रसोई की खिड़की से उन पर हल्की सफ़ेद रौशनी पड़ रही थी। वे चमेली की बेल पर लगे हुए फूल थे। दूधिया जुगनुओं की तहर चमकते हुए। बेल जो झाड़ी जैसी हो गई थी। रात की स्याही में ज़रा उचक कर गौर से देखो तो लगता था कि उसने एक घात लगाये हुए वन बिलाव की शक्ल ले ली है। वे अनगिनत फूल थे। दीवार के सहारे चमकते हुए और नीचे कहीं धुंधले से दिखते हुए। नैना की ज़िन्दगी की तरह बिना करीने के खिले हुए। जहाँ मरजी हुई खिल आये। खिड़की की वेल्डिंग पर, मुख्य दरवाज़े की कड़ियों के बीच और लोहे की कोबरा फेंसिंग पर भी खिले हुये। वे फूल हरदम मुस्कुराते रहते थे। नैना, जब से इस घर में आई तब से ही देख रही है कि फूल उसे चिढाते हुए उगा करते हैं। वह इसके प्रति ज्यादा रिएक्ट नहीं करती थी कि लोग समझेंगे पागल है। जो चमेली के फूलों से नफ़रत करती है। इसी सदाशयता का फायदा उठाते हुये चमेली के फूल हर साल खिलते और झड़ कर उसके पांवों में आ जाते। बैरी हवा भी उनका ही साथ देती। फूल आँगन में हवा के साथ तैरते हुये उसके पास चले आते। वह उचक कर अपने पैरों को लकड़ी की कुर्सी के ऊपर उठा लेती जैसे कोई सांप सरसरा गया हो।
उस घर में बहुत ज्यादा लोग नहीं थे। नैना की उम्र से बीस साल बड़े एक सरदार जी थे। कद कोई छह फीट, खिचड़ी दाढ़ी और बाल, गठीला बदन लेकिन किसी अनजाने भर को ढोता हुआ। निपट अकेले, वह जब पहली बार इस घर का दरवाज़ा खोल कर अंदर आई, तब वे बिना किसी को बुलाये चुग्गा डाल रहे थे। घर में कबूतर थे। वे कबूतर सरदार जी को देख कर शालीनता से संवाद कर रहे थे। उन कबूतरों के बैठने वाली खिड़की से एक दरिया की पतली धारा बहती हुई दिख रही थी। अपने आस पास हरियाली लिए हुये वह संकरा बहाव बेहद खूबसूरत दिख रहा था। जैसे किसी ने दीवार में कोई सजीव पेंटिंग लगा रखी हो। वे कबूतर इतने शांत थे जितना कि पास ही चुपचाप बहता हुआ दरिया।
नैना घर के बरामदे में खड़ी थी। सरदार जी ने कबूतरों की तरफ से ध्यान हटते ही उसकी तरफ देखा। उन्होंने सर उठाया और पूछा "कहिये..."
नैना ने उनको नमस्ते किया फिर अपनी गोद से निकी को उतारा और कमर सीधी करते हुए कहा। "मुझे मालूम हुआ कि आपके यहाँ रहने को जगह मिल जाएगी। मुझे किराये पर एक कमरा चाहिए"
उन्होंने शायद सुना नहीं अगर सुना था तो भी वे बरामदे से घर के अंदर चले गए। सरदार जी के अंदर जाते ही नैना के पास वही समस्या आ खड़ी हुई कि फिर जाने कितने घरों में मकान के लिए पूछना होगा। लेकिन वह वहीं बैठी थी। नैना को उस समय वह चमेली के फूलों वाली झाड़ी नहीं दिखाई दी वरना वह उठ कर चल देती। बरामदा दो सीढ़ी ऊपर था। पक्के सीमेंट से बना हुआ फर्श था। एक हाथ उस पर रखते हुए नैना को लगा कि बाहर गर्मी कुछ ज्यादा ही है और वह निकी के पास बैठ गयी। मकान मालिक का यूं अंदर चले जाना एक तरह से मना ही था। नैना थकी हुई थी और उसने शायद सोचा कि आगे कोई और घर देखना नहीं है इसलिए कुछ देर सुस्ता कर चली जाये।
कैसा अजब समय था कि सड़कें, गलियां, दीवारें, कहवाखाने, सिनेमाघर और ऐसी ही सब चीजें जिन्हें वह बरसों से जानती थी, सब अजनबी हो गए थे। अब कोई एक कमरा ऐसा न था, जो उसका इंतज़ार करता हो।
वह एक टांग बरामदे से नीचे और दूसरी को मोड़ कर निकी को गोदी में लिए बैठी हुई साहस बटोर रही थी कि कल फिर सायमन को कहेगी कि नया घर खोजो प्लीज़। सायमान उसके लिए बहुत सारे खाली घर तलाशता रहता था और नैना हर सप्ताह के आखिरी दो दिन उन घरों को देखने जाती थी। कभी घर पसंद नहीं आता कभी घर में रह रहे लोग पसंद नहीं आते। किराए का घर हज़ार समझौते मांगता है। नैना भी इस बात को जानती थी मगर कम से कम ऐसी जगह तो मिले जहां हर पल किसी चिंता से न घिरा रहना पड़े। ज़िंदगी है तो दुख अवश्यंभावी है। सुख कहाँ होता है? सीपी को उसके खोल में या फिर कछुए कि मजबूत पीठ के नीचे दबा हुआ। उसने चारों तरफ नज़र दौड़ाई कहीं सुख नहीं था। शांति थी, असीम शांति। फिर उसे याद आया कि शांति भी सुख का एक स्वरूप है। उसने सोचा कि क्या वह सुख से घिरी बैठी है?
एक आवाज़ आई। "ये लो..." सरदार जी ही थे। एक हाथ में प्लास्टिक की ट्रे लिए हुए। उसमें एक दूध का छोटा ग्लास, दो बिस्किट और एक पानी की बड़ी बोतल रखी हुई थी। वह हतप्रभ थी कि अगर थोड़ा सा और न रुकती तो अब तक पोस्ट ऑफिस के पार जा चुकी होती। उसे अगली तीन बातों से अहसास हुआ कि अगर वह सचमुच चली जाती तो इस दूरी को सुख और दुःख के सेंटीमीटर में नापना कितना मुश्किल हो जाता। पहली बात सरदार जी ने कही "मेरा नाम तेजिंदर सिंह है, मेरे दो बेटे हैं। वे विदेश में रहते हैं। पत्नी कई साल पहले चल बसी। खाना खुद बनाता हूँ और शाम को रोज़ ही ब्लेक रम के दो पैग नियम से लेता हूँ। इस घर के किराये से कबूतरों के लिए चुग्गा आ जाये ये मुझे पसंद नहीं फिर भी तुम चाहो तो यहाँ रह सकती हो" इतना कह कर, वे अपने चेहरे के लिए उपयुक्त धैर्य ढूँढने लगे।
निकी दूध पी कर खुश हो गई। उसने आधा बिस्किट गिरा दिया था और आधा कमीज से पौंछ लिया था। नैना ने कहा। "रहने को जगह कहाँ मिलेगी?"
