Tuesday, September 23, 2014

परदे के पार चिड़िया


वह अभी जागी थी. पिछली रात उसने दस घंटे किसी क्षोभ और दुःख के बिना व्यतीत किये थे. उसको क्या चिंता सता रही थी, ये कहना इसलिए कठिन था कि वह अपनी असल परेशानी कभी खुद तय नहीं कर पाई.

वह सब कुछ हार चुकी होती तो कितना अच्छा होता कि उदास चुप बैठी रहती. ज़िंदगी को ही हारा हुआ मान कर कहीं जाकर मर जाती. मगर वह हारी नहीं थी. वह अपने आप को हारता हुआ देख रही थी. चुप बैठे खुद को हारते हुए देखना, ये जीवन का सबसे अनूठा अनुभव था. उसके पास जीवन भर की जो पूँजी थी वह किस काम आई? ऐसा सोचते हुए अचानक ख़याल आया कि ये एक खास किस्म की छल भरी लूट है. जिसमें आपके पास जो कुछ मौजूद है, उसे नाकारा कह कर नए सिरे से किसी काम में उलझा दिया जाये. रात को वह कई बार सोयी थी. ये सोचना खुद को दिलासा भर देना था. असल में वह जब-जब ख़यालों में गहरे डूबी और अपनी सुध खो बैठी उसी को उसने सोना समझ लिया.

उसने आखिरी बार सुख भरी नींद कब ली थी ये याद करते ही उसे अतीत में कई साल की छलांग लगाकर बहुत पीछे जाना पड़ता था.

एक असल गहरी नींद एक गहरे अटल विश्वास में छुपी होती है.

उसकी नींद को क्या हुआ? उसकी नींद अपने मामूली दुखों, न ध्यान देने योग्य उदासियों और छोटी खुशियों से जुड़ी थी. वह इस हाल को कह नहीं पाती थी. इन सबके बारे में लिखा नहीं जा सकता था. इन बातों को देखें तो हर किसी की नज़र से वे अलग--अलग देखी समझी जाती. संभव है कि कुछ दोस्तों और रिश्तेदारों को ये हाल एक निजी अनुभव और कल्पना भर लगता. किन्तु जिस यथार्थ को वह जी रही थी, वह जीना कठिन था.

एक सामान्य लड़की. नाम एलची ढाका. डिजायनिंग पढ़ने के बाद सात सालों से घर चला रही थी. ओक्टोपस मार्केट के ठीक सामने की बिल्डिंग में सातवें माले पर एक किराये के फ्लेट में रहती थी. उसके पास ज़िंदगी को लेकर जो प्लान थे, वे सब स्थगित थे. उनको स्थगित होना कहना, एक अच्छी बात थी. उसे अक्सर इस बात का डर लगा रहता था कि स्थगित कहने के नाम पर कहीं उसने अपने ही सपनों को असमय अंतिम साँसे लेते हुए तो न देख लिया हो. एक बात उसे हमेशा सताती थी कि अगर वे प्लान स्थगित थे तो वह चार साल की बेटी और एक तीस साल के आदमी के साथ क्या कर रही थी. ये स्थगन कब तक के लिए है इसी सवाल की ज़द में आकर वह हताश होती थी. बाकी उसे दिनों की कतरनें करना और रातों की तहें लगाना खूब आता था.

तीन रोज पहले से उसे किसी भारी घने काले साये ने घेर लिया था. चीज़ें जो आहिस्ता-आहिस्ता कई सालों से घट रही थी अचानक एक साथ उपस्थित होने लगी. उस शाम पार्क में उसने देखा कि वे अचानक गायब हो गयीं. कुछ रोज़ पहले तक शाम के झुटपुटे और थोड़ी स्याह रंगत के उतरने से पहले तक वे यहीं सामने दिखती थीं. वे कतार में खड़े वृक्षों की शाखाओं पर द्वंद्व-युद्ध में डूबी होती थीं. वे जब एक दूजे से अकेले या समूह बना कर किसी विवाद पर अपना पक्ष रख रही होती थीं तब सलेटी रंग के पंखों के नीचे से पीली धूसर आभा दिखाई पड़ती थी. उनकी चहचाहट के शोर को किसी तरीके से भुला दिया जाये तो ऐसा लगता कि शाम से पहले इन ऊँचे वृक्षों में किसी ने पीली पन्नियाँ टांग दी हैं. उनपर हल्का प्रकाश गिरता है और बुझ जाता है.

उन चिड़ियों के जाने ने उसे डरा दिया था.

चिड़ियों का वह दल उसके जीवन में इतना शामिल था कि उनके न दिखाई देने से एक डर उतर आया. उनका गायब होना एक हलके सदमे की तरह आया. अरे! उनको क्या हुआ. वे कैसे इस तरह गायब हो गयीं. देर तक पार्क की बैंच पर चुप बैठे हुए एलची सोचती रही. हमारे जीवन में क्या कुछ समाया होता है और हम उसे कभी समझ नहीं पाते. वे धूसर रंग की शोर मचाती झुण्ड में उड़ती-फिरती चिड़ियाँ, उसके जीवन का हिस्सा थी. उसे ये बात मालूम ही न थी. वे नहीं दिखीं तो सहम गयी. जैसे कुछ हाथ से छूटकर गिरा और टूट गया हो.

