Friday, April 22, 2011

मार्च महीने की एक सुबह में प्रेम

ये चिपचिपी गरमी वाला मौसम था। रात के दो बज रहे थे। तेरहवें माले के फ्लेट की खिड़की के पास का मौसम कुछ ठीक जान पड़ता था। लेकिन वहाँ भी हवा जैसा कुछ न था। अंदर आने वाले दरवाज़े के पास जूते रखने की छोटी रैक थी। वहाँ रुकने का मन नहीं होता था। इसलिए जूते हमेशा बालकनी कहे जानी वाली छोटी सी जगह पर एक दूजे पर अलसाए हुये पड़े रहते थे। फ्लेट था, जैसे रेलवे यार्ड में खड़ा हुआ शिपिंग कंटेनर। एक तरफ दरवाज़ा और दूसरी तरफ खिड़की। बाईं तरफ एक छोटी बालकनी। उसमें से अगर देख सको तो आसमान का छोटा सा टुकड़ा। वह गहरे सलेटी रंग के लोअर की पिछली जेब में हाथ डाले हुए खड़ा था। उसने सोचा कि वह अपना एक पैर अगर खिड़की पर रख कर खड़ा हो सके तो शायद आराम आएगा।
* * *

वीकेंड के दो दिनों के आलावा सप्ताह के बची हुई हर सुबह वह बड़ी कंपनी के बाहर काँच लगे दरवाज़े के पास एक मशीन में कार्ड को स्वेप करता। उस समय उल्टा लटका हुआ न दिखने वाला पंखा सारी धूल झाड़ देता था। मन का लालच बचा रह जाता था। अगर वहाँ काम करने वालों के लालच की धूल झड़ जाती तो अगले दिन ज़रूरी नहीं कि सब लोग कंपनी के दफ़्तर के दरवाज़े पर काम की कतार में हाज़िरी देते। इस दुनिया में ठहर जाना कीमत मांगता है इसलिए ठहर जाना मना था। दुनिया के कान में, इसी दुनिया के पहले आदमी ने फूँक मारी थी कि चलते जाने ही उसका काम है। अब चलते किसलिए जाना है, इस सवाल के उत्तर के लिए सयाने लोगों का कहना था कि भय और लालच ही वे दो ऐसी चीज़ें हैं। इन दो चीज़ों के सहारे किसी को भी हाँका जा सकता है।

उसने कार्ड को मशीन में फेरते समय सोचा कि ठिगने कद वाला सीनियर एक्जिक्यूटिव उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा है। अब तक जिन कंपनियों में उसने काम किया और वहाँ उसे जो भी मिले उन सब को लांघना आसान था। दो महीने और पंद्रह दिन की बात होती थी। गणित के किसी फोर्मुले की तरह इस काम को वह हल किया करता था। इन दिनों में वह अपने आप को और कंपनी के लिए उसकी ज़रूरत को प्रूव कर लेता था। जब उसे लगता कि अब उसकी बात को अनसुना नहीं किया जा सकेगा। उसके अगले दिन काम से हाथ झाड़ कर चुप बैठ जाता। बिना काम के बैठे हुये देखकर, सबसे करीब और ऊपर वाला पूछता क्या बात हुई? जिसे अनसुना नहीं किया जा सकता हो उसमें एक स्वाभाविक दोष होता है कि वह किसी की सुनता नहीं है। तो बॉस की पुकार में उसे कुछ सुनाई नहीं देता। उसका नाम जो कि इतना निक हो चुका होता कि दो अक्षरों में समा जाता। इसलिए भी उस छोटे नाम को वह सुन नहीं पाता था। वह कुछ कहे बिना बॉस को इगनोर करते हुये वाशरूम की तरफ चला जाता। वाशरूम उसके लिए उत्प्रेरक थे। वे उसके मनोबल को ताज़ा किया करते थे। यूरिन पॉट के सामने खड़ा होकर वह गहरी निगाह से देखता था। लाजवाब सुंदरता। उसके कद के आधे आकार का पॉट उसके सामने मुस्कुरा रहा होता। उसके कटाव इतने सुंदर होते कि उसको सीने से लगा कर बिस्तर में सो जाने का मन करे। उस पॉट का रंग, टेक्सचर और फिनिशिंग लाजवाब होती। उसमें पड़ी हुई सफ़ेद कपूर की गोलियां अपने भाग्य पर इतरा रही होती कि वे एक सुंदरतम पॉट की गोदी में पड़ी हैं। कपूर की उन गोलियों के लिए इससे अच्छी जगह दुनिया के किसी कोने में नहीं होती।

यहाँ से वह दुनिया के फर्क को साफ देखता था। सत्रह नंबर रूट की बस जहां रुकती थी, वहीँ स्वच्छ भारत – सुन्दर भारत का बड़ा होर्डिंग लगा हुआ था. उसी होर्डिंग के एक खम्भे के पास के कोने को लोगों ने मूत्रालय में बदल दिया था। इसके बाद आने वाले सभी स्टेण्ड्स का हाल भी यही होगा मगर वह उनको देख नहीं पाता था। सत्रह नंबर वाले स्टेंड के कोने में खड़े लघुशंका से निवृत हो रहे आदमी और दफ्तर के वाशरूम में खड़े हुये हुये आदमी के बीच की दो दुनियाओं में न नापा जा सकने वाला अंतर ही उसकी ऊर्जा थी। अपने दफ़्तर के शौचालय में खड़ा होकर ख़ुद हल्का होने की जगह अपने आप को याद दिलाता कि इस पॉट के सारे कर्व किसी न किसी की पीठ को उधेड़ कर बनाए गए हैं। वह उसी वाशरूम के हर कोने का मुआयना करता। वहाँ क्लोज सर्किट केमरा नहीं लगे थे। वहाँ आराम से इस भव्य वाशरूम को देखते हुये वक़्त गुज़ारा जा सकता था। वह कोई बीस एक मिनट बाद वहाँ से बाहर निकलता।



उसका बॉस इंतज़ार में ही होता। बॉस इसीलिए हुआ करते हैं। वे बैलों की पीठ के पीछे चल रहे हलवाहों की तरह काम करते हैं। चुप कदमों से पीछे चलते हुये अपने खेत को जोतते जाते हैं। वह भी एक बैल की तरह ठिठकता। बॉस का काम शुरू हो जाता। वह जानता था कि दुनिया बड़ी बेरहम है। बेरोज़गारी रेगिस्तान के प्रेत की बेहिसाब फैली हुई पूंछ जैसी है। वह फिर से अपनी कुर्सी पर आ जाता। टेबल पर रखी हुई किसी चीज़ को उठाता और उसी जगह रख देता। वह जान रहा होता कि बॉस उसे किसी न किसी केमरे से देख ही रहा है। आज वह सिर्फ उसी को देखेगा। कोई चार बजे के आस पास वह अपने केबिन से उठेगा और उसकी टेबल तक आएगा।