तेजिंदर सिंह ने घर पर एक विहंगम दृष्टि डाली। जैसे अपने ही घर को बरसों बाद देख रहे हों। हर कमरे को, खिड़की को गौर से देखा। जैसे खिड़की, दरवाज़ों और दालान से पूछ रहे हों कि ये औरत तुम्हें बरदाश्त कर सकेगी? फिर बोले "दांई तरफ मेरे छोटे बेटे ने अलग पार्टीशन करवा लिया था। दो कमरे और किचन हैं उस तरफ। उसी में लेट-बाथ भी हैं। घर में होते हुए भी दोनों बहुत अलग है। एक ही घर में खड़े हुए इन दो घरों के बीच में बस एक छोटी सी खिड़की है। तुम्हें तकलीफ हो तो उसे बंद कर देना।"
इस दूसरी बात के बाद नैना ने तेजिंदर सिंह से मुखातिब होकर कहा "हर शाम एक लड़की आया करेगी, निकी को रखने के लिए। वह चार घंटे रहेगी आपको एतराज़ तो नहीं होगा?"
"तुम्हारा नाम क्या है?"
"नैना"
"नैना, मैंने एतराजों को कनकोवे बना कर उड़ा दिया है, मगर ज़रा देर से..." ये कहते हुए तेजिंदर सिंह अंदर चले गए।
एक फ़ौरी यानि तात्कालिक मुसीबत का हल होते ही पूरी ज़िन्दगी आसान लगने लगती है। नैना ने भी दूसरा पांव सीधा कर लिया और निकी को गोदी से उतार दिया। उस दिन के बाद से ऐसे ही कई साल बीत गए। अब यही वह घर था जिसकी छत के तले वह सो जाया करती थी।
***
यही तो ज़िद थी उसकी कि मुझे घर नहीं चाहिए। क्या एक बात पर दो लोग ज़िन्दगी को अलग रास्तों पर ले जा सकते हैं? क्या हज़ार सहमतियों को भुला कर एक असहमति को याद रखा जाना अच्छा है? उसके मन में ऐसा गुमान भी नहीं था कि ये एक असहमति वाली बात साथ रहेगी बाकी सब छूट जायेगा।
वह प्रेम करने का समय नहीं था। दिन के साढ़े तीन बज रहे थे। अभी दो घंटे और बाकी थे लेकिन उसने उसी समय उसे देखा था। वह गमलों को सरका रहा था। कैफ़े के शीशे लगे मुख्य दरवाज़े के बाहर दोनों तरफ तीन स्टेप्स में गमले रखे हुए थे। उनमें भांत-भांत के फूल खिले रहे थे। उसने दो गमलों के बाद तीसरा सरकाया और अपने लिए जगह बना ली। नैना ने उस समय नहीं सोचा कि जो आदमी दूसरों को सरका कर जगह बना रहा है, कब तक उसका साथ देगा। वास्तव में ये प्रेम करने का समय नहीं था फिर भी उसने दिन के ठीक साढ़े तीन बजे ही उसे पहली बार देखा था। ब्लू कलर की डेनिम जींस और लाल रंग का बदरंग कुरता पहने हुए। उसने अपनी दाई तरफ में गिटार का कवर रख कर उस पर मोड़ा हुआ घुटना रख लिया फिर उसने बायीं जांघ पर रखते हुए गिटार के एक तार को हल्के से छू भर दिया।
ज़िन्दगी में वक़्त का कोई हिसाब नहीं है। कभी आप एक गुड्डे गुड्डी के नाचते हुए खिलौने को दिन भर देखते हुए विंड चाइम का संगीत सुन सकते हैं और कभी एक पल भी भारी हो जाया करता है। उन दिनों नैना के पास विंड चाइम को सुनने का समय था। वह रात नौ बजे कैफ़े से निकलती। तब वह अपने गिटार को केस में डाल रहा होता। वह कई सारी छोटी छोटी चीज़ों को संभाल रहा होता। यह एक तरह से दुकान बंद करने जैसा काम था मगर चूंकि वह एक आर्टिस्ट था इसलिए इस काम की तुलना यूं करना उचित नहीं था। वह अपनी पोशाक में भी कुछ कम ज्यादा किया करता था। आखिर में वह उसी तरह का हो जाता जैसा दोपहर साढ़े तीन बजे दिखा करता था।
सड़क सबके लिए थी। अभिजात्य और निम्न वर्ग के लोगों में भेद करना कठिन था कि उस दौर में लोग जैसे थे, वैसा दिखना नहीं चाहते थे। रईस लोग चप्पल पहने हुये घूमा करते थे। गरीब लोग अपने फटे पाँवों को पुराने मगर ज्यादा पोलिश किए हुये जूतों में छिपाए हुये घूमते थे। ऐसे ही लोगों से भरी हुई उस सड़क पर वे दोनों एक साथ चलते थे। एक दिन बस स्टाप की बैंच पर देर तक बैठे रहे। हवा में कोई मादक गंध न थी। सूखे पत्तों से ज्यादा सिगरेट की पन्नियों का शोर था। शहर भर के लोग जिंदगी को धुआँ बना कर उड़ा देना चाहते होंगे। नैना और उसके बीच धुआँ न था। बस कोई एक खास किस्म की गंध थी। वही उन दोनों की पहचान कायम करती थी। एक ऐसी पहचान जो निरंतर गाढ़ी होती चली जा रही थी।
इस पहचान को गाढ़ा करने में बहुत सारी चीज़ें और घटनाएँ शामिल थीं। वे घटनाएँ यूं तो रोज़मर्रा में सबके साथ होती हैं मगर कुछ लोगों के लिए खास हो जाया करती थीं। जैसे कि सिम्पल कॉफी का ऑर्डर देने के लिए भी मेन्यू कार्ड पर दोनों का हाथ एक साथ जाना और फिर एक साथ ही वापस खींच लेना। जैसे बस की टिकट के लिए एक साथ ही पर्स खोलना और एक साथ ही वापस रख लेना। जैसे विदा होते वक़्त एक दूसरे के ज़रा करीब होकर चलना। आहिस्ता से ज़िंदगी आदमी को वो सब बातें भुला देती है जिनको वह एहतियात के तौर पर साथ रख कर रिश्ते की शुरुआत करता है। जैसे कम और संजीदगी से बोलना। खाने पीने में पूरे सलीके को ओढ़े हुये रखना। अगले के सम्मान में शालीन बने रहना। लेकिन भीतर का असली चेहरा हमेशा इन सब चेहरों को उतार फेंकने के लिए उकसाता रहता है।
वे खूबसूरत दिन थे। उनका अनावृत होते जाना और भी सुंदर हुआ करता था। ऐसे असंख्य दिनों की स्मृतियाँ नैना के साथ ही रहा करती थी।