वह रात को घर आई तो चिड़ियों का झुण्ड भी एक स्मृति की तरह साथ चला आया. सीढियों पर वह अचानक ठिठकी और काँप उठी. उसके हाथ में देबा की अंगुली नहीं थी. वह घर की चाबी हाथ में लिए झटके से पीछे मुडी. उसने देखा कि देबा रुक कर सीढियों से नीचे पार्क में देख रही थी. उसने गहरी साँस ली. उसे लगा कि चिड़ियों की तरह कहीं देबा भी गायब हो गयी तो. यही सोचते ही सांस थम गयी. पलभर वह अवाक खड़ी रही.

चार साल की देबा रेलिंग की जाली को पकडे हुए देख रही थी. देबा ने मुड़कर देखा. उसने सोचा कि अब मम्मा ने दरवाज़ा खोल लिया होगा और उसे दौड़ कर घर में घुस जाना है. लेकिन मम्मा वहीँ खड़ी थी. बाहर से पूर्ण और भीतर से ज़रा ज़रा टूटन को देखती हुई. दबा को आते देखा तो दरवाजा खोलना याद आया.

देबा ने दौड़ लगाई और घर में भाग गयी.

“देबा बेटू” ऐसा कहते हुए अपने अबोले और बुरे ख़यालों से बाहर आकर हुए एलची ने घर का दरवाज़ा बंद किया. देबा के चप्पल हाल में एक इस कोने में दूसरा उस कोने में पड़ा था. वह ऐसे ही दौड़ते हुए चप्पल खोलती है. जैसे हर तरफ एक गोल पोस्ट है और वह गोल करने जा रही है. फिर वही मिट्टी से भरे पाँव लिए टीवी के सामने वाले सोफे पर पालथी मार कर बैठी मिलती है.

एलची फिर कहती है- देबा बेटू.

देबा के चेहरे की मुस्कान के दोनों किनारे कानों को छूकर वहीँ अटक जाते हैं. उसकी दन्त पंक्तियाँ शाम के हलके साये में तरतीब से रखे नगीनों की तरह चमकती है. वह आहिस्ता-आहिस्ता अपनी पालथी को खोलती है. जैसे उसके पाँव नीचे आते हैं उसी क्रम में उसके चमकते हुए छोटे-छोटे दांतों को सिमटती हुई मुस्कान ढक लेती है.

इसके बाद एलची के मुंह से सिलसिले में छोटी छोटी बातें झरती हैं. बेटा, इट्स रोंग... यू हेव टू और डू नॉट.. डू दिस एंड व्हाट्स दिस, व्हाट्स देट. जैसे किसी मशीन में ओम नमः शिवाय ओम नमः शिवाय का जाप रटा जा रहा हो.

शाम और रात के संधिकाल में एलची रसोई में होती है. वह पार्क जाने से पहले नौकरानी को काम इसी तरह बताती है जैसे छोले आलू उबाल देना, इमली भिगो देना, हरी मिर्च धोकर बारीक काट देना, धनियाँ की पत्तियां चुन देना. नौकरानी उतना ही करती है जितना मेम ने कहा होता है. एलची लौट कर अपनी रूचि से सब कुछ छौंकती पकाती है. कई बार वह इस असमंजस में होती है कि वह ये सब अपनी रूचि से कर रही है या इसे भी किसी भुलावे में उसकी रूचि बना दिया गया है.

चार साल पहले की एक शाम थी.

हर्ष सोफे पर बैठा हुआ अपनी टाँगे सामने रखे स्टूल पर रखे हुए था. वह उसी तरह सोफे पर बैठी थी जैसे पालथी लगा कर देबा बैठा करती है. उन दोनों के ड्रिंक एक थे मगर हर्ष टीवी देख रहा था और उसके हाथ में कोई किताब थी.

“एलू हमें कुछ डिसाइड करना चाहिए.”
“क्या?”
“ऐसे कब तक”
“कैसे”
“कि तुम आठ बजे घर, मैं दस बजे”

हर्ष के चेहरे पर टीवी से आने वाले प्रकाश का खेल चल रहा था. उसका चेहरा कभी रोशन होता कभी बुझ जाता था. एलची ने उसे अपलक देखते हुए कहा- “सब यही तो पोसिबल है, जो हम कर रहे हैं. तुम्हारी जॉब ज़रुरी है, छोड़ना मैं भी नहीं चाहती. इससे हम सब मेनेज कर लेते हैं. बेटी है तो उसकी प्रोपर केयर हो रही है. और क्या?”

हर्ष को कोई ज़रूरी ही बात कहानी थी.- “हाँ और कुछ नहीं. ड्राइवर हमको ड्रॉप कर देता है. कपड़े धुलने प्रेस को दे आता है. झाड़ू-पोचा हो जाता है. प्रोपर डस्टिंग होती है. किचन मैंटेन है. खाना स्वादिष्ट है. लाइफ फुल हेल्दी है. मगर...”

“मगर क्या?”

“मुझे कभी लगता नहीं कि ये हमारा घर है. ऐसा लगता है जैसे हम दोनों कमा रहे हैं और उसकी कमाई से कोई होटल में रहते हैं.”