वह गणित में हर बार सौ में से सौ नंबर लाता था। इसी दांव को बार-बार ज़िंदगी के साथ खेलता है। दफ़्तर में फाइल के लंबे से लंबे कोड को वह छोटे छोटे टुकड़ों में बाँट कर अपने दिमाग में फिट कर लेता है। किसी हिसाब के आखिरी सब अंक और उनका जोड़ वह बिना किसी उपकरण की मदद से अपने आप कर लेता है। इस तरह के लोगों को ऐसा करने में मजा आता है। एक ही हिसाब के पन्ने को प्रिंट स्क्रीन की तरह अपनी याददाश्त में बचा लेना। नई कंपनी में जॉइन करते ही वह अपना खेल शुरू करता है। जो काम उसे सौंपा जाता है। उस पर टूट पड़ता है। ये एक युद्ध होता है। उसकी एकाग्रता और गणित कौशल के आगे कोई भी डाटा फाइल टिक नहीं सकती। वह दिन भर के काम के लिए पैंतालीस मिनट तय करता है। वह जानता कि बॉस उसको काम करता हुआ देखकर नोटिस नहीं लेगा. वह उसको आराम करता हुआ देखकर नोटिस लेगा। वह अपनी डेस्क पर पैंतालीस मिनट बाद सो रहा होता।



व्हाट हेप्पन?

यस बॉस।

काम हुआ

काम था ही नहीं

जो शेड्यूल था वह?

वह बड़ा मामूली काम था



इसके बाद उसके सामने नया काम होता।

लालच बुरी बला है। शायद पाँचवीं क्लास के आस पास कहीं पढ़ा था। सबने पढ़ा होगा। सबने मगर इस तरह इसे एक हथियार के रूप में न आजमाया होगा। उसने इसे हथियार बनाया। कंपनी लालच से ही चलती है। वह खूब सारा काम करके कंपनी को लालची बनाता। हर दो महीने और पंद्रह दिन बाद वही सब दोहराना पड़ता था। काम बंद और वाशरूम का चक्कर। फिर केंटीन और फिर


यार तुम मिलते ही नहीं हो?

मैं, बस यूं ही

मेरा मन ठीक नहीं है, कॉफी लेना चाहता हूँ।

वह जान रहा होता कि बॉस का सब ठीक ठाक है। वह सिर्फ उसकी थाह लेने आया है। इसलिए उसने उसके सामने इस तरह देखा कि जैसे उसका मन बॉस से भी ज्यादा खराब है। कॉफी लेने जाने तक का भी उसका हाल नहीं है।

क्या, तुम भी ना... आओ

वे दोनों दफ़्तर की केंटीन में बैठे थे।

क्या हुआ?

कुछ खास नहीं। मगर क्या मैं कहूँगा तो मान जाओगे?

बॉस को पूरे अचरज की ओर धकेलेने की कोशिश में उसने कहा- मैं ये जॉब नहीं करना चाहता हूँ।

मुझे बताना चाहोगे कि बात क्या है?

वह अपने कॉफी के मग की तरफ देखता है मगर उसको हाथ नहीं लगाता। उसे मालूम है कि कॉफी को गरम पीने से या उसके ठंडा हो जाने से तब कोई फर्क नहीं पड़ता जब आप वातानुकूलित कमरे में बैठे हों। आप मजे के लिए ठंडा मौसम करके बैठे हैं। आप उसी मजे को बढ़ाने के लिए एक गरम पेय को पी रहे हैं। दोनों ही चीज़ें नकली हैं। इसलिए वह उस कॉफी के मग के सामने देखता है। जैसे किसी भरे पेट शिकारी जानवर के सामने कोई नासमझ हिरण चर रहा हो। वह कुछ नहीं करता। वह चीनी का पाऊच भी नहीं फाड़ता। वह अपनी कुर्सी से हिलता भी नहीं है। वह बॉस की आँखों में झाँकता है. एक ही सांस में कहता है. जिन चीज़ों को आप सीधा रखना चाहते हैं, वे अक्सर उल्टी गिरती हैं। आईनों ने हमेशा सलवटों से भरा सदियों पुराना चेहरा दिखाया हैं। किस्मत को चमकाने वाले पत्थरों के रंग अँगुलियों में पहने पहने धुंधले हो जाते हैं। अफ़सोस ज़िन्दगी से ख़ास नहीं है। एक लड़की से प्रेम है। उसके लिए कुछ लम्हे चाहिए।

बॉस इसी क्लू का इंतज़ार करता है। वह इस बात को नज़रअंदाज़ करता है कि कॉफी क्यों नहीं ले रहा। बॉस जानता है कि वह कॉफी न पिये तो भी उसका बिल पे करने से उसे कॉफी पर ले जाया जाना मान लेना होगा।

तो तुमको छुट्टी चाहिए? बॉस एक लंबा सिप मारता है। बॉस को लगता है कि मामला बड़ा मामूली निकला और मैं इस एम्प्लोयी को दो मिनट में सैट कर लूँगा। काम का आदमी बच जाएगा तो उसके बॉस शाबासी दे रहे होंगे।

कॉफी का मग अब भी पड़ा हुआ था। उसने कहा- मैं एक अच्छा आदमी हूँ। मुझे बेकार की चीजों ने बरबाद किया है।

तुम्हें एक लड़की के साथ वक़्त बिताने के लिए छुट्टी चाहिए, इसमें बरबादी की क्या बात है।

वह कहता है- नहीं नहीं। कल शाम को सात महीने बाद मैंने टीवी चलाया। एक अद्भुत रिपोर्ट देखी। मैं अब तक सदी की महानतम लापरवाही कोपेनहेगन शिखर सम्मलेन को मान रहा था। कल उस रिपोर्ट को देखते हुये लापरवाही की नयी मिसाल मालूम हूई। सहवाग पहली पारी में सौ रन बनाकर आउट हो गया था। ये उसका देशद्रोही हो जाना था। बाकी बीस बीस रन न बना सकने वाले खिलाड़ियों की जगह सहवाग ही दोषी था। उस रिपोर्ट से लगता था कि सहवाग स्वात घाटी में बैठे हुए किसी कठमुल्ले का प्रतिनिधि है।

बॉस ने कहा- इस तरह की वाहियात ख़बरों से तुम दिल लगाते हो?

नहीं। मुझे सहवाग से ज्यादा इस बात में दिलचस्पी है कि ये खेल कितने हज़ार या लाख करोड़ का कारोबार है? इस खेल को कौन चलाता है? इससे मिडिया को कितना मिलता है? इस खेल की नियामक संस्था से भारत सरकार का कोई लेना देना है? नहीं है, तो फिर ये किस देश के लोग हैं और यहाँ क्या कर रहे हैं? ऐसे कितने चैनल हैं?

बॉस असहज हो गया था।

उसने कहा- वैसे बॉस एक बात बताईये, हम जिस कंपनी में काम करते हैं उसको भी हमारे देश से कोई लेना देना है या माल बनाना और अपने देश ले जाना भर है.