***
नैना ने झट से उफन रही दाल पर रखे ढक्कन को उठाया। अंगुली जल गई। ऐसे ही उसने भी एक बार जली हुई अंगुली पर चमेली के फूलों को बाँध दिया था। हँसता था, खिल उठेगी अंगुली फूल की तरह। मगर अगली सुबह उसी अंगुली पर एक फफोला निकल आया। अब भी रसोई के बाहर रौशनी में फूल चमक रहे थे। वे ही नाकारा फूल। उसकी याद के, उसके साथ के सफ़ेद फूल। वह जब हाथ पकड़ता तब दौड़ने सा लगता था। नैना का साथ पाते ही उसे कोई जल्दी याद आ जाती थी। नैना के बिना वह अक्सर बास्केट बाल के खम्भे से टेक लिए गिटार बजाते हुए दिन बिता देता था। ये बास्केट बाल का मैदान सुबह दस से शाम तक खाली पड़ा रहता था। इसके पास खिलाड़ियों के लिए पानी पीने की टंकी बनी हुई थी। आराम करके के लिए शेड भी थी। उसे यही दो चीज़ें चाहिए होती थी। बाकी सब उसके झोले में रहा करती थी।
उसके पास एक चमेली के फूलों की तस्वीर वाला थर्मस था। इस थर्मस में ब्लेक कॉफ़ी भरी रहती थी। दिन चाहे कड़क हो या ठंडा उसकी कॉफ़ी का रंग कभी नहीं बदलता था। एक दोपहर उसने ख़ास नैना को बुलाया था। वह जाने क्यों हमेशा चाहता था कि नैना उस बास्केटबाल के मैदान में आए। वहाँ शेड के नीचे आराम से बैठ जाए और वह खंभे की टेक लिया हुआ, लातिन अमेरिकी चरवाहों की कोई धुन बजाए। जैसे ही नैना वहाँ पर आती उसकी धुन बदल जाती। उसने जो सोच रखा होता था, वह सब कुछ भूल जाता। ये अजीब बात थी कि प्यार की शुरुआत में उदास गाने याद आने लगते। एक आशंका हमेशा प्रेमियों को मिलने से पहले ही घेर लेती है कि वे बिछड़ जाएंगे। वह भी चरवाहों की उल्लास भरी धुन की जगह उड़ीसा की लोक गायिकी के जादू से सजा हुआ सचिन देब बर्मन हो जाता। उसका गिटार गहरी उदास लोक धुन बजाने लगता।
एक दोपहर नैना को देखते ही उठा और हाथ पकड़ कर भागने लगा। वह बेतहाशा भागता गया। नैना उससे हाथ छुड़ाने की जगह लोगों को देखने लगी कि वे उन दोनों को इस तरह भागते हुये देख कर कैसा मुंह बना रहे हैं। वह इन सब बातों से अनजान बना हुआ सिर्फ दौड़ता गया। वे जहां जाकर रुके, वह एक पॉश कॉलोनी का पुराना बंगला था। वह दरवाज़ा खोलते हुए दीवार से सटी खड़ी चमेली की बेल दिखाने लगा। नैना ने याद किया कि वह वाकई पागल था। अव्वल दर्ज़े का पागल कि कुछ एक फूलों को दिखाने के लिए इस तरह उसे भगा लाया था। वह खड़ा देखता रहा और नैना सोचती रही कि अभी इस घर से कोई आएगा और उन दोनों को दुत्कार कर बाहर कर देगा।
***
इस घर में रहते हुए नैना को दस साल हो गए। इन दस सालों में तेजिंदर सिंह ने कभी उस छोटी खिड़की से कोई चीज़ नहीं ली। वह खिड़की खुली है या बंद है इस पर कभी किसी का ध्यान नहीं जाता था। नैना कहती, आज मैंने कुछ आपके लिए बनाया है तो तेजी साहब कहते बड़े दरवाज़े से आओ। ये चोर खिड़कियाँ तो मुझे रिश्तों की जेल सी लगती हैं। नैना लगभग रोज़ उनका खाना बनाती और रोज़ ही ये संवाद होता था। इससे ज्यादा वे कुछ नहीं बोलते थे। खाने की परख नहीं करते थे, जैसा था वैसा था। निकी के साथ नहीं खेलते थे। उससे उतना ही नाता था, जितना कि गुटर गूं करते कबूतरों से। नैना को कुछ अधिकार स्वतः प्राप्त लगते थे यानि वह पिछले दस सालों में इसी घर में रहते हुये इतना अधिकार पा चुकी थी कि इस बेल को कटवा सकती थी। ये चमेली की गंध उससे दूर हो भी सकती थी मगर ऐसा हुआ नहीं। एक बार उसने चमेली को पास खड़े हो कर देखा था फिर यकायक लगा कि कोई देख रहा है। सरदार तेजिंदर सिंह उसे और चमेली को गूढ़ अर्थों में एक साथ देख रहे थे। वह सहम गई और फिर कभी उस बेल के साथ सट कर खड़ी नहीं हुई।
नैना कुछ भी न भूलने को अभिशप्त थी। उस दिन शहर में हादसा हो गया था। उसने किसी अधिकार से उसे रोक लिया। आज की रात मत जाओ। एक कमरे का फ्लेट। स्नान घर को छोड़ कर सब उसी में था। एक कोने में रसोई, एक में बेड रूम, एक में बालकनी। वे उस रात सोये नहीं थे। दो साल बाद नैना खुश थी। वह खुश नहीं था। उसको अचानक से लगने लगा कि ये बंधन है। ये पथरीली चट्टान है। ये इंसानी आज़ादी के साथ धोखा है। सच में वह वही था, जो गमलों को सरका कर अपने लिए जगह बना रहा था। गिटार बजता था मगर उसकी धुनें क्षण भर बाद व्योम के धूसर अंधेरे में खो जाती थी।
आखिर एक दिन नैना अनकही बातों को सुनते सुनते थक गयी।
"मैं बोझ हूँ तुम्हारे लिए, ये दो साल की बच्ची बोझ है, तुम्हारे लिए"
वह चुप रहा। खिड़की पर चला गया। नीचे गली में बाहर बच्चे खेल रहे थे। उन बच्चों के पास खेलने के लिए जगह नहीं थी। वे कारों और स्कूटरों के बीच अपनी जगह बना कर खेल रहे थे। उनमें चाहत थी कि खेला जाए इसलिए कम जगह में भी बहुत सारी जगह निकल आई थी। बच्चे हर बाल को फैंक कर और हिट करके खुश हो रहे थे। वह खुश नहीं हो पा रहा था। वह चाहता था कि अभी सीढ़ियाँ उतर कर उन बच्चों के पास चला जाए। वह खुद वापस एक बच्चा बन सके। वह जिंदगी के इन असमतल रास्तों पर कोई बोझ उठा कर नहीं चलना चाहता था। खिड़की से वापस लौटा तो वही एक साल की बच्ची और नैना चुप बैठे, उसके उत्तर का इंतजार कर रहे थे।
"मैं ऐसे परिवार बना कर नहीं रह सकता..."
"मैं बिना घर के नहीं रह सकती"
"मैंने पहले ही कहा था कि मुझे घर बनाने से नफ़रत है"
"मगर ये तो नहीं कहा था कि बच्चों से भी है..."
एक चुप्पी के बाद वह बोला। "ये तुम्हारी ज़िद थी, और घर भी... मैं इसका भागीदार नहीं हूँ" वह टहलने लगा जैसे उत्तर का इंतजार कर रहा हो।
"ओ के, तुम जा सकते हो"
"तुम कहाँ जाओगी?"
"ये पूछने का हक़ उसको नहीं है, जो छोड़ कर जाना चाहता है"
"मेरा ठिकाना नहीं है इसलिए बता नहीं सकता, मगर तुम तो घर बनाओगी ना"
"नहीं, तुम ये अधिकार नहीं पा सकते कि लौटने के लिए एक पता रखो और मैं..."