एलची ने कुछ न कहा. उसने किताब एक तरफ रख दी. चार साल से इस तरह जीते हुए वह कभी ये सोच न पायी थी. उसे लगता था सब परफेक्ट है. अब अचानक लगा कि हाँ, क्या ऐसे ही जीते जायेंगे. होटल से निकलेंगे और होटल लौट आयेंगे. हमारी बेटी की माँ उसकी आया और एक पिता की अँगुलियों में सुरक्षित रहने वाली अंगुलियां एक ड्राइवर के हाथ में.

हर्ष ने कहा – “इधर सरको तो”
एलची ने आँख के इशारे से पूछा क्या?
सरको तो
वह पास सरक आई तो हर्ष ने कहा- आई वांट टू किस यू

एलची की मुस्कान के किनारे भी देबा की मुस्कान की तरह कानों के किनारों पर जाकर अटक गए.

वे रात भर प्लान करते रहे. असल में प्लान वे नहीं कर रहे थे. प्लान हर्ष सुना रहा था और एलची सुन रही थी. उस रात सारे लालच को त्याग कर एक गृहणी वाले घर की नींव पड़ी. उस रात दोनों ने सुन्दर और अपनेपन की खुशबू से महकते हुए घर की ओर पहला कदम बढ़ाया.

छः महीने पहले की एक रात.

उसे चार साल पुरानी ये बात याद आई. क्या बदला उस रात के बाद? इसके बारे में पहली बार उसने तब सोचा जब हल्की गिरती हुई रौशनी में उसने देखा कि हर्ष ने एक करवट ली और तकिये के पास से अपना फोन उठाया. स्क्रीन ऑन करने से पहले हर्ष ने एलची की तरफ देखा. उसने अपनी आँखें बंद कर ली. हर्ष ने देखा कि वह सो रही है तो उसने फोन का स्क्रीन ऑन किया. वह व्हाट्स एप पर कुछ पढ़ और लिख रहा था. एलची बिना करवट लिए उसे देखती रही.

रात के एक बजे. किससे और क्यों. एलची ने देखा कि हर्ष का चेहरा किसी दुविधा से भरा है. वह चेहरा एक याचक का चेहरा है. वह चेहरा कसाई के बाड़े में बंधी गाय जैसा हो गया है और पन्द्रह मिनट लंबी इस बात के बाद आखिरकार चेहरा एक आज़ाद जंगली सूअर में ढलकर रात के घने अँधेरे के जंगल में खो गया.

उसके बाद ये सिलसिला हो गया था. हर्ष हर रात इसी तरह व्हाट्स एप पर बीजी रहता था. उसका कहना था कि आजकल सब दफ़्तर में व्हाट्स एप ग्रुप्स बन गए हैं. हर कोई वहीं अपडेट करता है और वहीँ से सबको देखना भी ज़रूरी होता है. अच्छा फिर कई बार नींद नहीं आती तो कुछ फनी स्टफ देखना क्या बुरा है. वह कई बार एलची को कोई लतीफ़ा पढ़कर सुनाता.

एलची लतीफ़ा सुनकर चुप उसके सामने देखती और वे दोनों आगे कुछ बोले बिना सो जाते.

कल शाम को पार्क में घुसते ही “मम्मा” कहकर अंगुली छुड़ाकर देबा भाग गयी. बेटी ने लगभग भाग जाने से पहले आवाज़ दी थी. एलची ठिठक गयी कि अभी एक नन्हा बच्चा ठोकर में आते-आते बचा.

पार्क के पिछले दरवाज़े के पास ही बच्चों के झूले लगे थे.

वे सब बच्चे इसी जगह होते थे. एलची के लिए पार्क का पिछला दरवाज़ा सबसे नज़दीक का दरवाज़ा था. वे और उनके ब्लोक के सब लोग यहीं से पार्क में दाखिल होते. जो पार्क के जिस दरवाज़े के पास रहता है, वह उसी तरफ के हिस्से में अकसर अपना समय बिता कर लौट जाता. जो लोग जोगिंग के लिए आते, वे भी जब अपनी तरफ के हिस्से में होते हैं तब ज्यादा इजी फील करते. दूसरे तरफ का हिस्सा आते ही उनको लगता है कि अपरिचित क्षेत्र में प्रवेश कर गए हैं. उस तरफ उनकी चाल और चेहरे के हाव भाव भी बदल जाते. वे वाकिंग लेन से ध्यान हटा कर आस पास के लोगों, दीवारों और दीवारों के बाहर तक सर ऊँचा करके देखने की कोशिश करते. पार्क में हर बैंच पर एक ही तरह की शक्लें दिखाई देती. वे शक्लें पड़ौसी देश के नागरिकों और अपने देश के नागरिकों में विभाजित थीं. उनमें से कुछ शक्लें खासी अपरिचित थीं. इसलिए कि वे बहुत दूर चौथे टावर में रहती, कोई दो सौ मीटर दूर. ये सचमुच अजनबियत की धरती पर उगा हुआ शहर था. अबोला ही इसकी कल्चर थी.

