखा दिये हैं। यानि मेरा आगे भी क्या होगा..।
आखिरी पन्ना
सोमेन्द्र से मेरा विवाह होने वाला है। वह जाने कैसा इंसान होगा? हालाँकि पढ़ा लिखा तो बहुत है। अभी उसकी पीएच डी भी होने वाली है। मैं क्या सोचूँ उस आदमी के बारे में कि ज़िंदगी अब उतनी अपरिचित नहीं है। कोई ऐसा ख़याल आता ही नहीं जो ख़ुशी से भर दे। रात को सपने आते हैं कि मैं मंडप से गिरकर मर गई हूँ। बादामी कहती है, मरने का सपना अच्छा होता है मगर शादी का नहीं। जाने क्या अच्छा और क्या बुरा होता है।
आज एक किताब पढ़ी, राबर्ट लुई स्टीवेंसन की। उसमें किसी के लिए लिखा है कि उसका एकाकीपन किसी हारी हुई पलटन के एकाकीपन से भी बड़ा था तो क्या ये मेरे बारे में लिखा है?
ज़िंदगी आज मैं तुम्हारा आभार व्यक्त करना चाहती हूँ। सिगरेट के कड़वे और नशे भरे स्वाद लिए, मुहब्बत के होने और खोने के अहसास को समझाने के लिए, सबको अलग सुख और अलग तरीके की तकलीफ़ देने के लिए, भेड़ियों के पंजों से भाग जाने का साहस देने के लिए और मनुष्य को इतनी बुद्धि देने के लिए कि वह शुद्ध और पीड़ारहित ज़हर बना सकने में कामयाब हुआ।
मीता पुरी ने बयान के बाद आज्ञा के लिए प्रश्नवाचक दृष्टि से ऑफिसर को देखा। ऑफिसर ने तेज़ हवा में झुक आई घास की तरह झुके हुए सरों को देखा और फिर ऐसे झुके हुए कई हज़ार और सरों के बारे में सोचा। ऑफिसर ने अपनी जेब पर हाथ रखा लेकिन सिगरेट की डिबिया आज शायद टेबल पर छूट गयी थी।
* * *
[Painting Image : Vinod More]
[Painting Image : Vinod More]
बंधुवर,
ReplyDeleteआखिर लंबा मौन टूटा ! अभी सिर्फ हाजिरी लगा रहा हूँ ! कथा पढ़कर लौटता हूँ ! इसी कथा की बुनावट में लगे रहने के कारण मेरा पत्र भी अनुत्तरित रहा न ?
सप्रीत--आ.
आज कल समय बड़ा अभिशप्त सा है।
ReplyDeleteडियर, अवसाद बाँधे जा रहा हूँ। हाजिरी नहीं, डूब कर पढ़ा है मैंने। मेरा अवसाद तुम्हारी सिद्धि है।
bada intzar karna pada ise var.....
ReplyDeletepooree kahanee jhakjhor gayee.........
manovaigyanik vishleshan man hee man chalta raha....ki aisa kyo ho jata hai......?
kya parvarish kee kamee ise bhatkav ka karan hai ?
filhaal saty ye hai ki manas patal par zordaar asar hai.
लंबा इंतज़ार ,
ReplyDeleteपर उसका फल बहुत बढिया,सारे पात्र,स्थान आँखों के सामने से गुज़रे ..अंजलि को मनो मैंने सीढियों पर ,होस्टल के कमरे में और ऑटो में बैठे देखा ...कथा शिल्प और वाक्यों की विवेचना करने की ना तो मुझमें योग्यता है ना अनुभव.. समर्पण,वफ़ा और पतिता की परिभाषाओं ने तो झकझोर के रख दिया
Kishor bhaai, aap apni qalam ki nonk se jis tarah kore panne kee seelan bhari deewaron se dard ki papdiyaan umech laate hain wo har kisi ke bas ki baat nahin.. fir bhi aapse seekhne ki koshish jari rahegi..
ReplyDeleteek aur umda rachna ke liye aabhar(tahedil se)
कभी कभी जिंदगी कम उम्र में भी ऐसे अनुभव करा देती है बहुत सीधी सरल भाषा. एक नारी मन व उसकी व्यथा,साथ ही उसका सच्चा मन, बहुत संवेदनशील रचना और जितनी सुंदर रचना उतना हृदयविदारक अंत बहुत मार्मिक कहानी मन को छू गयीं
ReplyDeleteयदि कलम की गहराई ... आत्मा कि गहराई को छू ले ...उसके लिए कोई शब्द है क्या?