बॉस को कोई नुकीली चीज़ चुभ गयी.
कुछ कहे जाने का इंतज़ार किये बिना उसने झटके से चीनी के पाउच को बीच से फाड़ा। सारी चीनी बिना किसी दोहरे परिश्रम के सीधे मग में चली गयी। कॉफी के मग को मुंह से लगा कर आधा कर दिया। होठों पर अपनी जीभ नहीं फिराई। हल्की मूंछें ऐसी दिख रही थी जैसे समंदर के किनारे पर किसी लहर के झाग ठहरे हुये हों।

उसकी आँखों में चमक आई। उसने कहा- बॉस, मेरा एक दोस्त है। साले को पचास हज़ार रुपये पूरे नहीं मिलते। महीने भर तक दफ़्तर में घिसवाता है। कल रात को उसका एसएमएस आया। बिलगेट्स अंकल का हवाला था कि गरीब पैदा होना आपका दोष नहीं है पर गरीब मरना आपका दोष है।

इतना कह कर वह ठहाका लगाता है। केंटीन के सब लोग उसे हँसते हुये देखते हैं और सब लोग फिर से अपने काम में लग जाते हैं। उन लोगों के पास लैपटॉप है। ईयर फोन है। एक नोटबुक भी है। एक बैग भी है। वे शायद वर्क फ़्रोम होम के मोड में हैं जबकि उसी केंटीन में बैठे हुये हैं। उनकी दुनिया में हंसी एक गैरज़रूरी चीज़ है। वह फिर से हँसता है – तनख्वाह पर पलने वाला साला गरीब आदमी बातें कितनी बड़ी करता है।

बॉस को बिल पे करने के लिए कहीं जाना नहीं है। वह अपने आप कट जाएगा। वहाँ लाखों की सेलेरी से बहुत सारी सेलेरी अपने आप कटती जाती है। इसलिए बॉस कल की प्लानिंग के लिए आखिरी ज़रूरी सवाल पूछता है। तुम छुट्टी जाने का प्लान कर रहे हो?

वह कहता है- बॉस कल मैं पक्का दफ़्तर आ रहा हूँ। वैसे आपने ग्रीक पौराणिक कथाओं के दानव स्फिंक्स के बारे में ज़रूर सुना होगा। वही जो सामने पड़ जाने वाले हर आदमी से एक पहेली पूछता है और उत्तर ना दे पाने वालों का गला घोंट देने को वचनबद्ध है।


आप उसकी तरह वचनबद्ध तो हैं मगर मेरा गला नहीं घोंट पाएंगे।

उसके ऐसा कहते ही बॉस ने कहा- नो प्रोब्लेम। एक आदमी की ज़िंदगी किसी कंपनी के सहारे और कोई कंपनी एक आदमी के सहारे नहीं चलती।

पहले भी तीनों बार के बॉस ने यही कहा था और फिर उसको प्रमोट कर दिया गया।
* * *
वह दफ़्तर से एक दांव का पहला भाग खेल कर आया था। उसे यही खेल आता था। उसके अब्बू ने कहा था कि दुनिया एक खेला है। आदमी की ज़िंदगी, तारों की रोशनी है। टिमटिमाती है और बुझ जाती है। इस खेला का राज़ मालूम करो। उसी में असली मज़ा है। वह उस कंपनी का राज़ मालूम कर लेना चाहता था। जिस राज़ के कारण उसके वाशरूम और सत्रह नंबर बस स्टेंड के पास वाले खुले शौचालय के बीच का अंतर था।

खिड़की पर उसने जाने कब से पाँव रखा हुआ था। अब उसे ऐसा लगा कि वह पाँव को सीधा कर ले तो शायद उसे आराम आए। आराम बड़ी कमीनी चीज़ है, एक जगह टिक कर नहीं रह सकती.

उसने अपने मन में कहा कि वह क्या कर सकता है? दफ़्तर के खेल के सिवा उसके पास अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं थे। वह एक खड़ी पाई लगाने के अंदाज़ में कहता था कि प्रेम जैसे विषय के उत्तर किसी के पास कभी नहीं रहे। बड़े सूफी संत भी प्रेम को समझाते हुए स्मृतिशेष हो गए। प्रेम अनचीन्हा रह गया।

दूर रौशनी में शहर की भव्यता टिमटिमा रही थी। तीन साल पहले तक इसी टिमटिमाहट ने दिल में घर बना रखा था। अब्बू की बात सही लगती थी कि ये आदमी ही टिमटिमा रहे हैं। वह खिड़की के बीच बैठा हुआ इस खूबसूरत दुनिया के छोटे से आले में खुद पर सम्मोहित हो जाया करता था। आज नींद गायब थी। सिगरेट की तलब में उसने बायीं तरफ हाथ घुमाया लेकिन रैक पर कुछ नहीं था। सीढ़ियों की तरह ऊपर की ओर जाती हुई लकड़ी की उस रैक के सब कोनों में सिर्फ़ सीलन भरी थी। वैसे भी वह बिस्तर की सीलन से घबराकर ही यहाँ खड़ा था। सीलन उसे घेरे हुये थी।

वह मुड़ा और खिड़की से दूर सात कदम चलते ही किसी दोराहे पर आ गया। एक तरफ दिन में दीवार से सट कर खड़ा रहने वाला बेड बिछा था। दूसरी तरफ वह कोना था जहां कॉफ़ी बनायी जा सकती थी। उसे बचपन से ही सिखाया गया था कि ज़िन्दगी में बीच के रास्ते चुनने चाहिए। यानि न उसे बेहद सख्त होना है और ना ही हद से अधिक नरम। उसको ख़ुद पर कोई सितम नहीं करना चाहिए इसलिए दो सेकंड से भी कम अवधि में उसके दिमाग ने तय कर लिया कि सिगरेट पी जाये।

धुंएँ के बेतरतीब आकार को देखते हुए, उसे एक हल्की ठंडी रात याद आई।
उस रात इसी स्टूडियो फ्लेट के ठीक बीच में बिछे हुए बैड के दायें किनारे पर बैठे हुए उसने माचिस की तीली जलाई। आग की इस रौशनी में उसने देखा कि नमिता की दो आँखें चमक रही थी।

"नींद नहीं आई?"

ऐसा पूछते हुए वह उठ गया। जब तक नमिता ने 'नहीं' कहा, तब तक वह खिड़की के पास पहुँच चुका था। उसके मन में फिर से एक सवाल कौंधा। वह क्यों उठ कर चला आया? इसलिए कि नमिता को सिगरेट पसंद नहीं है।

उस हल्की ठंडी शाम में इसी खिड़की के पास खड़े हुए नमिता ने कहा था कि सिगरेट मत पिया करो। उसकी आँखों में किसी शरारत के साथ झांकते हुए उसने पूछा था- क्यों। नमिता ने कहा- मैं सिगरेट की गंध को पसंद नहीं करती हूँ। उसने पलटते हुए नमिता को बाँहों में भर लिया।

"एक मिनट।।। मुझे छोड़ दो।" कहते हुए नमिता ने बाँहों से दूर जाना चाहा। उसने अपनी पकड़ को वैसा ही बना रहने दिया।

"तुमने मेरी बात सुनी" नमिता ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा।

वह थोड़े असमंजस में रहा किन्तु नमिता ने उसके हाथों को झटक दिया।

वह नमिता के पीछे आया। उसकी अंगुलियों में अपनी गंध पिरोने लगा।

मैं तुमसे प्रेम करता हूँ।

नमिता ने कहा- मुझसे प्रेम करने और सिगरेट पीने में क्या तालमेल है।

वे देर तक चुप बैठे रहे फिर उसने कहा कि क्या तुम मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकती?