वे अलग हो गए थे। शामें यूं ही गुज़रती रही। एक कैफ़े था। जहाँ वह पार्ट टाइम जॉब को फुल टाइम के तरीके से करती। गिटार बजाने वालों की जगहें डी जे ने ले ली थी मगर उसकी ज़िंदगी की खाली जगह में कुछ धुनें ठहर गयी थी। जैसे बास्केट बाल का पोल पुराना होने के बावजूद गिरता नहीं था।
***
नैना ने एक बार अपने कंधों को पीछे की ओर झुकाया। निकी टेबल पर अपने खिलौने सजा रही थी। निकी ने जाने कैसे एक आदत बना ली थी कि वह अपना होमवर्क स्कूल में ही पूरा कर लिया करती थी। नैना ने सोचा, काश उसने भी एक आदत बना ली होती कि वह जाने कि ज़िद करता और वह हर बार चुप रह कर उसे रोक लेती। कितना अच्छा होता कि उसकी यादें गिनी चुनी चीजों में रह जाती। ऐसा नहीं हुआ। जिन चीजों को को वो पसंद करता था, उनमें वह याद आता था और जिनको नहीं उनमें भी।
तेजिंदर सिंह के घर में वह बिना किसी रिश्ते और किराये के दस साल से रह रही है। पहली बार जब किराया लेकर गई थी तब तेजिंदर सिंह बोले। इसे अपने पास रखो, मैं ले लूँगा। इसके बाद दूसरी बार गई तब भी यही कहा था। तीसरी बार उन्होने कहा कि जाने क्यों मुझे कोई बात कहनी आती ही नहीं है। मैं किसी को अपने मन की बात समझा नहीं पाता हूँ। तुम तीन महीने से यहाँ रह रही हो। तुम मुझे जान न पाई... इसके आगे भी वे कुछ कहना चाहते थे मगर अचानक से रुक गए।
इसके सिवा वे कभी उससे बात नहीं करते बस जवाब देते हैं। क्या वो ऐसे नहीं रह सकता था। कोई बात न करता। चुपचाप अपना काम कर लेता। हमारी कोई मदद न करता, बस वह होता। कभी उदास कभी खुश, कभी कभी होता।
***
शाम उदास, सुबह खाली और दिन पीले... बस बीतते गए। इधर साझे घर में तेजी साहब कबूतरों की कौनसी पीढ़ी को पाल रहे थे, पता नहीं था। नैना ने दाल को बघार लगाया। चमेली के सफ़ेद फूलों की तरफ एक उजड़ी हुई निगाह डाली। सलाद को सलीके से रखा और रसोई से चल पड़ी। दरवाज़ा खुला था। तेजी साहब तहमद और कुरता पहने चुप बैठे थे। सामने टी वी पर कोई पंजाबी गीत बज रहा था। इस गीत में एक नौजवान सरदार उछल कर गा रहा था। लड़की पीले फूलों वाले खेत में चुप चली जा रही थी। नैना ने सलाद और दाल की कटोरी रखी। वे कुछ नहीं बोले। एक नज़र घुमाई और लेपटोप को देखने लगे। मेल खुला हुआ था और इन बोक्स खाली था।
नैना बैठ गयी।
घर कैसा हो गया है। खाली पड़े स्वीमिंग पूल की सूखी हुई काई जैसे हरे रंग सी दीवारें। तस्वीरों से झांकते बेनूर चेहरे और जगह जगह उगा हुआ खालीपन। ये दीवारें अगर न हों तो कैसा दिखेगा? आसमां से टूटे तारे के बचे हुए अवशेष जैसा या फिर से हरियाने के लिए खुद को ही आग लगाते जंगल जैसा। जंगल खुद को आग लगाता है, कई पंछी भी इसी आग में कूद जाते हैं। जंगल अपनी मुक्ति के लिए दहकता है या अपने प्रिय पंछियों के लिए, ये नैना को आज तक समझ नहीं आया था।
चुप्पी में दाल के तड़के की गंध तैरती रही। तेजी साहब नहीं उठे। नैना, इन दस सालों में पहली बार उनके पास आकर बैठी थी। उसने आगे बढ़ कर एक ग्लास और ब्लेक रम की बोतल उठा ली। उसके ऐसा करने के पीछे जो भी महान या क्षुद्र विचार रहा होगा उसे झटकते हुए आहिस्ता से तेजिंदर सिंह उठे। ला अपना हाथ दे। नैना का हाथ पकड़ कर सरदार जी कमरे से बाहर आ गए। वे दोनों धीरे धीरे चलने लगे। बाहर हवा में ठंडक थी। कहीं दूर कोई पंछी बोल कर चुप हुआ जाता था। वे बरामदे से भी बाहर निकल आए।
मकान के दायें हिस्से की तरफ बढ़ते हुए नैना रोने जैसी थी कि उसको समझ नहीं आया कि ये हाथ पापा ने थाम रखा है या उसने... मन भीगने लगा। वे अब चमेली के फूलों से दस कदम दूर खड़े थे। तेजिंदर सिंह ने एक ठंडी आह भरी। "ये बेल मेरे छोटे बेटे ने लगाई थी। जिसने इस घर में रहते हुए इसके दो हिस्से किये फिर वही एक दिन रूठ कर विदेश चला गया। इस पर जाने कितनी ही बार फूल आए हैं। पता है, ये फूल उसने इसलिए लगाए कि उसकी माँ को पसंद थे"
सरदार तेजिंदर सिंह और नैना दोनों अतीत के उस तालाब में गिर पड़े जिसके पानी में सिर्फ चमेली के फूलों की गंध घुली हुई थी। वे दोनों रो ही पड़ते, वे दोनों डूब ही जाते मगर अचानक वे लौटने लगे। तेजिंदर सिंह ने मुड़ कर मुस्कुराते हुए चमेली के फूलों को देखा। "नैना, मैंने कई बार सोचा कि इस बेल को कटवा दूं मगर तुझे इन फूलों को इतने प्यार से देखते हुए देखा तो मन नहीं माना."
***
[Painting Image Credit : Mizzi]
उस घर में बहुत ज्यादा लोग नहीं थे। नैना की उम्र से बीस साल बड़े एक सरदार जी थे। कद कोई छह फीट, खिचड़ी दाढ़ी और बाल, गठीला बदन लेकिन किसी अनजाने भर को ढोता हुआ। निपट अकेले, वह जब पहली बार इस घर का दरवाज़ा खोल कर अंदर आई, तब वे बिना किसी को बुलाये चुग्गा डाल रहे थे। घर में कबूतर थे। वे कबूतर सरदार जी को देख कर शालीनता से संवाद कर रहे थे। उन कबूतरों के बैठने वाली खिड़की से एक दरिया की पतली धारा बहती हुई दिख रही थी। अपने आस पास हरियाली लिए हुये वह संकरा बहाव बेहद खूबसूरत दिख रहा था। जैसे किसी ने दीवार में कोई सजीव पेंटिंग लगा रखी हो। वे कबूतर इतने शांत थे जितना कि पास ही चुपचाप बहता हुआ दरिया।
नैना घर के बरामदे में खड़ी थी। सरदार जी ने कबूतरों की तरफ से ध्यान हटते ही उसकी तरफ देखा। उन्होंने सर उठाया और पूछा "कहिये..."