ReplyDeleteइंतज़ार का फल मीठा होता है इस कहानी ने हमेशा के लिए याददाश्त में अपनी जगह बना ली है...
किन्तु एक और सच है ... अंजली का सच इतना सच्चा है कि सच से उबकाई आती है...
किसी ईमानदार मुंशी की तरह सच 'जैसा है वैसा लिखा'. बस इस सच से ही दूर भागने को मन करता है जैसा नीरा जी ने लिखा है.
ReplyDeleteअब इतना गहरा लिखा है कि कुछ न कह पा सकने की स्थिति है, जैसे काठ मार गया है.
सच तो है हम पीठ कर लेते है सच की ओर से के शायद अगले मोड़ से मुड जायेगा ..... .
ReplyDeleteवैसे ....एक्सपेरिमेंट शानदार है .....अच्छा है तीन चार लोग अब खुल-कर सामने आ रहे है ...कंप्यूटर से दिलचस्पी बनी रहती है .......एक उपन्यास पढ़ा था इसी थीम पर ....इसी अंदाज़ में ....नाम याद नहीं आ रहा ...किसी पहाड़ी बेक ग्रायुंड में .था ....
Pehli baar aayi hu aapke blog par
ReplyDeleteaapne khayaalo ko jaan kar aur unhe pad kar achha laga
-Shruti
BEHTREEN .SHAANDAAR..ABHI PADHA HAI EK BAAR...ACHCHHA LAGA PAR COMMENT KE LIYE FIR AAUNGAA...YAH KAI BAAR PADHNE LAYK RCHNAA HAI.
ReplyDeleteअजीब इत्तेफाक है ये के हम गुजरे जहाँ से वोह समां बदल गया ,
ReplyDeleteरास्ते तो वही थे बस कारवां बदल गया .
अफ़सोस ये नहीं कि हम सोये थे कब्र में ,
अफ़सोस ये है कि जगाया नहीं तुमने
another nice one. Keep writing...
क्या लिखा है..........उप्फ्फ़ ......
ReplyDeleteकुछ कहने लायक मनःस्थिति नहीं अभी....
कथा यदि अपने से बाँध कर इसी प्रकार निःशब्द और मौन न कर दे तो वो कथा भी कोई कथा है......
ReplyDeleteशाबाश भाई...शाबाश..
एक अनजान सा डर भर गया ये कथानक !!
ReplyDeleteशानदार पेशकश है ..सच्चा कटाक्ष है .. लेखनी कमाल कर गयी मगर समाज का इतना वीभत्स रूप कई अनजाने सवाल छोड़ जाते हैं सबके सामने ..
samay ka keemti dastvez hai kahani...bimbon ke bojh se mukt apne patron ke zariye kabhi chetna ko shoonya karti to kabhi jhakjhorti hui.
ReplyDeleteआपको पढ़कर घंटों सन्न रह जाता हूँ..माँ शारदा का अद्भुत आशीष है आपकी कलम को. सच में!!
ReplyDeleteआपका लिखा पढना हमेशा सिखा कर जाता है. कहानी के पात्र, दृश्य, शिल्प, संवाद अपना असर इस कदर छोड़ते हैं कि लम्बे समय तक मस्तिष्क पर अंकित रह जाता है वह असर.
ReplyDeleteजब कोई हमेशा ही अच्छा लिखता है तो समस्या हम से टिप्पणी कारों को होती है। तब लगता है कि नाईस एक अच्छा शब्द है कम से कम नव शब्दावली तलाशने की मुहिम तो नही करनी पड़ती।
ReplyDeleteआप के साथ कुछ ऐसी ही पश ओ पेश रहती है।
सोचती हूँ कि छोटी सी जिंदगी में इतने चरित्रों से मिलना उन्हे पढ़ना और हमारे लिये पुनः उन्हे शब्दों के साथ गढ़ना......
ओह कितना कठिन कार्य है.....!
आपकी कहानियाँ हमेशा एक नये मनोविज्ञान को समझने मे सहायक होती है।
अधिक शब्द नही हैं....!
dil ko choo jaane vaali ek karun vyathaa. man badaa udaas ho gaya padhkar. kitni bechani aur chatpatahat thi.