नमिता ने थोड़ा धीमे किन्तु पूरे धैर्य के साथ कहा- तुम सिगरेट पीते हो इससे मुझे कोई दिक्कत नहीं है। मैं तुम्हें इसलिए नहीं रोकती हूँ कि तुम ख़ुद एक समझदार आदमी हो और तुम्हे अपना भला बुरा मालूम होना चाहिए।

ऐसा सुनते हुए उसने नमिता को चूम लेना चाहा।

नमिता ने उसे जोर से धक्का दिया- ये बदतमीजी है, मेरे पास आना है तो जाओ मुंह साफ़ करके आओ।

उसने नमिता का हाथ नहीं छोड़ा। वे दोनों बिस्तर पर गिरे हुये थे।

नमिता ने बिस्तर पर से खुद को समेटते हुये बेहद उदास स्वर में कहा- ये तुम्हारी बदसलूकी है।

उसने नमिता को धक्का देने के अंदाज़ में हाथ छोड़ दिया।

मुझे अफ़सोस है तुम अहंकार से भरे हो और एक झूठे सम्मान के लिए तड़प रहे हो। तुम मुझसे अपेक्षा करते हो कि मैं छी-छी करती हुए तुमसे अपना मुंह दूर ले जाऊ और फिर खुद को तुम्हारे सीने में छुपा लूं। तुम इसे प्रेम समझते हो और मैं इसे प्रेम का अपमान। नमिता ने ऐसा कहते हुये अपने दुपट्टे को चादर की तरह ओढा और सो गई।

उस हल्की ठंडी रात के बाद की सुबह बड़ी ताजा और बिल्कुल अजनबी थी। नमिता ने उसे गर्म चाय देते हुए कहा- इंसान सिर्फ़ टांगों में टाँगें डाल कर सोने, सिगरेट पी कर जबरन चूमने, सर झुकाए हुए नौकरी करने और नगर निगम की नालियों को कोसने के लिए दुनिया में नहीं आता है।

उस दिन नमिता चली गई थी। कब लौटेगी मालूम नहीं था। वह अकेला था। उसे लगा कि आराम है। फ्लेट में जगह उग आई है। वह अपने पांव को बैड के दूसरे छोर तक फैला कर सो सकता था।

* * *

नमिता के अपने काम थे।

उसको इस बात में खास दिलचस्पी नहीं थी कि कंपनी के लिए बिजनेस लाना क्या चीज़ होती है। यह सिर्फ वही जानता था कि जब वह करोड़ों रुपये का बिजनेस लाकर देता है तब कंपनी उसको हजारों में तनख्वाह देती है। जब वह बिजनेस नहीं लाता है तब कंपनी उसके अतीत को भूल जाती है। उसने क्या क्या किया था, इसे गिनाया नहीं जा सकता है। तुम क्या क्या ला रहे हो ये ही गिनती की बात है। यह एक तरह का सौदा था। वह इस सौदे में सर्वाधिक मुनाफे वाली जगह तक आना चाहता था। इसलिए वह इस बात को जान लेना चाहता था कि क्लाइंट क्या चीज़ है।

पिछली बार क्लाइंट के साथ मीटिंग थी। वह कैफ़े में बैठा हुआ था। क्लाइंट, अटेची टाइप के दो सहयोगियों के साथ आया। काफी यंग था। यानि इस पेशे में होने के बावजूद टार्गेट के प्रेशर में भी उसके बाल सर पर बचे हुये थे। उसने ध्यान से भी देखा कि कहीं विग तो नहीं है। मगर वे वास्तव में बचे हुये थे। उसने कहा- सर, पाँव फैला कर बैठिए। जब खुद को समझना हो तो किसी को कुछ मत समझिए।

क्लाइंट ने उसको देखा। फिर दायें बाएँ देखा और ईजी हो गया। पकाऊ-उबाऊ लंबी जानकारियों से भरे ब्योरे देने वाले जोंकनुमा दलाल नौकरों की तरह उसने कुछ नहीं कहा।

शुरू करें। थोड़े इंतज़ार के बाद क्लाइंट के ऐसा कहते ही वह सीधा हुआ और बोला। हमारी कंपनी के पास सात क्लाइंट हैं। ये सातों पिछले चार सालों में ग्रो हुये हैं। कंपनी जो काम कर के दे रही है। उसे कोई भी करके दे सकता है। कम कीमत में भी दे सकता है। लेकिन आप ऐसी बातों और वादों में न फँसिए। कितना परसेंट आप बचा लेना चाहते हैं सिर्फ वह बोलिए। आपका काम हो जाएगा।

क्लाइंट ने ज़रा भोंहें ऊंची की. एक बारगी अपने गले की मांस पेशियों को ऊपर नीचे किया। इतने बेहूदा तरीके से अटेण्ड किए जाने और इतना स्ट्रेट फॉरवर्ड होने के कारण लगभग उखड़ जाने जैसे हाल से गुज़रते हुये क्लाइंट ने बताया कि उसकी कंपनी को क्या चाहिए।

उसने कहा- हाँ ठीक है। आप भी मेरी तरह किसी और की कंपनी के लिए ही काम करते होंगे। मालिक थोड़े ही हैं। जितने में बात बन जाने का भरोसा या उम्मीद लेकर आए हैं वह बोलने में कोई हर्ज़ नहीं होना चाहिए।

एक बड़ी बिजनेस डील बिना डन हुये अटक गयी थी। वह चाहता था कि अटक जाना अच्छा है।

आई थिंक दिस मीटिंग इज़ ओफिसियली ओवर।

क्लाइंट ने कुछ कहने के लिए कई बार मुंह खोलने की कोशिश की मगर वह खुला नहीं।


उसने तुरंत कहा- जाने दीजिये सर। इस शहर में पहली बार आए हैं तो मेरे साथ चलिये और कई बार आए हैं तो ज़रूर चलिये। आपका काम हो चुका है अब मेरे साथ लंच हो जाए। ऐसी जगह चलेंगे जहां आप पिछले पंद्रह सालों से नहीं गए होंगे।

पंद्रह साल का अनुमान उसने उस क्लाइंट के चेहरे मोहरे को देख कर लगाया था। क्लाइंट कुछ कहता उससे पहले ही उसने कहा- कंपनियाँ एम्प्लोयी को लोयल होने के बदले एक बंधिया बैल बनाती है। जो उम्र भर बोझा ढोने के काम आता रहे।