नैना ने उनको नमस्ते किया फिर अपनी गोद से निकी को उतारा और कमर सीधी करते हुए कहा। "मुझे मालूम हुआ कि आपके यहाँ रहने को जगह मिल जाएगी। मुझे किराये पर एक कमरा चाहिए"
उन्होंने शायद सुना नहीं अगर सुना था तो भी वे बरामदे से घर के अंदर चले गए। सरदार जी के अंदर जाते ही नैना के पास वही समस्या आ खड़ी हुई कि फिर जाने कितने घरों में मकान के लिए पूछना होगा। लेकिन वह वहीं बैठी थी। नैना को उस समय वह चमेली के फूलों वाली झाड़ी नहीं दिखाई दी वरना वह उठ कर चल देती। बरामदा दो सीढ़ी ऊपर था। पक्के सीमेंट से बना हुआ फर्श था। एक हाथ उस पर रखते हुए नैना को लगा कि बाहर गर्मी कुछ ज्यादा ही है और वह निकी के पास बैठ गयी। मकान मालिक का यूं अंदर चले जाना एक तरह से मना ही था। नैना थकी हुई थी और उसने शायद सोचा कि आगे कोई और घर देखना नहीं है इसलिए कुछ देर सुस्ता कर चली जाये।
कैसा अजब समय था कि सड़कें, गलियां, दीवारें, कहवाखाने, सिनेमाघर और ऐसी ही सब चीजें जिन्हें वह बरसों से जानती थी, सब अजनबी हो गए थे। अब कोई एक कमरा ऐसा न था, जो उसका इंतज़ार करता हो।
वह एक टांग बरामदे से नीचे और दूसरी को मोड़ कर निकी को गोदी में लिए बैठी हुई साहस बटोर रही थी कि कल फिर सायमन को कहेगी कि नया घर खोजो प्लीज़। सायमान उसके लिए बहुत सारे खाली घर तलाशता रहता था और नैना हर सप्ताह के आखिरी दो दिन उन घरों को देखने जाती थी। कभी घर पसंद नहीं आता कभी घर में रह रहे लोग पसंद नहीं आते। किराए का घर हज़ार समझौते मांगता है। नैना भी इस बात को जानती थी मगर कम से कम ऐसी जगह तो मिले जहां हर पल किसी चिंता से न घिरा रहना पड़े। ज़िंदगी है तो दुख अवश्यंभावी है। सुख कहाँ होता है? सीपी को उसके खोल में या फिर कछुए कि मजबूत पीठ के नीचे दबा हुआ। उसने चारों तरफ नज़र दौड़ाई कहीं सुख नहीं था। शांति थी, असीम शांति। फिर उसे याद आया कि शांति भी सुख का एक स्वरूप है। उसने सोचा कि क्या वह सुख से घिरी बैठी है?
एक आवाज़ आई। "ये लो..." सरदार जी ही थे। एक हाथ में प्लास्टिक की ट्रे लिए हुए। उसमें एक दूध का छोटा ग्लास, दो बिस्किट और एक पानी की बड़ी बोतल रखी हुई थी। वह हतप्रभ थी कि अगर थोड़ा सा और न रुकती तो अब तक पोस्ट ऑफिस के पार जा चुकी होती। उसे अगली तीन बातों से अहसास हुआ कि अगर वह सचमुच चली जाती तो इस दूरी को सुख और दुःख के सेंटीमीटर में नापना कितना मुश्किल हो जाता। पहली बात सरदार जी ने कही "मेरा नाम तेजिंदर सिंह है, मेरे दो बेटे हैं। वे विदेश में रहते हैं। पत्नी कई साल पहले चल बसी। खाना खुद बनाता हूँ और शाम को रोज़ ही ब्लेक रम के दो पैग नियम से लेता हूँ। इस घर के किराये से कबूतरों के लिए चुग्गा आ जाये ये मुझे पसंद नहीं फिर भी तुम चाहो तो यहाँ रह सकती हो" इतना कह कर, वे अपने चेहरे के लिए उपयुक्त धैर्य ढूँढने लगे।
निकी दूध पी कर खुश हो गई। उसने आधा बिस्किट गिरा दिया था और आधा कमीज से पौंछ लिया था। नैना ने कहा। "रहने को जगह कहाँ मिलेगी?"
तेजिंदर सिंह ने घर पर एक विहंगम दृष्टि डाली। जैसे अपने ही घर को बरसों बाद देख रहे हों। हर कमरे को, खिड़की को गौर से देखा। जैसे खिड़की, दरवाज़ों और दालान से पूछ रहे हों कि ये औरत तुम्हें बरदाश्त कर सकेगी? फिर बोले "दांई तरफ मेरे छोटे बेटे ने अलग पार्टीशन करवा लिया था। दो कमरे और किचन हैं उस तरफ। उसी में लेट-बाथ भी हैं। घर में होते हुए भी दोनों बहुत अलग है। एक ही घर में खड़े हुए इन दो घरों के बीच में बस एक छोटी सी खिड़की है। तुम्हें तकलीफ हो तो उसे बंद कर देना।"
इस दूसरी बात के बाद नैना ने तेजिंदर सिंह से मुखातिब होकर कहा "हर शाम एक लड़की आया करेगी, निकी को रखने के लिए। वह चार घंटे रहेगी आपको एतराज़ तो नहीं होगा?"
"तुम्हारा नाम क्या है?"
"नैना"
"नैना, मैंने एतराजों को कनकोवे बना कर उड़ा दिया है, मगर ज़रा देर से..." ये कहते हुए तेजिंदर सिंह अंदर चले गए।
एक फ़ौरी यानि तात्कालिक मुसीबत का हल होते ही पूरी ज़िन्दगी आसान लगने लगती है। नैना ने भी दूसरा पांव सीधा कर लिया और निकी को गोदी से उतार दिया। उस दिन के बाद से ऐसे ही कई साल बीत गए। अब यही वह घर था जिसकी छत के तले वह सो जाया करती थी।
***
यही तो ज़िद थी उसकी कि मुझे घर नहीं चाहिए। क्या एक बात पर दो लोग ज़िन्दगी को अलग रास्तों पर ले जा सकते हैं? क्या हज़ार सहमतियों को भुला कर एक असहमति को याद रखा जाना अच्छा है? उसके मन में ऐसा गुमान भी नहीं था कि ये एक असहमति वाली बात साथ रहेगी बाकी सब छूट जायेगा।
वह प्रेम करने का समय नहीं था। दिन के साढ़े तीन बज रहे थे। अभी दो घंटे और बाकी थे लेकिन उसने उसी समय उसे देखा था। वह गमलों को सरका रहा था। कैफ़े के शीशे लगे मुख्य दरवाज़े के बाहर दोनों तरफ तीन स्टेप्स में गमले रखे हुए थे। उनमें भांत-भांत के फूल खिले रहे थे। उसने दो गमलों के बाद तीसरा सरकाया और अपने लिए जगह बना ली। नैना ने उस समय नहीं सोचा कि जो आदमी दूसरों को सरका कर जगह बना रहा है, कब तक उसका साथ देगा। वास्तव में ये प्रेम करने का समय नहीं था फिर भी उसने दिन के ठीक साढ़े तीन बजे ही उसे पहली बार देखा था। ब्लू कलर की डेनिम जींस और लाल रंग का बदरंग कुरता पहने हुए। उसने अपनी दाई तरफ में गिटार का कवर रख कर उस पर मोड़ा हुआ घुटना रख लिया फिर उसने बायीं जांघ पर रखते हुए गिटार के एक तार को हल्के से छू भर दिया।
ज़िन्दगी में वक़्त का कोई हिसाब नहीं है। कभी आप एक गुड्डे गुड्डी के नाचते हुए खिलौने को दिन भर देखते हुए विंड चाइम का संगीत सुन सकते हैं और कभी एक पल भी भारी हो जाया करता है। उन दिनों नैना के पास विंड चाइम को सुनने का समय था। वह रात नौ बजे कैफ़े से निकलती। तब वह अपने गिटार को केस में डाल रहा होता। वह कई सारी छोटी छोटी चीज़ों को संभाल रहा होता। यह एक तरह से दुकान बंद करने जैसा काम था मगर चूंकि वह एक आर्टिस्ट था इसलिए इस काम की तुलना यूं करना उचित नहीं था। वह अपनी पोशाक में भी कुछ कम ज्यादा किया करता था। आखिर में वह उसी तरह का हो जाता जैसा दोपहर साढ़े तीन बजे दिखा करता था।