ReplyDeletebahut sundar
ReplyDeleteshekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
बन्धु !
ReplyDeleteपारंपरिक शब्दावली में कही न जा सकेगी बात ! ये कहानी तो स्तब्ध कर गई है ! जिस अंदाज़ से एक-एक पात्र खड़े किये हैं आपने और उनके दर्ज बयानों से कथा आगे बढ़ी है--वह अंदाज़ अनूठा है ! अंजलि का जीवन और उसकी मौत हतप्रभ करती है और मन खिन्नता से भर आता है !
कुछ शब्दों ने घिस-घिस कर कैसे अपने अर्थ बदल लिए हैं आज के समाज में, आश्चर्य होता है; लेकिन अंजलि ने ठीक ही अर्थ निकले और लिखे हैं अपनी डायरी में... !
अभी चिंता में हूँ ...
सप्रीत-आ.
MAI IS LAYAK NAHI KI AAP KE LIKHE PAR COMMENT KAR SAKOO... BAHUT ACHCHHA LAGA PADHKAR..
ReplyDeleteअंजलि की जो डायरी लिखी है आपने, वो यूँ लगा कि आपने नहीं, अंजलि ने हीं लिखे हैं...जो मरने के बाद ज्यादा जिन्दा हो गयी लगती है.
ReplyDeleteये डायरियाँ हमेशा किसी के मरने के बाद इतनी जिंदा क्यों हो जाती हैं...?
ReplyDeleteआपकी तारीफ में, जब इतने बड़े-बड़े धुरंधर कुछ कह नहीं पाते तो हमारी क्या बिसात ...!
नई तस्वीर भी अच्छी लगी...
शुक्रिया...!!
मैंने सुना था चाहे जितनी भयानक कल्पना हो सच से भयानक कुछ नही !अंजली की डायरी एक अवसाद छोड़ गई ,जो शायद कभी खत्म नहीं होगी ! ऐसे में सिर्फ कबीर याद आते है ...पानी बिच मीन प्यासी ! या फिर ..साधों यह मुर्दों का गाँव !!! बहुत दिनों के बाद आपकी कहानी का अनमोल पल मिला ! आभार ! आगे के लिए शुभ कामनाएं !
ReplyDeleteअंजलि, तुम्हारी डायरी से बयान मेल नहीं खाते हैं
ReplyDeleteकई बार कहानी का नाम पढ़ पढ़ के लौट गयी.हमेशा की तरह आराम से घूँट घूँट कर पढना चाहती थी.अंजलि के सूक्ष्म मनोभावों को बड़े अच्छे से पिरोया है आपने.चित्र शब्दों द्वारा ऐसा सजीव चित्र उपस्थित किया है की अंजलि का चरित्र सकार हो उठा.कहानी बहुत देर के लिए आँखों के सामने इक चित्र,मन में कसक और इक गूंज छोड़ जाती है..
गज़ब की कहानी !
ReplyDeleteकई बार कहानी पढ़ने के बाद स्तब्ध रहता हूँ !
यूँ भाषा की असम्भाव्यता को अनेकों बार जाना-पहचाना है, लेकिन यहाँ पढ़कर चुप रह जाने की आदत (यह असम्भाव्यता) इतनी प्रीतिकर कभी नहीं थी ! हमेशा ऐसे किसी मौकों पर अपनी चुप्पी को मैंने टटोला है, उसे भेदने की कोशिश की है.. पर यहाँ अपनी चुप्पी के महत्व को पहचानता हूँ !
कुछ भी न कह पा सकने की असमर्थता/यंत्रणा के असह्य क्षण गुजरने देता हूँ ...किशोर चौधरी पढ़े जाते रहते हैं...उनकी कहानियाँ कहीं बहुत गहरे धँसती जाती रहती हैं...मैं इन असह्य क्षणों की उज्ज्वलता में निमग्न हो जाता हूँ... मैं कहानी छूता हूँ...कहानी के बनते-सँवरते निराकार अंगों को सहलाता हूँ...अपने भीतर उसे साकार करने की कोशिश करता हूँ...पर चुप रह जाता हूँ !
मैं देखता हूँ/महसूस करता हूँ..कुछ न कह पा सकने की स्थिति में/असम्भावना में मेरी कल्पना मुखर हो उठती है !