वह क्लाइंट को रेलवे स्टेशन के पास की एक पतली गली में ले आया।

क्लाइंट की दोनों अटेचियाँ होटल जा चुकी थी। वे कैब से उतर कर सड़क के किनारे की पतली गली के आगे खड़े थे। मोटर सायकिलों और ऑटो रिक्शाओं ने संकड़ी गली का आधे से ज्यादा रास्ता रोक रखा था। वे किसी साँप की तरह टेढ़े मेढ़े चलते हुये एक छोटे दरवाज़े के सामने आकर रुक गए। एक ढाबा था। पतला लंबा ढाबा। मसालों की तेज़ गंध से भरा हुआ। वे दोनों आखिर की एक पत्थर की बेंच पर बैठ गए। फ़र्श चोकोर पत्थरों के टुकड़ों से बना था जबकि छत आधी मजबूत और आधी चद्दरों से ढकी रही। गर्मी से बचने के लिए चद्दरों की छत के नीचे सींक की चटाई को लगाया हुआ था। किसी भी आधुनिक रेस्तरां से हट कर ये एक ऐसी जगह थी, जो याद दिलाती कि एक ही दुनिया में अनगिनत दुनिया बसी होती हैं। खिड़की के ऊपर दीवार में छेद करके एक एग्ज़ॉस्ट पंखा लगा था। उसी की आवाज़ थी। बाकी का सारा शोर गली के बाहर से आ रहा था। खाना लगाने के लिए रखे हुये नौकरों ने उन दोनों की तरफ देखा ही नहीं।

उसने कहा- आखिरी बार बीवी के साथ जो फिल्म देखी थी उसके बारे में आपको कुछ याद है?

क्लाइंट कुछ कहता, उससे पहले ही वह मुस्कुराने लगा। उसने ख़ुद ही कहा कि मुझे तो ये भी याद नहीं कि आखिरी बार उसके साथ सोया था तब हुआ क्या था।

क्लाइंट की आँखों में चमक आती है। वह पूछता है- शादीशुदा हो?

वह कहता है- नहीं। आपके तो बीवी बच्चे होंगे ही?

क्लाइंट अपने परिवार के बारे में बताने लगता है। उसके मुंह से कोई टुकड़ा गिरते गिरते बचा। वे दोनों स्टील की दो थालियों में कागज़ी रोटियों पर रखे हुये हांडी मटन को खा रहे थे। उनकी अंगुलियाँ ग्रेवी से भरी हुई थी। वे दो बैलों से दो आदमियों में ढल गए थे।

क्लाइंट को लग रहा था कि विलुप्त हो चुके उसके हाथ वापस लौट आए हैं।

उस रोज़ क्लाइंट अगर उसे कुछ भी बिजनेस देकर न जाता तो भी वह दोपहर बहुत अच्छी थी।
***

ये कुछ महीने पहले की एक शाम की बात थी। नमिता उससे पहले आ चुकी थी।

मौसम में सीलन थी। पहने हुये कपड़े छू लें तो अचरज होता कि किसने इतना पानी हवा में घोल दिया है। यहाँ बारिशें इसी तरह आती थी। पानी बरसता ही रहता था। एक बार शुरू होता तो फिर रुकने का नाम ही नहीं लेता था। सब लोग परेशान और दुखी हो जाते तब भी बाहर लगातार बारिशें हो रही होतीं। कुदरत का हाल भी रोने की खराबी से भरे हुये दिल सा ही था। दिन बिस्तर पर रह गये टूटी हुई चूड़ी के टुकड़े से चुभा करते थे। सालों पहले की शामें अक्सर तन्हाई में दस्तक देती और मन के घिसे हुए ग्रामोफोन से निकली ध्वनियाँ अक्सर भ्रमित ही करती थीं।

उसने देखा कि नमिता ने एक नज़र भर उठाई और फिर से अपने काम में लग गयी।

नमिता और उसके बीच ऐसा कौनसा काम आकर बैठ गया है? वह आया है और उसको दो बात पूछ लेनी चाहिए। किसी के घर में आने पर कुछ बदलना तो चाहिए। उसको उठना चाहिए था। या फिर वह अपना काम रोक कर कुछ देर के लिए उसकी ओर देखती हुई आराम भी कर लेती। किसी के होने का फर्क भी मालूम होता। किसी के आने से, आने का आभास बुना जाता। वह सोचता है कि क्या वह अपने फ्लेट में आ गया है। क्या वह नमिता को देख रहा है। क्या वास्तव में वह किसी काम में लगी है।

उसकी दोपहर अच्छी थी। इसलिए कि सुबह उसने नौकरी में नयी जगह पाने या अलविदा कहने का पहला पार्ट पूरा कर लिया था। वह नमिता को बताना चाहता था कि आज क्या हुआ था. दफ्तर की केन्टीन में उसके पास से उठकर जाते हुये बॉस की टांगों में किस तरह शिकार के पीछे भाग कर खाली हाथ लौट रहे चीते जैसी चाल उतर आई थी। वह इसी बात को शेयर करना चाहता था। वह चाहता था कि नमिता से कहे कि लालच की दुनिया में आदमी एक दूसरे को नहीं वरन लालच ही एक दूजे को काटता है।

जूतों के तस्मे खोलते हुये उसे अचानक दिखाई दिया कि नमिता आँगन पर लेटी हुई है। उसकी पालथी वैसी ही है मगर पीठ आँगन पर टिकी हुई है। वह वहीं से उसको देख रही है। बिना करवट लिए हुये लगभग आँखें पीछे की ओर घुमाए हुये। जो इतना ठंडा मौसम था, उसमें कुछ गर्मी आई। उसको लगा कि नमिता का दिल धड़का है।

उसने एक कुशल तैराक की तरह लंबी डाइव लगाई। अब उन दोनों के चेहरों के बीच एक दो अंगुल की दूरी बची थी। नमिता लेटी रही। उसने भोंहों के इशारे से पूछा कैसे हो?

वह मुस्कुराया। पुरानी बची हुई शिनाख्त के सहारे कहा। तुमको खुद नहीं पता कि तुम्हारे कितने चेहरे हैं? अभी तुम यहाँ थी ही नहीं। दम भर पहले मुझे तुम्हारी यही सूरत उदास लगी। चुप्पी में ये बातें, उसकी आँखें बोल रही थी। आँखों की इन्हीं बातों को नमिता की आँखें सुन रही थी। एक ख़ामोशी थी। सीलन भरे कपड़ों की गंध थी। एक आँगन था बेहद ठंडा। उन दोनों की आँखों के बीच बसी थी एक गरम दुनिया।

नमिता ने अपनी अंगुली से इशारा किया। जिस तरफ अंगुली थी उस तरफ एक पेंटिंग थी। नमिता ने कहा कि अधूरी है। वह चौंका कि अगर उसे नमिता ने इसके अधूरे होने के बारे में न बताया होता तो वह नहीं जान पाता कि ये अधूरी है।

अपनी नज़रों को पेंटिंग से नमिता की आँखों पर लौटा कर उसने कहा- इसे समझाओ।

नमिता ने कहा- ये प्रोग्रेसिव है।

उसकी जानकारी शून्य थी। वह अगर पेंटिंग्स के बारे में जानने का काम शुरू करता तो शायद कई साल इसी काम में बीत जाते। इसलिए हर बार नमिता को कहता है मुझे नहीं समझ आता। तुम ही समझाओ। यही बात उसने नमिता से कही- समझाओ.