सड़क सबके लिए थी। अभिजात्य और निम्न वर्ग के लोगों में भेद करना कठिन था कि उस दौर में लोग जैसे थे, वैसा दिखना नहीं चाहते थे। रईस लोग चप्पल पहने हुये घूमा करते थे। गरीब लोग अपने फटे पाँवों को पुराने मगर ज्यादा पोलिश किए हुये जूतों में छिपाए हुये घूमते थे। ऐसे ही लोगों से भरी हुई उस सड़क पर वे दोनों एक साथ चलते थे। एक दिन बस स्टाप की बैंच पर देर तक बैठे रहे। हवा में कोई मादक गंध न थी। सूखे पत्तों से ज्यादा सिगरेट की पन्नियों का शोर था। शहर भर के लोग जिंदगी को धुआँ बना कर उड़ा देना चाहते होंगे। नैना और उसके बीच धुआँ न था। बस कोई एक खास किस्म की गंध थी। वही उन दोनों की पहचान कायम करती थी। एक ऐसी पहचान जो निरंतर गाढ़ी होती चली जा रही थी।
इस पहचान को गाढ़ा करने में बहुत सारी चीज़ें और घटनाएँ शामिल थीं। वे घटनाएँ यूं तो रोज़मर्रा में सबके साथ होती हैं मगर कुछ लोगों के लिए खास हो जाया करती थीं। जैसे कि सिम्पल कॉफी का ऑर्डर देने के लिए भी मेन्यू कार्ड पर दोनों का हाथ एक साथ जाना और फिर एक साथ ही वापस खींच लेना। जैसे बस की टिकट के लिए एक साथ ही पर्स खोलना और एक साथ ही वापस रख लेना। जैसे विदा होते वक़्त एक दूसरे के ज़रा करीब होकर चलना। आहिस्ता से ज़िंदगी आदमी को वो सब बातें भुला देती है जिनको वह एहतियात के तौर पर साथ रख कर रिश्ते की शुरुआत करता है। जैसे कम और संजीदगी से बोलना। खाने पीने में पूरे सलीके को ओढ़े हुये रखना। अगले के सम्मान में शालीन बने रहना। लेकिन भीतर का असली चेहरा हमेशा इन सब चेहरों को उतार फेंकने के लिए उकसाता रहता है।
वे खूबसूरत दिन थे। उनका अनावृत होते जाना और भी सुंदर हुआ करता था। ऐसे असंख्य दिनों की स्मृतियाँ नैना के साथ ही रहा करती थी।
***
नैना ने झट से उफन रही दाल पर रखे ढक्कन को उठाया। अंगुली जल गई। ऐसे ही उसने भी एक बार जली हुई अंगुली पर चमेली के फूलों को बाँध दिया था। हँसता था, खिल उठेगी अंगुली फूल की तरह। मगर अगली सुबह उसी अंगुली पर एक फफोला निकल आया। अब भी रसोई के बाहर रौशनी में फूल चमक रहे थे। वे ही नाकारा फूल। उसकी याद के, उसके साथ के सफ़ेद फूल। वह जब हाथ पकड़ता तब दौड़ने सा लगता था। नैना का साथ पाते ही उसे कोई जल्दी याद आ जाती थी। नैना के बिना वह अक्सर बास्केट बाल के खम्भे से टेक लिए गिटार बजाते हुए दिन बिता देता था। ये बास्केट बाल का मैदान सुबह दस से शाम तक खाली पड़ा रहता था। इसके पास खिलाड़ियों के लिए पानी पीने की टंकी बनी हुई थी। आराम करके के लिए शेड भी थी। उसे यही दो चीज़ें चाहिए होती थी। बाकी सब उसके झोले में रहा करती थी।
उसके पास एक चमेली के फूलों की तस्वीर वाला थर्मस था। इस थर्मस में ब्लेक कॉफ़ी भरी रहती थी। दिन चाहे कड़क हो या ठंडा उसकी कॉफ़ी का रंग कभी नहीं बदलता था। एक दोपहर उसने ख़ास नैना को बुलाया था। वह जाने क्यों हमेशा चाहता था कि नैना उस बास्केटबाल के मैदान में आए। वहाँ शेड के नीचे आराम से बैठ जाए और वह खंभे की टेक लिया हुआ, लातिन अमेरिकी चरवाहों की कोई धुन बजाए। जैसे ही नैना वहाँ पर आती उसकी धुन बदल जाती। उसने जो सोच रखा होता था, वह सब कुछ भूल जाता। ये अजीब बात थी कि प्यार की शुरुआत में उदास गाने याद आने लगते। एक आशंका हमेशा प्रेमियों को मिलने से पहले ही घेर लेती है कि वे बिछड़ जाएंगे। वह भी चरवाहों की उल्लास भरी धुन की जगह उड़ीसा की लोक गायिकी के जादू से सजा हुआ सचिन देब बर्मन हो जाता। उसका गिटार गहरी उदास लोक धुन बजाने लगता।
एक दोपहर नैना को देखते ही उठा और हाथ पकड़ कर भागने लगा। वह बेतहाशा भागता गया। नैना उससे हाथ छुड़ाने की जगह लोगों को देखने लगी कि वे उन दोनों को इस तरह भागते हुये देख कर कैसा मुंह बना रहे हैं। वह इन सब बातों से अनजान बना हुआ सिर्फ दौड़ता गया। वे जहां जाकर रुके, वह एक पॉश कॉलोनी का पुराना बंगला था। वह दरवाज़ा खोलते हुए दीवार से सटी खड़ी चमेली की बेल दिखाने लगा। नैना ने याद किया कि वह वाकई पागल था। अव्वल दर्ज़े का पागल कि कुछ एक फूलों को दिखाने के लिए इस तरह उसे भगा लाया था। वह खड़ा देखता रहा और नैना सोचती रही कि अभी इस घर से कोई आएगा और उन दोनों को दुत्कार कर बाहर कर देगा।
***
इस घर में रहते हुए नैना को दस साल हो गए। इन दस सालों में तेजिंदर सिंह ने कभी उस छोटी खिड़की से कोई चीज़ नहीं ली। वह खिड़की खुली है या बंद है इस पर कभी किसी का ध्यान नहीं जाता था। नैना कहती, आज मैंने कुछ आपके लिए बनाया है तो तेजी साहब कहते बड़े दरवाज़े से आओ। ये चोर खिड़कियाँ तो मुझे रिश्तों की जेल सी लगती हैं। नैना लगभग रोज़ उनका खाना बनाती और रोज़ ही ये संवाद होता था। इससे ज्यादा वे कुछ नहीं बोलते थे। खाने की परख नहीं करते थे, जैसा था वैसा था। निकी के साथ नहीं खेलते थे। उससे उतना ही नाता था, जितना कि गुटर गूं करते कबूतरों से। नैना को कुछ अधिकार स्वतः प्राप्त लगते थे यानि वह पिछले दस सालों में इसी घर में रहते हुये इतना अधिकार पा चुकी थी कि इस बेल को कटवा सकती थी। ये चमेली की गंध उससे दूर हो भी सकती थी मगर ऐसा हुआ नहीं। एक बार उसने चमेली को पास खड़े हो कर देखा था फिर यकायक लगा कि कोई देख रहा है। सरदार तेजिंदर सिंह उसे और चमेली को गूढ़ अर्थों में एक साथ देख रहे थे। वह सहम गई और फिर कभी उस बेल के साथ सट कर खड़ी नहीं हुई।
नैना कुछ भी न भूलने को अभिशप्त थी। उस दिन शहर में हादसा हो गया था। उसने किसी अधिकार से उसे रोक लिया। आज की रात मत जाओ। एक कमरे का फ्लेट। स्नान घर को छोड़ कर सब उसी में था। एक कोने में रसोई, एक में बेड रूम, एक में बालकनी। वे उस रात सोये नहीं थे। दो साल बाद नैना खुश थी। वह खुश नहीं था। उसको अचानक से लगने लगा कि ये बंधन है। ये पथरीली चट्टान है। ये इंसानी आज़ादी के साथ धोखा है। सच में वह वही था, जो गमलों को सरका कर अपने लिए जगह बना रहा था। गिटार बजता था मगर उसकी धुनें क्षण भर बाद व्योम के धूसर अंधेरे में खो जाती थी।