कहानी अंजलि, तुम्हारी डायरी से बयान मेल नहीं खाते हैं दोगले समाज की मानसिकता का सटीक वर्णन है....सादर।
ReplyDeleteयहाँ कहानी पर कुछ कहने से पहले बता देना चाहता हूँ कि आपको पढ़ना बहुत मुश्किल होता है..बहुत तक्लीफ़देह..नही यह पोस्ट की लम्बाई की वजह से नही..आपकी पोस्ट्स लम्बी नही वरन् पूर्ण होती हैं!..वजह यह कि यह कहानियाँ किसी खयालों के दलदल सी होती हैं..किनारे पर पाँव रखते ही अंदर खींच लेती हैं..और फिर बाहर निकलने का रास्ता नही देतीं..और उसमे समाते हुए सारे कन्सेप्शन्स, नैतिक बोध, परिभाषाएं आपस मे गड-मड होती जाती हैं..! इस कहानी से भी बचने का प्रयत्न किया..सम्हाल कर पग धरने का..मगर...और कुछ कह पाना तो और भी मुश्किल..
ReplyDeleteखैर एक विलक्षण शैली..राशोमोन/इन अ ग्रोव के अंदाजेबयाँ जैसा कुछ..जिसे फिर डायरी को इस्तेमाल कर आप अपना ही रंग दे देते हैं..पढते वक्त काफ़ी कुछ याद आता रहा..कभी गुलाल की किरन जेहन मे आयी..सिगरेट के बेचैन धुएँ मे अपना असंतोष, रोष बाहर निकालती हुई, तो कहीं पर मुझे चांद चाहिये की वर्षा भी..मगर इस कहानी की पटरी पर दौड़ती खयालों की रेलगाड़ी ऐसे स्टेशनों से घुमा ले गयी..जिन पर अकेले रह गये इंसान को कोई रिटर्न ट्रेन नही मिलती..सभ्य समाज के मुखौटों को तार्किक तरीके से उघाड़ती कहानी को हालांकि उत्तरार्ध मे डायरी कुछ ज्यादा ही सिम्पलीफ़ाइ कर देती है..मगर इससे उसके असर पर कोई अंतर नही आता.एक प्रवाह है जो पाठको को बहा ले जाता है..मझधार में
अंजलि के बारे मे और कुछ कहना भी अभी बाकी है..सो अभी और चक्कर लगाऊँगा..अभी तो अंजलि की बेचैन आत्मा ने ही जकड़ रखा है..
गज़ब का लिखते हो भाई. बिलकुल अलग तरह की कहानी. लाजवाब!
ReplyDeletedil chhu lene wali story h.....
ReplyDelete@ अपूर्व, अंजलि एक सच्चा नाम है. मुझे अफ़सोस भी है कि ये एक कहानी मात्र नहीं है. उतरार्द्ध के सरल हो जाने की ओर आपने ठीक इशारा किया है. वहां तक पहुंचते - पहुंचते मैं अवसाद से इस कदर घिर गया कि मेरे मन ने हज़ार आवाज़ लगाई अंजलि को कि ' इस बेदम कर देने वाली कहानी से निकल कर बाहर आओ, हम दोनों बैठ कर सिगरेट पिया करेंगे'.
ReplyDeleteज़िन्दगी में किसी को कितनी चीजों की जरुरत होती है कहा नहीं सकता मगर सिगरेट के अलावा अंजलि के दिल के करीब दो ही चीजें थी, बच्चन साहब की 'मधुशाला' और किशोर कुमार का गाया एक गीत, जिसे वह हमेशा सुना करती थी ' लहरों की तरह यादें दिल से टकराती है...'
अपनी ड्यूटी के दौरान ये गीत जब भी प्ले करता हूँ, स्टूडियो में उदास आँखों वाली अंजलि साकार हो उठती है. लाइव फोन इन कार्यक्रम के दौरान एक श्रोता की, इसी गीत की फरमाइश के बाद मेरे पास बोलने के लिए शब्द नहीं थे, पिछले अट्ठारह साल से रेडियो पर बोलने वाला एक शख्स अपनी आवाज़ खो बैठा... सोच वही उलझ गयी कि अंजलि भी कहीं सुनती होगी क्या ?