नमिता ने कहा- ये एक ज़िंदगी है जिसकी सारी चीज़ें ओवरलेप हो गई हैं। इसमें कोई काम परफेक्ट नहीं है। इसमें स्थायित्व नहीं है। इसकी भाग दौड़ अनियत है।

उसने नमिता की हथेली में अपनी एक अंगुली घुमाई। जैसे कोई खुले जंगल में कच्चा रास्ता चलता है। हाँ मुझे कुछ नहीं आता। अब्बू कहते थे कि गणित दुनिया की कुंजी है। मैंने गणित पढ़ी। जब इंजीनियर हो गया तब मालूम हुआ कि दुनिया में इंजीनियरों के काम के लिए जगह बची ही नहीं है। सारी दुनिया में इतना कुछ बनाया जा चुका है कि खाली जगह ही नहीं है। इसलिए मैंने आगे व्यापार पढ़ा। अब क्लाइंट पटाओ का कारोबार करता हूँ। तुम्हारी तरह सिनेमा, कहानी, कविता, मोर्चा कुछ आता नहीं है।

नमिता उसको फिर से ठंडी निगाह से देखती है। वह आँगन पर लेटा हुआ है। आँगन पर दुनिया समतल दिख रही है। जैसे कि ज़िंदगी आसान हो गयी हो। वह अगर इस बातचीत को बंद करके नमिता के और पास सरक सकता तो ज़िंदगी रूमानी भी हो सकती थी।

अपनी छोटी सी पहाड़ी लोगों जैसी आँखों को और ज्यादा मींचे हुये वह नमिता को देख रहा था।

नमिता ने कहा- मुझे लगता है कि हम सबके भीतर एक रूह होती है। हम सब उससे बातें किया करते हैं। उस वक़्त जब कुछ खास किस्म के दुख हम महसूस करते हैं। वे दुख वास्तव में हमारे द्वारा किए गए गलत कामों की परछाई होते हैं। वे हमारे भीतर उतर आते हैं। उनको महसूस करना ही आत्मा को महसूस करना है।

रूह के बारे में कही इस बात को सुनते हुये उसे सिर्फ बॉस, क्लाइंट और मसालों की खुशबू से भरी ग्रेवी की याद आई। उसने सोचा कि मैंने कुछ गलत किया होता तो शायद दुख होता। एक परछाई भी उसके भीतर उतर आती। मैं ये महसूस भी कर पाता कि आत्मा हुआ करती है। मगर उसने कोई गलत काम किया ही नहीं था शायद। या वह गलत कामों से बहुत दूर था। उसे कुछ समझ नहीं आया कि क्या कहना चाहिए इसलिए उसने कहा- हाँ तुम ठीक कहती हो।

नमिता ने इस बार आँखें नहीं फेरी। ये देखकर उसकी उदास आँखों में चमकती ख़ुशी की एक लहर आई। उसने कहा कि एक बात मैं भी तुमसे कहना चाहता हूँ। नमिता ने उसकी तरफ देखा। वह कोहनियों के बल थोड़ा आगे सरका और बोला- प्रेम करने के लिए होठों को चूमने की जरुरत होती है।

* * *

वे दोनों रसोई वाले कोने में खड़े हुये थे। वह डिश वाश करने में लगा था। नमिता कुछ पका रही थी। हरी मिर्च को चोप करके रखा हुआ था। हरे धनिया की पत्तियाँ चोपिंग बोर्ड के पास रखी हुई थी। झाग लगे हाथों पर गिरते हुये पानी के बीच उसे खयाल आया कि नमिता के होने से इस फ्लेट में नयी नयी ख़ुशबू आने लगती है।

उसने नमिता से कहा- मैं शायद कभी भूल भी जाऊं मगर अभी तो याद है कि रात के बालकनी में उतरने के वक़्त हम लगभग रोज ही बात किया करते थे। एक दिन अचानक इससे तौबा हो गयी। उस दिन के बाद मैं वैसे ही हर दिन ऑफिस में और हर रात को फ्लेट में तन्हा होता था। एक कॉफी का प्याला लिए हुये इसी खिड़की पर आकर बैठ जाता था। यहाँ से पहाड़ी के मंदिर, आर्मी केंट, एयरफोर्स बेस को देखता था. यहीं से मुझे शहर से आती रोशनियाँ दिखाई देती थीं. उन टिमटिमाती हुई रोशनियों में मुझे तुम्हारी आवाज़ सुनाई देती थी। ऐसी आवाज़ जो मेरे बेहद करीब होती। मैं उससे लिपट कर खुशबू से भर जाया करता।

नमिता उसकी तरफ नहीं देखती। वह अपना काम करती रहती है। जाने क्या बात थी मगर उनके बीच का रूमान जाता रहा। वे अब उस तरह नहीं मिलते। साथ रहते हैं मगर जाने कितनी ही बातें हैं, जिनके बारे में बात नहीं होती। वे दोनों कुछ कहना चाहते हैं मगर कोई नहीं कहता है।

उन दोनों के बीच के संवाद बर्फ की तरह जम गए हैं। कैसे पिघलेंगे नहीं मालूम। एक अवचेतन की भाषा उन दोनों को करीब लाती है मगर वह बहुत अस्थायी हुआ करती है। थोड़ी सी देर बाद वे दोनों उसी रास्ते बढ़ते जाते हैं, जो उनको एक दूजे से दूर ले जाता है। उनके बीच के गहरे प्रेम के शब्द खो गए हैं। वे स्थूल प्रकृति वाले शब्दों से ही काम चला रहे हैं। इस तरह प्रेम की भाषा कुछ अजाने कारणों से निर्जीव होती चली गई।

इसी निर्जीवता में रसोई का काम पूरा हो गया।

उनके बीच कोई उत्प्रेरक नहीं था। इसलिए नमिता ने तय किया कि उन दोनों को बात करनी चाहिए। उसने कहा- अब इस हाल में रहना मुश्किल है। मैं अपने ऊपर एक प्रेशर फील करती हूँ।




तुमको मुझसे क्या चाहिए।

मुझे तुम्हारी ज़रूरत है।

मैं हूँ न

तुम नहीं हो

कैसे रहूँ

ऐसे कि तुम मुझे मेरे लगो

अब नहीं लगता हूँ तुम्हारा

हाँ नहीं लगते हो

किसका लगता हूँ

तुम सिर्फ कंपनी और पैसे के लगते हो

तुम्हारा कैसे लगूँ

ऐसे कि कभी उन दो चीजों को छोड़ कर भी कोई बात किया करो

कैसी बात, कहो मुझको

कभी मेरे साथ शाम को बाहर सड़क पर टहलो। बेवजह, कभी मुझसे मिलने अचानक आओ। कभी मेरे साथ फिल्म देखो। कभी मेरे काम की जगह पर भी आया करो। कभी ये भी पूछो कि मैं ये सब क्यों करती हूँ। कभी ये भी कहो कि तुम ज़िंदगी से क्या चाहते हो…

नमिता ने इसके सिवा भी बहुत कुछ कहा।

उसने कुछ नहीं कहा। नमिता को अपने पास खींचा। उसे चूमने लगा। उसको बाहों में भर कर खूब सारा प्यार करता गया। नमिता ने कुछ नहीं किया। न विरोध, न समर्थन।