एलची कई दिनों से चीज़ों से टकरा रही थीं मगर ऐसा कभी न हुआ कि इस तरह मासूम बच्चे को ठोकर लगा दें. यही आज फिर हुआ कि सुबह साढ़े तीन बजे वे सेलफोन से टकरा गयीं. दो बजकर बीस मिनट पर हर्ष ने फ्लाईट के लिए घर छोड़ा था. उसके जाने के बाद वह काफी देर तक दरवाज़े पर खड़ी रही. जबकि आना किसी को नहीं था. हर्ष की फ्लाइट छूट भी जाती तो भी ये कोई बड़ी खुशी की बात न होती. वह घर में होता मगर वैसे ही चुप जैसे घर की दीवारें.

इसी तरह चुप और किसी ख़याल में खोयी हुई खड़ी रहने के कुछ देर बाद वह जब अपने बिस्तर पर आई तो उसका पैर फोन से टकराया. फोन तो उसके हाथ में था फिर ये क्या चीज़ है. उसने देखा कि सचमुच फोन बिस्तर पर ही पड़ा हुआ था. हर्ष का फोन.

उसके बदन में पैर के अंगूठे से होती हुई एक सनसनी दौड़ पड़ी.

सहसा उसने अपने फोन का स्क्रीन ऑन किया और देखा पौने चार होने को आये. प्लेन ने टेक ऑफ कर लिया होगा. हर्ष को क्या अब तक ये ख़याल नहीं आया कि उसका फोन छूट गया है? आता तो वह ज़रूर फोन करता. वह पलंग का सहारा लेकर बैठ गयी. उसने फोन को छूना चाहा. अंगुलियां जैसे ही फोन के करीब पहुंची उसकी धड़कन बढती गयी. फोन एक बम की तरह बिस्तर के कोने में पड़ा हुआ था. एलची बिस्तर पर ज़रा देर बैठने के बाद उठकर रसोई की तरफ गयी. उसे समझ नहीं आया कि वह रसोई में क्यों आई है? क्या वह सेलफोन से दूर भाग रही है. उसने रसोई से ही देखा. पलंग पर अँधेरा था. फोन का स्क्रीन शांत था. वह आहिस्ता क़दमों से चलती हुई बेटी के पास आई और उसे ठीक से चादर ओढ़ाया.

फोन अब भी छलिया, ज़हरीले जीव की तरह घात लगाये हुए पड़ा हुआ था. किसी भी पल अचानक अपने असल रूप में आकर डस सकता था. एलची ने बिस्तर पर बैठे हुए फोन को फिर से देखा. वह निर्जीव था. अचानक लगा कि इस फोन का मरण हो चुका है. अब ये इस निसंग संसार से कोई वास्ता नहीं रखता. उसने फिर फोन की तरफ देखा. उसकी आँखों में नींद की जो तड़प थी उसे इस उपकरण ने छीन लिया था.

एक झपकी के बाद उसकी आँख खुली.

उसके पाँव फोन के इतने करीब थे कि वह फिर से डर गयी. तेज़ी से बेटी को उठाया और उसे गुनगुने दूध का मग दिया. बेटी दूध को पी रही थी. उसकी आँखें इस तरह पूरी बंद थी जैसे कोई देवीय मूरत दूध पीकर भक्त को वरदान दे रही हो. कोई चमत्कार हो रहा हो. एलची ने कहा बेटा ज़रा मुस्कुराओ तो... देवीय मूरत एक स्निग्ध मुस्कान से भर उठी. ये मुस्कान कान के किनारों तक जाने वाली नहीं थी. ये ऐसा था जैसे बुद्ध मुस्कुराये हों. आँखें उतनी ही बंद थी जितनी हो सकती थी. थोड़ी देर में चेहरा स्थिर हो गया. दूध खत्म हो गया था और नन्हीं देवी कुर्सी का सहारा लिए छत की और मुंह किये सो गयी थी. वैसे वह जागी ही न थी.

एलची ने उसे कुर्सी से उठाया और खिड़की के पास खड़ी होकर चूमने लगी. ज़रा गुदगुदी करती ज़रा सी नकली हंसी हँसती और फिर उसकी गरदन पर अपने होठ घुमाती. इस बीच एलची हवाई जहाज के लेंड होने के बारे में सोचने लगी. एक घंटा बीस मिनट की डोमेस्टिक उड़ान. दिल फिर एक बार धड़का. अब तक हर्ष को याद आना ही चाहिए था कि फोन घर पर छूट गया है. क्या वो फोन करके ये नहीं कहेगा कि मेरा फोन स्विच ऑफ कर दो. क्या वो ऐसा करने को कहेगा तो स्क्रीन लॉक खोलना नहीं पड़ेगा. और स्क्रीन लॉक खोलने के बाद... खिड़की के पास खड़े हुए एलची ने एक निगाह फिर से फोन पर डाली. वह नीले सुरमई रंग की बेड शीट पर काले धब्बे की तरह था.

देबा को स्कूल ड्रॉप करके वह घर नहीं आई.