दुनिया को छोड़ कर गए हुए अभी पांच साल हुए हैं मगर मैं उसे पाता हूँ हर कहीं... मेरा यकीन करो अपूर्व कि यह सब लिखते समय मेरी आँखें भर आई है. जबकि वह मेरी कोई नहीं थी और अब कहीं है भी नहीं, चंद दोस्तों के दिलों के सिवा. उसकी माँ जाने कैसे उसे याद करती होगी ? उसके पिता को अगर इस गीत के बारे में मालूम हो तो इसे सुन कर उन्हें कैसा लगता होगा ? या फिर वही मधुशाला अगर उसके कपबोर्ड में अभी रखी हो तो उसे देख कर क्या सोचते होंगे ?
so sad!
ReplyDeleteआपसे बेहतर तो मैं लिखता हूँ कम से कम लोगों के पास कुछ कहने को होता है. भला ऐसा भी क्या लिखना जो सबको निरुत्तर कर दे :)
ReplyDeleteआपकी लिखी कहानी से उबरना मुश्किल होता है... देखिये ना १२ दिन पहले पढ़ी थी और आज भी कुछ कहते नहीं बन रहा
कैसे कहूँ कि आप बहुत अच्छा लिखते हैं? मैं इस तरह की कहानियाँ पढ़ना बिल्कुल पसन्द नहीं करता। एक तो देर तक टीसती रहती हैं, फाँस सी - जाने कहाँ-कहाँ दर्द होता है! दूसरे शुरू करने के बाद बिना पूरी पढ़े छोड़ते नहीं बनता है इनको।
ReplyDeleteअजीब मनहूस उदासी सी छा जाती है दिलो-दमाग़ पर और …
बस्स!
सचमुच तुम बहुत बुरा लिखते हो!
जी भर के गाली भी नहीं दे पा रहा किसी को… ख़ुद को भी। कैसे जाए ये बेचैन करती उदासी। बहुत ताक़तवर लिखाई है आपकी किशोर जी! मगर प्रार्थना है कि ऐसा मत लिखा कीजिए, या फिर ऐसा कम लिखा कीजिए। आप बहुत अच्छा लिखते हैं - मगर बहुत हॉण्ट करता है आपका लिखा।
बहुत दिनों बाद आई आपके ब्लॉग पे .....मुआफी चाहती हूँ .....ये नहीं कि याद नहीं आई थी ....पर आपकी ख़ामोशी से यही सोचती रही कि अभी तक कोई नई पोस्ट नहीं आई होगी .....
ReplyDeleteआपकी ये कहानी पढ़ते पढ़ते अपने हास्टल कि उस लड़की कि याद आ गयी जिसने पिछले साल खुदकुशी कर ली थी ....गोरी चिट्टी खूबसूरत ...उम्र यही कोई १८,२० के आस पास ...बगल के हास्टल में ६ महीने से रह रही थी ....मेरे होस्टल में उसी दिन आई ....आने से पहले कई बार हिदायते दे गयी ...मेरे कमरे में किसी और को सीट मत देना मुझे सिंगल रूम चाहिए ....पर वह अपने साथ सारा मौत का समान लिए आई ....फंदा डालने के लिए रस्सी ...ब्लेड ....नींद की गोलियां ...कागज़ - पेन और डैंडराइट ( आपको पता होगा डैंडराइट से ड्रग्स ली जाती है ) उसकी छत से झूलती हुई लाश आज भी आँखों के आगे तैर जाती है ....जाने आज की युवा पीढ़ी किस और जा रही है .....
कुछ टंकण कि गलतियां लगी इन पंक्तियों में .....देखिएगा .....
कै हो जाने से पहले की हालात में बैठे हुए लोगों के चहरे पर यहाँ से बाहर निकल पाने उम्मीद जगी, जब कुछ क्षणों के बाद बयान दर्ज किये जाने की प्रक्रिया आरंभ हुई.
@बहुत देर तक पार्क में बैठी रहने लगी. वह अजीब से सवाल करने भी लगी
@वह बेहद शांत थी और उसकी आँखें किसी शून्य के मोह में बंधी हुई दीख
@उसे सीढियां उतरते हुए देख लेने के बाद में आश्वस्त हो गया था.