दूसरे दिन सुबह नमिता चली गयी थी।

* * *

सड़क पर कुछ क्रेश होने की आवाज़ आई। उसने देखा कि रात के तीन बज चुके हैं। वह खिड़की के पास से उठ कर रसोई की तरफ गया। कॉफ़ी की खुशबू में उसकी याद थी। एक उत्तेजना भरी याद। वह हमेशा ही कॉफी को पीने से पहले उसे सूँघता है। ऐसा करने से वह अपने अंदर एनर्जी फील करने लगता है। उसने मग लिया और फिर से खिड़की से बाहर झांकने लगा। आखिर ये खिड़की ही उसे बाहर की दुनिया से जोड़ती थी। वह कई बार सोचता था कि अंदर और बाहर की दुनिया क्या होती है। क्या दोनों में कोई फर्क हुआ करता है? हाँ शायद। जैसे कि उसके अंदर की दुनिया में जो नमिता थी उसे उसकी बाहर की दुनिया के लोग नहीं जानते थे। तो क्या वह अंदर की दुनिया के बारे में सोचना भूल जाता है?

उसे अचानक खयाल आया कि क्या नमिता सो गई होगी ?

नमिता ने उसे आज फिर कहा कि वह जब चाहे फोन कर सकता है। मोबाईल उसके हाथ से दूर नहीं था। वह चाह रहा था कि फोन कर ले लेकिन दिन की मुलाकात के बारे में सोचता रहा। वह आज फिर कई सप्ताह के बाद नमिता से मिल कर आया था। उसने नमिता को नहीं कहा कि वह लौट आये। ना ही नमिता ने कहा कि तुम्हारे बिना कितना अकेला लगता है। वे दोनों कॉफ़ी हाउस में बैठे रहे। नमिता ने कॉफ़ी लेने से पहले कहा- देखो ये हमसे दो कॉफी के कितने सारे रुपये वसूल कर लेंगे। हम कहीं भी बैठ कर बात कर सकते हैं। तुम्हारे अंदर एक विलासिता।।

इस बात को उसने अधूरा छोड़ दिया। इसलिए कि वह बहुत दिनों से उससे दूर थी। वह नहीं चाहती थी कि ये दो पल का मिलना भी ऐसे ही उसके बारे में उन शिकायतों में बीते। वे शिकायतें जिनको वह कभी सुनता ही नहीं है। वह उसकी तरफ ऐसे देखता है जैसे कि तुमने कोई नई बात नहीं कही है। तुम हमेशा ऐसी ही बातें करती हो। वह शायद कहना चाह रहा था कि अगर तुमको जल्दी हो तो लड़ लो। ये एक और काम पूरा हो जाए। ऐसा सोचते हुये वह मुस्कुरा रहा था।

नमिता ने कहा- मैं तुम्हें एक कहानी सुनाती हूँ। एक पांच साल के लड़के का बाप मर जाता है। उसकी माँ लड़के के चाचा से शादी कर लेती है। वहाँ की रीत शायद ऐसी ही होगी। उस लड़के के पांच और भाई बहन दुनिया में आ जाते हैं। वह अपने घर का खर्च उठाने के लिए माँ और नए पिता के साथ दस साल की उम्र से मजदूरी करना शुरू करता है। मजदूरी करने के साथ ही स्कूल भी जाता है। वह चाहता है कि उसकी बहन विश्वविध्यालय तक पढने जाये क्योंकि वह नहीं जा पाया। ऐसे सपनों को दिल में लिए गलियों में फेरी लगा कर सामान बेचते हुए वह बाईस साल का हो गया। एक महिला ऑफ़िसर उसे कहती है तुम एक गैर कानूनी काम कर रहे हो। ऐसा कहते हुए वह उसको सामान बेचेने से रोक देती है। एक महीने के कुल घर खर्च से भी अधिक की राशि में उधार लाये गए सामान को ज़ब्त कर लेती है और उसे नपुंसक कहते हुए थप्पड़ मार देती है"

नमिता ने देखा कि वह सुन रहा है। नमिता ने आगे कहा- तुम कॉफी पीते रहो। मैं कहानी पूरी करने के बाद कॉफी लूंगी। वह लड़का सबसे बड़े स्थानीय अधिकारी को शिकायत करने जाता है। लेकिन उसकी कोई शिकायत नहीं सुनता। हर दफ्तर से उसे लताड़ते हुए बाहर धकेल दिया जाता है। उसके पास जीने का कोई रास्ता नहीं होता है। तो रेल के आगे कूद कर कट जाता है या फिर तालाब में डूब जाता है या फिर फाँसी खा लेता है"

नमिता ने पाया कि उसका स्वर काफी ऊँचा हो गया है और लोग उसे नोटिस कर रहे हैं। नमिता ने सांस ली और पूछा- ये किस शहर की कहानी हो सकती है?
अहमदाबाद की?
उसने कहा- हाँ हो सकती है।
जोधपुर की, मदुरई, सतना, भागलपुर, जेपोर... ऐसे बीसियों नाम बोलने के बाद नमिता उसकी ओर देखने लगी।
उसने कहा- हाँ हर शहर की... और हो क्या सकती है, ऐसा ही हो रहा है।

नमिता ने कॉफ़ी का मग उठाया और पीने लगी। उसकी आँखों में कोई आशा उभर रही थी।

इसके बाद वे दोनों एक दूजे को देखते रहे। फिर नमिता ने अपना सर सोफ़े पर टिका लिया।

कॉफ़ी पी कर बाहर सड़क पर आते ही नमिता उसके करीब होकर चलने लगी। नमिता ने एक बार उसके सिर के बालों में अंगुलियाँ घुमाई।

"मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ लेकिन तुम मेरे साथ रहना नहीं चाहते हो”

वे दोनों पैदल चल रहे थे। उनको अपने-अपने रास्ते जाने के लिए अभी सौ से भी ज्यादा कदम एक साथ चलना था। उसने नमिता का हाथ अपने हाथ में लेते हुये कहा- मैं तुमसे बेहद प्रेम करता हूँ।

नमिता ने अपना सर ऐसे ऊपर किया जैसे किसी झूठ बोल रहे अपराधी को कोई देखता हो। नमिता ने कहा- अच्छा तो फिर मैं तुम्हारे साथ इसलिए नहीं रहती कि तुम्हें अभी तक इंसान का सम्मान करना नहीं आता" उसकी आवाज़ में भारीपन था और वाक्य पूरा होने से पहले ही कई बार टूट गया था।

जब उन दोनों को एक दूजे का हाथ छोड़ देना था तब नमिता ने कहा- "हालाँकि उस लड़के का नाम तारेक अल तैय्यब मुहम्मद बाऊज़िज़ी था। लेकिन नाम और देश से क्या फर्क पड़ता है। हमारे यहाँ भी पिछले साठ सालों से लोग ऐसे ही मर रहे हैं"

नमिता ने अपने जूट के थेले से लाल रंग का सूती स्कार्फ निकाल कर सर पर बाँधा और धूप में ओझल हो गई।
* * *