आखिर एक दिन नैना अनकही बातों को सुनते सुनते थक गयी।
"मैं बोझ हूँ तुम्हारे लिए, ये दो साल की बच्ची बोझ है, तुम्हारे लिए"
वह चुप रहा। खिड़की पर चला गया। नीचे गली में बाहर बच्चे खेल रहे थे। उन बच्चों के पास खेलने के लिए जगह नहीं थी। वे कारों और स्कूटरों के बीच अपनी जगह बना कर खेल रहे थे। उनमें चाहत थी कि खेला जाए इसलिए कम जगह में भी बहुत सारी जगह निकल आई थी। बच्चे हर बाल को फैंक कर और हिट करके खुश हो रहे थे। वह खुश नहीं हो पा रहा था। वह चाहता था कि अभी सीढ़ियाँ उतर कर उन बच्चों के पास चला जाए। वह खुद वापस एक बच्चा बन सके। वह जिंदगी के इन असमतल रास्तों पर कोई बोझ उठा कर नहीं चलना चाहता था। खिड़की से वापस लौटा तो वही एक साल की बच्ची और नैना चुप बैठे, उसके उत्तर का इंतजार कर रहे थे।
"मैं ऐसे परिवार बना कर नहीं रह सकता..."
"मैं बिना घर के नहीं रह सकती"
"मैंने पहले ही कहा था कि मुझे घर बनाने से नफ़रत है"
"मगर ये तो नहीं कहा था कि बच्चों से भी है..."
एक चुप्पी के बाद वह बोला। "ये तुम्हारी ज़िद थी, और घर भी... मैं इसका भागीदार नहीं हूँ" वह टहलने लगा जैसे उत्तर का इंतजार कर रहा हो।
"ओ के, तुम जा सकते हो"
"तुम कहाँ जाओगी?"
"ये पूछने का हक़ उसको नहीं है, जो छोड़ कर जाना चाहता है"
"मेरा ठिकाना नहीं है इसलिए बता नहीं सकता, मगर तुम तो घर बनाओगी ना"
"नहीं, तुम ये अधिकार नहीं पा सकते कि लौटने के लिए एक पता रखो और मैं..."
वे अलग हो गए थे। शामें यूं ही गुज़रती रही। एक कैफ़े था। जहाँ वह पार्ट टाइम जॉब को फुल टाइम के तरीके से करती। गिटार बजाने वालों की जगहें डी जे ने ले ली थी मगर उसकी ज़िंदगी की खाली जगह में कुछ धुनें ठहर गयी थी। जैसे बास्केट बाल का पोल पुराना होने के बावजूद गिरता नहीं था।
***
नैना ने एक बार अपने कंधों को पीछे की ओर झुकाया। निकी टेबल पर अपने खिलौने सजा रही थी। निकी ने जाने कैसे एक आदत बना ली थी कि वह अपना होमवर्क स्कूल में ही पूरा कर लिया करती थी। नैना ने सोचा, काश उसने भी एक आदत बना ली होती कि वह जाने कि ज़िद करता और वह हर बार चुप रह कर उसे रोक लेती। कितना अच्छा होता कि उसकी यादें गिनी चुनी चीजों में रह जाती। ऐसा नहीं हुआ। जिन चीजों को को वो पसंद करता था, उनमें वह याद आता था और जिनको नहीं उनमें भी।
तेजिंदर सिंह के घर में वह बिना किसी रिश्ते और किराये के दस साल से रह रही है। पहली बार जब किराया लेकर गई थी तब तेजिंदर सिंह बोले। इसे अपने पास रखो, मैं ले लूँगा। इसके बाद दूसरी बार गई तब भी यही कहा था। तीसरी बार उन्होने कहा कि जाने क्यों मुझे कोई बात कहनी आती ही नहीं है। मैं किसी को अपने मन की बात समझा नहीं पाता हूँ। तुम तीन महीने से यहाँ रह रही हो। तुम मुझे जान न पाई... इसके आगे भी वे कुछ कहना चाहते थे मगर अचानक से रुक गए।
इसके सिवा वे कभी उससे बात नहीं करते बस जवाब देते हैं। क्या वो ऐसे नहीं रह सकता था। कोई बात न करता। चुपचाप अपना काम कर लेता। हमारी कोई मदद न करता, बस वह होता। कभी उदास कभी खुश, कभी कभी होता।
***
शाम उदास, सुबह खाली और दिन पीले... बस बीतते गए। इधर साझे घर में तेजी साहब कबूतरों की कौनसी पीढ़ी को पाल रहे थे, पता नहीं था। नैना ने दाल को बघार लगाया। चमेली के सफ़ेद फूलों की तरफ एक उजड़ी हुई निगाह डाली। सलाद को सलीके से रखा और रसोई से चल पड़ी। दरवाज़ा खुला था। तेजी साहब तहमद और कुरता पहने चुप बैठे थे। सामने टी वी पर कोई पंजाबी गीत बज रहा था। इस गीत में एक नौजवान सरदार उछल कर गा रहा था। लड़की पीले फूलों वाले खेत में चुप चली जा रही थी। नैना ने सलाद और दाल की कटोरी रखी। वे कुछ नहीं बोले। एक नज़र घुमाई और लेपटोप को देखने लगे। मेल खुला हुआ था और इन बोक्स खाली था।
नैना बैठ गयी।
घर कैसा हो गया है। खाली पड़े स्वीमिंग पूल की सूखी हुई काई जैसे हरे रंग सी दीवारें। तस्वीरों से झांकते बेनूर चेहरे और जगह जगह उगा हुआ खालीपन। ये दीवारें अगर न हों तो कैसा दिखेगा? आसमां से टूटे तारे के बचे हुए अवशेष जैसा या फिर से हरियाने के लिए खुद को ही आग लगाते जंगल जैसा। जंगल खुद को आग लगाता है, कई पंछी भी इसी आग में कूद जाते हैं। जंगल अपनी मुक्ति के लिए दहकता है या अपने प्रिय पंछियों के लिए, ये नैना को आज तक समझ नहीं आया था।
चुप्पी में दाल के तड़के की गंध तैरती रही। तेजी साहब नहीं उठे। नैना, इन दस सालों में पहली बार उनके पास आकर बैठी थी। उसने आगे बढ़ कर एक ग्लास और ब्लेक रम की बोतल उठा ली। उसके ऐसा करने के पीछे जो भी महान या क्षुद्र विचार रहा होगा उसे झटकते हुए आहिस्ता से तेजिंदर सिंह उठे। ला अपना हाथ दे। नैना का हाथ पकड़ कर सरदार जी कमरे से बाहर आ गए। वे दोनों धीरे धीरे चलने लगे। बाहर हवा में ठंडक थी। कहीं दूर कोई पंछी बोल कर चुप हुआ जाता था। वे बरामदे से भी बाहर निकल आए।
मकान के दायें हिस्से की तरफ बढ़ते हुए नैना रोने जैसी थी कि उसको समझ नहीं आया कि ये हाथ पापा ने थाम रखा है या उसने... मन भीगने लगा। वे अब चमेली के फूलों से दस कदम दूर खड़े थे। तेजिंदर सिंह ने एक ठंडी आह भरी। "ये बेल मेरे छोटे बेटे ने लगाई थी। जिसने इस घर में रहते हुए इसके दो हिस्से किये फिर वही एक दिन रूठ कर विदेश चला गया। इस पर जाने कितनी ही बार फूल आए हैं। पता है, ये फूल उसने इसलिए लगाए कि उसकी माँ को पसंद थे"
सरदार तेजिंदर सिंह और नैना दोनों अतीत के उस तालाब में गिर पड़े जिसके पानी में सिर्फ चमेली के फूलों की गंध घुली हुई थी। वे दोनों रो ही पड़ते, वे दोनों डूब ही जाते मगर अचानक वे लौटने लगे। तेजिंदर सिंह ने मुड़ कर मुस्कुराते हुए चमेली के फूलों को देखा। "नैना, मैंने कई बार सोचा कि इस बेल को कटवा दूं मगर तुझे इन फूलों को इतने प्यार से देखते हुए देखा तो मन नहीं माना."