@साहब में उसको अपने घर ले गया
शब्द नही मिल रहे क्या कमेंट करे कहानी के जरिये यह कैसी तस्वीर दिखायी।
ReplyDeleteआपको मेल कर चुका हूं, यहां भी उपस्थिति दर्ज करा रहा हूं. बाकी सब टिप्पणियां पढने के बाद बस यही दुहराना है कि अंजलि की डायरी में मुझ जैसे पाठक के लिए कहानी में कथ्य के आकर्षण और प्रभाव से ज्यादा शैली का सम्मोहन है. अभिव्यक्तियां, सदैव विवरण, व्याख्या और स्पष्टीकरण नहीं बल्कि कई बार स्थिति को अधिक गूढ कर देने वाली पहेली बन जाती है, मेरे एक मित्र ने कहा कि जिसे मूढ आसानी से समझ लेता है.
ReplyDeleteits a pleasure always to read you Kishore....journey deep within you.....Amazing flow !
ReplyDeletegahri kahani..jindgi ke uthle pan ko bayan karti hui..............shukriya.......
ReplyDeleteकथानक के बहाव में ही
ReplyDeleteबह-सा गया हूँ कहीं
और खामोश भी हूँ ..
मालूम नहीं क्यों ...!?!
हर बार की तरह सशक्त लेखन.
ReplyDeleteकहानी का प्रभाव रहेगा अभी ज़हन में!
for the first time i have to ur blog n read the story bt honestly i wud like to say that u write in a very gud n attractive manner although i hvnt the whole story bt wht i read i foun it very nice
ReplyDeleten my heartiest thanks to u too
किशोर भाई, अगर अपूर्व के शब्दो को यूज करू तो आपके शीर्षक के बार्बवायर्स से निकल भागना ही बहुत कठिन है... इस शीर्षक को कई बार पढा था, कहानी को आराम से आहिस्ता आहिस्ता पढना चाहता था.. कल ओफ़िस मे जैसे इस कहानी को शुरु भर किया, इसके चुम्बकत्व मे खिचता चला गया..
ReplyDeleteअंजलि को पढना जैसे शरतचन्द्र के किसी महिला पात्र को पढना था.. उस तन्ग कोठरी मे से डायरी से सच बाहर आता रहा.. और समाज पर जैसे कोई चमाट पर चमाट मारता रहा... धीरे धीरे वो कोडे की आवाजो मे बदल गये.. कहानी खत्म हुयी.. जैसे मेरे भीतर कुछ ज़िन्दा हो गया.. ५ महीने से सिगरेट छोडी हुयी थी (बीच बीच मे यारो-दोस्तो के साथ २ महीने मे एक बार पी ली) एक अज़ीब सी तलब जगी अंजलि के साथ सिगरेट पीने की... फ़ूक के आया... ये मेरी तरफ़ से अंजलि को श्रद्धान्जलि थी...
कन्टेन्ट और शैली सब जबरदस्त... कोशिश करूगा कि आपकी पुरानी कहानियो को पढू और सीखू... अंजलि की यादे बाटने आता रहूगा...
aaj pehli baar aapke blog par aaya aur aapka follower ban gaya...
ReplyDeletethe style of expression is great and as I get time, just going to read all of your posts
i must thank pankaj for the link on his blog..
pahli baar aaya... aur yakin maaniye, bahut sukoon hua ki yahaan aaya.
ReplyDeleteaata rahunga...likhte rahein
Sir, ek avssad ki sthiti me la khada kiya aapne.....anjali sach si lagti hai aur samaaz gair sa.
ReplyDeleteye 'anjali' agar haqiqat hai to bahutbhari hai sach.
क्या था, नहीं था...नहीं पता, हाँ विगत कुछ महीनों से खुद को किशोर के तिलिस्म से बचाये रखने की कोशिश कर रहा था। हुआ यूं कि आपको पढ़-पढ़ कर जब खुद कहानी लिखने का शौक चर्राया तो देखा कि जब भी लिखने बैठता तो जैसे कलम में किशोर का शिल्प, किशोर की शैली पैवस्त हो जाती....फिर इतने दिनों आज मन नहीं ही माना आखिर तो छुट गयी कहानियां पढ़ने आ गया हूं।
ReplyDeleteअंजलि की कहानी अपने आस-पास की नहीं होते हुए भी जानी-पहचानी सी लगी। टैक्सी वाले को फतेहपुर सागर ले जाने के हुक्म से जाना कि प्लाट उदयपुर का ही है और बाद में अपूर्व को संबोधित टिप्पणी ने प्लाट के अन्य पर्दे भी खोल ही दिये हैं।
शिल्प अनूठा था इस बार का। पहले किरदारों के बयान के जरिये और बाद में डायरी का पन्नों ने कहानी को कहानी सा बना दिया...वो भी कुछ इस तरह से कि हर पाठक कहीं न कहीं से खुद को अंजलि से जुड़ा महसूस करने लगे।
अफसोस हो रहा है खुद पर कि क्यों इतने दिनों तक खुद को वंचित किये रखा इस तिलिस्म से...अब जा रहा हूं बाकियों को भी पढ़ने।
Very nice ! Reading the blog after a long time, first I read 'Gali ke chor par Andhere main doobi khidki' and than this .