वह कार ड्राइव करती हुई सोहना गाँव से आगे निकल आई. उसके पास कोई निश्चित ठौर न थी. वह बस ग्यारह बजने का इंतजार कर रही थी. वह दो घंटे बिताने के लिए और कुछ नया देखकर मन बदल सके इसलिए ड्राइव करती रही. सड़क के किनारे वह गाड़ी रोक लेने को धीमा करती तो पाती कि किनारों पर जमा पानी में प्लास्टिक तैर रहा है. ठहरा हुआ पानी सड़ने की गंध से भरा है. वह कार का शीशा उतारे बिना ही उस गंध को पहचान जाती है. जैसे कि अक्सर हम किसी को देखकर उसके हाल के बारे में एक अनुमान कर लेते हैं.

मुश्किलें आकर हमें याद दिलाती है कि ज़रा सोचो ज़िन्दगी किधर जा रही है? मुश्किलों के बिना हम किसी आलू की तरह रेत में लुढकते रहते हैं. एलची का रेत में लुढकना बंद हो गया था. वह किसी आलू की जगह वटवृक्ष होने को अपनी जड़ें तलाशने लगी. मुश्किलों ने ही उसे अपनी बुनियाद के बारे में याद दिलाया.

चार साल पहले एलची ने उस रात जब होटल जैसे घर को सचमुच का घर बनाने की ओर कदम बढ़ाया था, वह पहली बार का चौंकना न था. शादी के पहले एक साल बाद ही उसे याद आने लगा था कि उसने आखिरी बार अच्छी नींद कब ली थी. उसने बचपन से लेकर अब तक कई बातें याद की मगर एक अच्छी नींद के बारे में वह सिर्फ इतना तय कर पाई कि जब तक आप अपना जीवन किसी को सौंप नहीं देते या किसी के जीवन की डोर अपने हाथ में नहीं ले लेते सिर्फ तभी एक अच्छी नींद के बारे में सोचा जा सकता है.

वह पहला एक साल फुर्र फुर्र उड़ते फिरने जैसा था.

सुबहें खूब अकड़ी हुई आती थी मगर बदन अपने आप को किसी खुशी में संभाल लेता था. ऑफिस. ऑफिस में फोन कॉल. हर वक्त एक हॉट लाइन थी. दोनों जुड़े ही रहते थे. वह कुछ समझती तो हर्ष कहता कि बेअक्ल से शादी क्यों की? मैं तो ऐसे ही रहूँगा. वह खुश होती थी. उसकी फितरत में ऐसा न था कि केयरिंग और लविंग होने को प्रदर्शित करे. उन दिनों मगर सब शामें किसी न किसी रेस्तरां या कहीं आउटिंग में बीतती गयीं. वे दिन आहिस्ता नहीं अचानक से हवा हुए.

उस एक साल के बाद के किसी महीने में पहली बार उन दोनों ने वो बात की जो बात वे पहले से जानते आये थे.

हर्ष ने कहा- “मेरा तुम्हारा सबकुछ साझा है मगर ये ऐसा नहीं है कि हम एक दूजे के स्पेस को खत्म कर दें.”

एलची चौंक गयी थी. उसने खूब प्यार से कहा. “ये कोई बात है कहने की?”

“हाँ, है तो नहीं मगर सोचा कि तुम किसी संकोच से न कहो और मैं न बताऊँ तो अच्छा नहीं होगा. इसलिए तुम हमेशा याद रखो कि तुम्हारा अपना जीवन है और मैं उसका रेस्पेक्ट करता हूँ. मुझे तुम्हारे किसी मामले में तब तक रूचि नहीं होगी जब तक कि वह हम दोनों को प्रभावित न करे.”

एलची खामोश, वह हैरत से भरी थी- “ऑफ कोर्स मगर ये सब किसलिए. मैं समझती हूँ.”

असल में ये समझदारी दो एक साल बाद एलची को अलग तरह से समझ आई. एक खास किस्म की दूरी थी जो स्पेस के नाम पर दोनों के बीच घर करती गयी. लेकिन सब चलता रहा. ये चलना तब रुका जब एलची ने नौकरी छोड़ दी और घर को फुल टाइम अपना लिया. बेटी होने के एक साल बाद उसने फिर कम्पनी ज्वाइन की थी मगर तीन महीने भर बाद ही उसे छोड़नी पड़ी.

बकौल हर्ष- “डार्लिंग एक एमएनसी का एशिया हेड अपने परिवार के लिए सब कुछ कर सकता है.”

पैसे की बात खत्म करार दे दी गयी थी. इसलिए अब एलची के पास वक्त था. वह सोच और संवर सकती थी. उस घर को सुन्दर बना सकती थी जिसके लिए उसने नौकरी छोड़ी थी. उन्हीं दिनों से अजनबियत और उदासी ने घर करना शुरू भी किया.

अच्छे भले दिनों की याद भी एक जादू है. कोई जादू कभी धोखा नहीं होता. इसलिए कि धोखा तब तक मुकम्मल नहीं है जब तक वह आपने न दिया हो. एलची ने क्या जादू किया था हर्ष पर? कुछ नहीं. वह खुद चलकर आया था. खुश रहता था. जहाँ जाओ उसी का साया. और फिर एक दिन दूर तक बिना परछाई के खड़ी हुई एलची. हर चीज़ जो बाहर जैसी हमें दिखाई देती है, उसका सब आकार-प्रकार, रंग-लक्षण और प्रकृति क्या हमारे ही भीतर से आती है.