रात वह जाने क्या सोचते हुये सो गया था। मग में आधी कॉफी छूट गई थी। सुबह की आवाज़ें बीस मंजिला इमारतों की छत तक चढ़ आई थी। वह घर से बाहर जाने को तैयार बैठा था। दो एक बार उसने ब्रेड पेकेट की ओर देखा फिर एकाएक उठा और लिफ्ट से नीचे उतर आया।

ऑफिस के दरवाज़े पर उल्टे लटके हुये पंखे ने उसकी सारी धूल झाड़ दी। उसने जो खेल शुरू किया था। उसका नतीजा आज ही आना था। वह ठिठका। नाटे कद वाले सीनियर से सामना होने से पहले उसने कुछ सोचा। क्या वह इस बिसात पर अपनी नौकरी को दांव पर लगा कर अगली सीढ़ी चढ़ जाने की कोशिश करेगा। वह ठिठके हुये कदमों से बढ़ता गया। क्या उसको इस नौकरी की ज़रूरत है। क्या वह इसे खोकर जो चाहता है वह पा सकेगा।

वह उस कमरे में था। जिस कमरे में आने का पक्का वादा करके गया था। उसे मालूम था कि अब तक ये सब बताया जा चुका होगा कि उसका ट्रेक रिकॉर्ड कैसा है? वह किस तरह से क्लाइंट को ला सकता है। उसकी गणित कैसी है। उसका डाटा और बेलेन्स पर कैसा कमांड है। इन सब बातों पर विचार करने के बाद कंपनी ने तय कर लिया होगा कि उसका क्या किया जाना है।

बॉस उसे देखकर मुस्कुराया नहीं। बॉस के न मुस्कुराने से उसे कभी फर्क नहीं पड़ा। वह एक बैल था जो अपनी कमाई ही खाता था। वह कहीं भी एक अच्छा बैल होकर कमा कर खा सकता था। कोई भी खेत उसके होने से खुश ही होता। इसलिए बॉस का निर्विकार बैठे रहना उसके लिए कोई मयाना न रखता था।

उसने दो बातें सोची। पहली कि नमिता घर लौट रही है दूसरी कि अब्बू जिन आदमियों को टिमटिमाती रोशनी हो जाना कहते थे, वह वही हो जाए।

बॉस ने कहा- आपकी छुट्टी मंजूर।

उसने कर्ट्सि के नाते एक मुस्कान फेंकी। कोई चीज़ उसे रॉकेट की तरह ऑफिस से बाहर धकेलने लगी। वह उठ कर बाहर आ गया। उसने नमिता को फोन लगाया। शोर शराबे के बीच उसे सिर्फ़ इतना सुनाई दिया, कमीश्नर ऑफिस। यहाँ से आयुक्त का कार्यालय बीस मिनट के फासले पर था। वह ट्रेफिक के बीच से स्पाईडर मैन की तरह निकलता हुआ दौड़ने लगा। वह सोच रहा था कि काश उड़ सकने का हुनर भी इंसान के पास होता।

कमीश्नर कार्यालय के बाहर कचहरी के खुले मैदान में अनगिनत तख्तियां हवा में लहरा रही थी। बड़े-बूढ़े, नौजवान-नवयुवतियां और स्कूलों के बच्चे अपने गणवेश में कतारबद्ध बैठे थे। भोंपुओं की आवाज़ें ट्रेफिक के शोर को पछाड़ रही थी। हवा में लहराती हुई मुट्ठियाँ थी। एक लयबद्ध शोर था। वह बहुत बेचैन था और उसकी नज़रें नमिता को खोज रही थी किन्तु वहाँ असंख्य महिलाओं ने लाल रंग के स्कार्फ बांधे हुए थे।

21 comments:

  1. bahut achhi kahani ... sach ke libaas me skarf bandhe hue

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  2. शुक्र है शिल्प ने कथ्य का अतिक्रमण न करते हुए उसे खुलकर सांस लेने दी.कहानी बेहतरीन है...

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  3. बेहतरीन लगी यह कहानी ....क्या और कमेन्ट करूँ सभी समझ नहीं आ रहा है .....बाद में बात करते हैं

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  4. स्तब्ध अँधेरे में बनती कहानी।

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  5. कहानी ने सब कह दिया।

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  6. सुन्दर कहानी, कोफी और सिगरेट के धुंए से लेकर स्कार्फ़ तक. कहानी एकदम ताज़ा है और तेज भी.

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  7. अक्सर वे चीज़ें ही हमसे टकराती रहती है जिनसे हम बच के रहना चाहते हैं.
    kya baat kahi hai pate ki bilkul ,na bhulne waali umra bhar jo hum bhi jaante hai magar aapki kahani ise adhik dohraayegi .

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  8. Namita ka character maano soch ko naye aayam deta h... aur aapko padhna to hamesha se hi ek learning jaisa raha h mere lie... ummeed h k aage bhi rahega... keep writing :)

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  9. कोर्स की किताबों में भी शहीदों के पन्ने छोटे और उद्योगपतियों पन्ने के बड़े हो गए थे.शुक्र है की कुछ पन्ने बचे है...atleast जब तक आप जैसे लिखने वाले है
    बात अगर पसंद की हो दो सेकंड से भी कम अवधि में उसके दिमाग तय कर लेता है की उसे क्या करना है...खिड़की से देखने पे दुनिया सुंदर ही दिखती है..खिड़की के बाहर हकीकत घात लगाये बैठी रहती है..

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  10. बहुत ख़ूबसूरत कहानी !
    कहानी की शुरुआत में ऐसा लगा ही नहीं कि अंत ऐसे होगा
    बेहद ख़ूबसूरती और सहजता से कहानी ने टर्न लिया और बेह्तरीन अंत हुआ
    बधाई !

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  11. बेहतरीन कहानी ...कॉफ़ी और स्कार्फ इसे अनायास ही आज के दौर से जोड़ रहे हैं..... अच्छा लगा पढ़कर

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  12. बेहतरीन लगी यह कहानी| धन्यवाद|

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  13. सोच रही हूँ कि कहानी इससे आगे भी तो नही......!!

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  14. संवेदनशीलता की नदी सी है... भिगो जाति है सर से पाँव तक ...और कई सत्य मुट्ठी में थमा ... जैसे
    कोर्स की किताबों में भी शहीदों के पन्ने छोटे और उद्योगपतियों पन्ने के बड़े हो गए थे.
    अक्सर वे चीज़ें ही हमसे टकराती रहती है जिनसे हम बच के रहना चाहते हैं.

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  15. a beautiful gift on may day !!!
    sukhad sanyog ki maine aaj hi ise padha.

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  16. aapki rachnaayein padh kar sukhad mahsoos hota hai...please likhte rahiye!!

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  17. किन्तु असंख्य महिलाओं ने लाल रंग के स्कार्फ बांधे हुए थे.
    ....................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................samjh gaye naa

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  18. Bahut dino ke baad Hans aur Kathadesh ke alawa kahin kuchch achcha padhne ko mila...dhanyawad hindi aur umda sahitya ko jeevit rakhne ke prayas ke liye!

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