ReplyDeleteI am actually stunned ! I never liked many writers writing about women, specially after having read Shivani for a very long time, but this post, simply wonderful......Thought provoking....
Looking forward to read more !
करीब दो साल पहले लिखी तुम्हारी इस कहानी को पढ़कर स्तब्ध हूं। अफसोस कर रहा हूं कि इसे पहले क्यों नहीं पढ़ पाया। ये जानते हुए भी कि तुम जो लिखते हो, डूबकर गहरे सरोकार के साथ लिखते हो, फिर भी अक्सर मेरा ध्यान तब जाता है, जब तुम्हारे अपने पाठक ही कहीं कोई ऐसा संकेत दे जाते हैं, कि अनायास वह अपनी ओर खींच ले जाता है और जब एक बार संदर्भ खुल जाता है तब तो उसकी अंतिम पंक्ति से गुजर जाने के बाद ही राहत मिलती है। --- किशोर तुम्हारे पास कहानी लिखने की अनूठी शैली है, प्रयोग भी अछूते और गहरा असर छोड़ जाने वाले, मुझे शिकायत है कि तुमने अपने को बहुत दबाकर रखा है, बस लिख लेते हो, और तसल्ली कर लेते हो गया काम पूरा। अच्छे लिखे को आम पाठकों तक पहुंचाने का पहला दायित्व रचनाकार का ही होता है, और उसे बहुत उपयुक्त माध्यम से सबके बीच लाने का हर-संभव प्रयत्न किया ही जाना चाहिये। उम्मीद है, मेरी बात पर गौर करोगे। इस कहानी का मूल अभी अनलिखा है, वे स्रोत और संदर्भ कहां हैं, जिन्होंने अंजलि को इस अवस्था तक पहुंचने पर मजबूर किया, उसके अकेलेपन की वजूहात स्पष्ट होना क्या जरूरी नहीं लगता ? उसकी डायरी के वे पृष्ठ कहां हैं, जो उसे अपने मूल से जोडते हैं, वे रिश्ते कहां हैं, जो उससे इस कदर छिटककर अलग जा पड़े हैं? --- जो लिखा है, वह तो त्रासदी की परिणति है, क्या रचनाकार का सरोकार यही तक का होता है? ये कुछ सवाल हैं, जो शायद तुम्हें ऐसी कहानियां लिखते समय जेहन में रखने की ओर ले जा सकें।
ReplyDeleteअपनी जेब पर हाथ रखा लेकिन achanak yad aya k mai to pita hi ni....but aj pine ki icha jrur ho gyi.
ReplyDeleteDimag shunya me ghum rha hai, kuch sujh ni rha.
mai नंद भारद्वाज ji se 100% sahmat hu.
ReplyDeleteSpeechless!
ReplyDeleteएक अर्से बाद आप इस दर (कहानी) पर आये हैं. इसे पढ़ने में जितना समय लगा उससे कहीं अधिक इससे उबरने में. आप बांधते हैं.
ReplyDeleteअद्भुत!! पहली बार ऐसी कहानी पढ़ी.. बोलती हुई!!
ReplyDeleteमै भी यही कहूँगी कहाँ से लाते है, ऐसे शब्द चुन चुनकर मै तो स्तब्ध हो जाती हूँ
ReplyDelete:-((
ReplyDeleteचौराहे पर सीढियाँ में हर कहानी क्या यूँ ही दिल दहला देगी????
सिलबट्टा सा रखा महसूस हो रहा है सीने में...
अनु
aap waakai jaadugar hain
ReplyDeleteVery good
ReplyDelete