हम बिना छुए कैसे जान लेते हैं कि वह चीज़ तिकोनी है. इसलिए कि हमने सीख रखा है कि दिखाई पड़ने वाली त्रिआयामी वस्तु तिकोनी है. हम क्यों नहीं सीख कर आते हैं लोगों के बारे में जानना. उनको समझना. हम इतने बुद्धू क्यों होते हिं कि पहले लोगों के साथ ख़ुशी से खुद को बांटे और बाद में उनको जाने.

एलची ने कई बार खुद से कहा कि सचमुच हम अपने आप को अनेक सीख देते रहते हैं. ये सुख है. ये दुख है. और ऐसी अनेक सीखों के बोझ तले अव्यापार जमा करते हैं. इसी तरह जब हम दोष देते हैं वे दोष हमारे अपने होते हैं. उन सब दोषों का निर्यात नहीं किया जा सकता वे सब दोष उत्पादित या आयातित होते हैं. जैसे पानी गंदला नहीं होता अगर उसके भीतर मिट्टी नहीं होती. मिट्टी पानी के भीतर है. कोई आकाश धूसर न होता अगर हवा कुछ बारीक धूल उड़ा न लाती. कोई मिट्टी दलदल न होती अगर वह पानी को अपने पास न रखती. इसी तरह सब कुछ. मन के दर्पण पर जितनी खरोंचे हैं वे अपने ही नाखूनों की हैं. याद में जितने ज़हरीले कांटे हैं वे खुद के बोये हुए हैं. इससे भी बड़ी बात कि वे खरोंचे हैं या नहीं ये हमें नहीं मालूम, वे ज़हर भरे कांटे हैं ये भी एक अनुमान भर है.

हर्ष जैसा था और वह जैसे थी, इन दोनों के बारे में एलची ने खूब सोचा था. भला बुरा सबकुछ.

वह पहले भी बहुत सोच चुकी थी इसलिए सोच के कारोबार से थकी हुई थी. कार ड्राइव करते हुए दिन के ग्यारह बजने की प्रतीक्षा करना कठिन हो गया था. वक्त पत्थर का पहाड़ था. न काटा जा सकता था न वह सरकता था. अतीत के गलियारों की उदास ठंडी नमी में घूमते हुए उसकी आत्मा भारी हुई जा रही थी. सब कुछ जो तब किया था और एकदम ठीक समझ कर किया था. उसी सब कुछ का जो परिणाम सामने था वह कहीं से ठीक नहीं.

एलची ने कार को वापस मोड़ा. सड़क किनारे बैठी कुछ चिडियाँ उड़ीं. मील के पत्थर नहीं थे लोहे के होर्डिंग थे. शहर में स्वागत करते, शहर की ओर से अलविदा कहते हुए. उन पर वापसी का पता लिखा था, चालीस किलोमीटर. समय ने भी साथ दिया. सुबह के दस बजकर तीस मिनट. जो कठोर फासला था वह लगभग कट गया. इतनी देर की उलझन कैसे इत्ती सी देर में हलकी हो गयी.

एलची ने कैफ़े में उसी कोने में जगह बनायीं जहाँ वह रोज़ बैठती है.

कल रात यहाँ किसी बच्चे का जन्मदिन मनाया गया होगा. रंगीन गुब्बारे लटक रहे थे. कागज़ की फर्रियों पर नए रंग थे. कैफे में एक नयी ताज़ा खुशबू भी थी. उसने बायीं तरफ देखा. वह सीट खाली थी जहाँ बारह बजे के आस पास एक लड़की आकर बैठा करती थी. पिछले दो साल से उस लड़की से मिलने आज तक कोई नहीं आया था. वह अपने लैपटॉप को देखती रहती थी. उसके थैले में हमेशा दो तीन स्पायरल नोटबुक हुआ करती थी. वह उनमें कुछ न कुछ लिखती जाती थी. एलची की नज़र उस कोने से हटी तो कैफे के दरवाज़े की ओर चली गयी. बायीं तरफ वाले फ्लेट में रहने वाली अंकिता की मम्मा चली आ रही थी.

“हेलो”

“कैसे हो आंटी.”

“तुम काम करो मैं चिंटू के लिए कुछ लेने आई.”

“उसे भी अंदर बुला लो”

अंकिता की मम्मा ने शीशे के पार देखा. चिंटू दो तरफ सपोर्ट वाले पहियों वाली सायकिल चला रहा था. वे अपना ऑर्डर करके एलची के पास बैठ गयी. एलची को भी अच्छा लगा कि किसी से बात करो तो बेकार ख़याल दूर हो जाते हैं. वे दोनों मुस्कुराती रही. फॅमिली कैसी, सब कैसे और क्या हाल के बाद शाइना का ज़िक्र आया. एलची आगे बढ़कर इस बात को आज के दिन तो शुरू नहीं करती. फिर भी कहीं से ज़िक्र आ ही गया. अक्सर दूसरों के दुखों का फेरा देकर अपने दुखों को कम कर लेना कोई नयी बात भी नहीं. इसलिए भी संभव है कि शाइना का ज़िक्र हो आया.

“कुछ मालूम हुआ?”

“नहीं.” कहते हुए अंकिता की मम्मा ने कहा- “हम अजनबियों की दुनिया में जी रहे हैं. कोई किसी के बारे में कुछ नहीं जानता. बस शाइना का बेटा दिखाई देता है. कल शाम को भी दादा के साथ खेल रहा था.”

“वह दो साल का है.”

“हाँ.” अफ़सोस भरे चेहरे से उन्होंने कहा- “कोई भी माँ कैसे इतने छोटे बेटे को छोड़ना गवारा कर सकती है. मैं आते जाते कभी देखती थी. परिवार के सब लोग चुप रहते हैं. कोई बोलता हुआ सुनाई नहीं देता.”

“हाँ वे कभी लड़े नहीं, मैंने भी कभी उनके घर से आती कोई आवाज़ न सुनी.”

एलची को आंटी ने ही बताया था कि शाइना के हसबेंड, उसके साथ इजी फील नहीं करते. वे रोज़ यही बात उससे कहते थे. मम्मा और पापा चुपचाप सुनते थे. एक शाम शाइना ने कहा मैं कहीं और चली जाऊं. उसके हसबेंड ने कहा हाँ चली जाओ. शाइना ने पूछा बेटे के ले जा सकती हूँ. उन्होंने मना कर दिया. जब वह जा रही थी तब उदास थी मगर रो नहीं रही थी. उसे किसी ने नहीं रोका. वह अपना फोन तक छोड़ गयी.

शाइना को गए हुए कोई सात महीने हो गए थे. उसका इस तरह जाना एलची में गहरी उदासी भरता था.

चिंटू की पुकार पर उसकी दादी उठी. एलची इस गहन स्मृति को किसी इस एकांत में आगे नहीं बढ़ाना चाहती थी इसलिए वह भी उठ गयी. रुको, आंटी मैं भी चलती हूँ. एलची ने अपना लैपटॉप बंद किया काले भूरे रंग का थैला उठाया और कार को वहीँ छोड़ दिया. कैफ़े और उनकी बिल्डिंग के बीच एक सड़क का ही फासला था. चार से घर जाने में ज्यादा समय लगता. एलची ने सोचा कि दबा को लेने जाना ही है तब वह यहां से कार ले लेगी. कुछ एलची का मन घबराया हुआ था और वह आंटी के साथ अधिक अधिक समय रहना चाह रही थी.

वे लोग पैदल चलते हुए दुकानों में झांकते गलियों और एक चौड़ी सड़क को पार करके अपनी बिल्डिंग में आ गए थे.

एलची ने घर आते ही फिर से फोन को देखा. उसने सोचा कि हम इस तरह समझदार क्यों होते हैं कि अपने सबसे निकट के व्यक्ति के स्पेस के नाम पर उसकी चीज़ों से दूरी बनाना शुरू कर देते हैं. उसके कपड़े को सूंघने का जो मादक सुख होता है उसे भूल जाते हैं. उसकी थैले को छूते नहीं. उसकी वेलेट को देखते नहीं. उसके फोन पर नज़र नहीं डालते. और जब उपेक्षा से ऊब कर लड़ने को जी चाहता है तब समझदार होकर घनी चुप्पी को मन में बसा लेते हैं.

क्या मैं इस फोन को उठाकर इसका पोस्टमार्टम कर दूं? ये एक विचार भर था. उसने गुस्से और नाराज़गी में उसे छुआ तक नहीं. वह लंच की तैयारी करने लगी. दो बजे देबा को लेने जाने का समय है. वह घर आते ही कुछ नहीं खाती. उसके लिए कुछ ऐसा फास्ट फ़ूड टाइप बनाती है, जो उसमें लालच भर सके. एलची जानती थी कि बच्चा न खाए तो उसे जबरन नहीं खिलाना चाहिए मगर उसको इसमें सुख आता कि स्कूल से आई बेटी को कुछ खाते हुए देखे.



एलची देबा को लेने बाहर निकली. सामने का फ्लेट बंद था. फ्लेट को देखने से कोई ख़ास फील नहीं आना चाहिए मगर जब आप उसके अन्दर की कुछ चीज़ों और सम्बंधों के बारे में जानते हैं तो फ्लेट को देखकर कुछ सोचने लगते ही हैं. शाइना क्यों चली गयी होगी.क्या वह भी इसी तरह एक दिन देबा को छोड़कर जा सकती है? वह नहीं जा पायेगी. क्या कोई तकलीफ सचमुच इतनी बड़ी हो सकती है कि अपनी बच्चे को छोड़कर कहीं जीया जाये.

एलची को कुछ समझ न आया मगर इन दिनों वह समझने लगी थी कि कुछ दुःख असंभव होते हैं. बहार से सब सुख दिखने वाली चीज़ें भी गहराई से दुखी कर सकती हैं.


माँ बेटी दोनों दोपहर में सुस्ताने लगे.

एलची को नींद ने घेर ही लिया. दो घंटे बाद उसकी आँख खुली. देबा सो रही थी और शाम होने को आई थी. सवा पांच बज चुके थे. उसने खिड़की से पर्दा हटाया. उसकी आँखें अद्भुत चमक से भर गयी. वह जहाँ तक ठीक देख पा रही थी, एक कार खड़ी दिख रही थी. उसके पास बिलकुल शाइना जैसी कोई खड़ी था. एकदम शाइना. उसके बदन के रोंगटे खड़े हो गए. उसके भीतर उत्तेजना की लहर दौड़ी. एलची खिड़की से हटी और तुरंत दरवाज़े के पास आ गयी. पहले उसने सोचा बाहरी लोगों को देखने के लिए बने छेद वाले कांच से देखे. असमंजस में वह कुछ पल खड़ी रही. उसने कुछ सोचकर दरवाज़ा खोल दिया. एक सुनियोजित घटना की तरह दरवाज़ा खुला और सामने उसे शाइना, उसके पति और सास-ससुर दिखाई दिए. एलची को जाने किसने प्रेरित किया कि वह खूब जोर से चीखी- हाय शाइना.

शाइना ने मुस्कान से एलची को देखा और चमकती हुई आँखों से बिना कुछ कहे अपने फ्लेट की ओर बढ़ गयी.

हाँ शाइना खूब मुस्कान से भरी थी. बाकी सब उसके पीछे पीछे चल रहे थे. वे सब लोग फ्लेट में चले गए तब एलची ने अपने घर का दरवाज़ा बंद किया. उसने खिड़की से पूरा परदा हटाया. जैसे सब कुछ इसी परदे के पीछे छिपा हो. उसने ऊँचे पेड़ों पर इस उम्मीद में निगाह डाली कि क्या धूसर रंग वाली चिड़ियों का दल शोर मचाता हुआ लौट आया है. एलची को कुछ न दिखाई दिया.

देबा के लिए दूध गुनगुना कर लिया था. देबा पालथी मारे सोफे पर बैठी थी. कार्टून चल रहे थे. लाल पीले और हरे रंग से टीवी भरा हुआ था. संगीत के छोटे छोटे टुकड़े और नन्हे बच्चों के लिए डब की हुई आवाजें एक हल्का मौसम बुन रही थी. एलची को याद आया कि हर्ष आठ बजे तक घर पहुँच जायेगा. एलची ने अपने पैर के अंगूठे से फोन को छुआ और धीरे से पलंग से परे सरकाना शुरू किया. उसे पलंग से नीचे आखिरी धक्का देने से पहले उसने सोचा कि वह हर्ष को बच्चों के कार्टून करेक्टर के संवाद की तरह कहेगी. “तुम्हारे फोन ने पलंग से कूद कर आत्महत्या कर ली.”

उसके चेहरे पर एक लज्जा और शरारत भरी मुस्कान थी.

खिड़की के परदे के पार शायद किसी चिड़िया की आवाज़ थी. एलची को पक्का यकीन तो न था मगर उसने चिड़िया की आवाज़ सुनी ज़रूर थी.

3 comments:

  1. वह अभी जागी थी. पिछली रात उसने दस घंटे किसी क्षोभ और दुःख के बिना व्यतीत किये थे. उसको क्या चिंता सता रही थी, ये कहना इसलिए कठिन था कि वह अपनी असल परेशानी कभी खुद तय नहीं कर पाई.

    वह सब कुछ हार चुकी होती तो कितना अच्छा होता कि उदास चुप बैठी रहती या ज़िंदगी को ही हारा हुआ मान कर कहीं जाकर मर जाती. मगर वह हारी नहीं थी. वह अपने आप को हारता हुआ देख रही थी. चुप बैठे खुद को हारते हुए देखना, ये जीवन का सबसे अनूठा अनुभव था. उसके पास जीवन भर की जो पूँजी थी वह किस काम आई? ऐसा सोचते हुए अचानक ख़याल आया कि ये एक खास किस्म की छल भरी लूट है जिसमें आपके पास जो कुछ मौजूद है, उसे नाकारा कह कर नए सिरे से किसी काम में उलझा दिया जाये. रात को वह कई बार सोयी थी. ये सोचना खुद को दिलासा भर देना था. असल में वह जब-जब ख़यालों में गहरे डूबी और अपनी सुध खो बैठी उसी को उसने सोना समझ लिया.

    उसने आखिरी बार सुख भरी नींद कब ली थी ये याद करते ही उसे अतीत में कई साल की छलांग कर बहुत पीछे जाना पड़ता था.

    एक असल गहरी नींद एक गहरे अटल विश्वास में छुपी होती है...

    ..................................

    बेहतरीन...!!

    एक ही सांस में कई बार पढ़ गई...

    आपकी कहानियों से ज्यादा जो बीच-२ में ज़िन्दगी से जुड़ा दर्शन होता है, बेहद मर्मान्तक और दिल के करीब होता है...

    आप एक किताब दर्शन पर भी लिख ही डालिए, लोगों को अपनी समस्याएँ सुलझाने और ज़िन्दगी को समझने में मदद मिलेगी...

    कहानी मुझे बहुत ज्यादा अच्छी नहीं लगी, शायद मेरी ही समझ का फेर हो...

    वैसे प्लाट काफी अच्छा है... हो सकता है, मेरे मन के खांचे में फिट नहीं बैठ पाई...

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  3. ताना बाना बहुत बढ़िया रहा.

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