***
[Painting Image Credit : Mizzi]
बहुत सुन्दर!
ReplyDelete============
यादों के बन्धन
बन्धनों के बान्ध
बान्धों की सीमायें
सीमाओं का अन्धकार
अन्धकार का अज्ञान
और उस अज्ञान की यादें
कभी तो यह चक्र टूटे
कभी तो टूटे ...
आपकी शैली मन मोहती है और शब्द विस्तार लेते ही जाते हैं...लेते ही जाते हैं
ReplyDeleteबहुत सुंदर और प्रभावी......
ReplyDeleteकहानी अच्छी.... पर पहले की तरह ही सबसे ज्यादा
प्रभावित करती है आपकी शाब्दिक सोच ।
तभी तो एक प्रवाह बना रहता है और रचना मनमोहक बन जाती है।
बधाई
नैना को कुछ अधिकार स्वतः प्राप्त लगते थे यानि वह पिछले दस सालों में इस बेल को कटवा सकती थी.
ReplyDelete"कई बार सोचा कि इस बेल को कटवा दूं मगर तुझे इन्हें देखते हुए देखा तो मन नहीं माना."
इंसान जिस चीज़ से पीछा छुड़ाना चाहता है कभी कभी वो ही अतीत सबसे ज्यादा शिद्द्त से पीछा करता है...
हमेशा की तरह बेहतरीन कहानी ...
आपको पढ़ना एक अलग ही अनुभव होता है। सी-सॉ की तरह ऊपर नीचे तो नहीं लेकिन अलग अलग कालखंड में आगे-पीछे होते रहते हैं, आपकी किसी भी पोस्ट से होकर गुजरते हुये। अपने जैसे के लिये ऐसी पोस्ट्स पर कमेंट करना भी आसान नहीं होता, इसीलिये पढ़कर चोरी छुपे निकल जाया करता हूँ। आज फ़िर दिमाग बोझिल रहने वाला है, आज कमेंट किये बिना रहा नहीं गया। आभार स्वीकार करें।
ReplyDeleteआसमां से टूटे तारे के बचे हुए अवशेष जैसा या फिर से हरियाने के लिए खुद को ही आग लगाते जंगल जैसा. जैसे जंगल खुद को आग लगता है वैसे ही कई पंछी भी आग में कूद जाते हैं. जंगल अपनी मुक्ति के लिए दहकता है या अपने प्रिय पंछियों के लिए,.....किशोर जी आपके लिखने की यही विशेष शैली मन्त्र मुग्ध कर देती है .....यह कहानी भी ज़िन्दगी की सच्चाई के बहुत करीब की लगती है .वो परिवेश जिस में यह ढली है अपना सा ही लगता है ...यह कहानी बहुत दिनों तक याद रहने वाली है ..अपने कुछ विशेष भावों के साथ और आपकी लिखी इस जैसी कई पंक्तियों के साथ .जैसे यह ...."ये तुम्हारी ज़िद थी, और घर भी... मैं इसका भागीदार नहीं हूँ"
ReplyDeleteEk Alag Si Anubhutiii.....Apki Shaili...Bas Baandh Kar Rakh Deti Hai....
ReplyDelete"हँसता था, खिल उठेगी अंगुली फूल की तरह और अगली सुबह एक फफोला निकल आया"
ReplyDeleteनिःशब्द हूँ मैं.
"बास्केट बाल का पोल पुराना होने के बावजूद गिरता नहीं था."
"मकान के दायें हिस्से की तरफ बढ़ते हुए नैना रोने जैसी थी कि उसको समझ नहीं आया कि ये हाथ पापा ने थाम रखा है या उसने... मन भीगने लगा."
"तेजिंदर सिंह ने मुड़ कर मुस्कुराते हुए चमेली के फूलों को देखा. "नैना, मैंने कई बार सोचा कि इस बेल को कटवा दूं मगर तुझे इन फूलों को देखते हुए देखा तो मन नहीं माना." "
सिहर रहा हूँ किशोर जी...कितने शुक्रिया के ख्याल हैं मन में, मुश्किल है कि लिख पाउँगा.
हर कहानी यूँ खुशबू पर ख़त्म नहीं होती, दुनियावी सच भी नहीं होती. पर मुझे यही पसंद है...एक और हफ्ता खुशनसीब हुआ.
आज धन्यवाद कहता चलूँ.
kehani shuru se aakhir tak baandh kar chalti hai..aur chod jati hai sochne ko..ab aage kya :)
ReplyDeletewell written thoughts!
गुलमोहर के बाद चमेली ही पसंद है. गहरे हरे परिद्रश्य में दमकते सफ़ेद फूल लेकिन इन महकते फूलों के झुरमुट में भावनाओं का इतना सैलाब बिंधा होगा, यह आज ही जाना है.
ReplyDeleteयही आपका लेखकीय कौशल है.
कितने जंगल दहके होंगे !! कितने विचार कूदे होंगे उस दहकती आग में !! (लेखक के मन में) तभी खिली होगी ये टूटी बिखरे लम्हों में ये चमेली सी कथा ...गमले सरका के जगह हम अपनी मर्जी से बनाते है(इसे शायद खुदगर्जी कहते है)..अपनी ख़ुशी के लिए....किसी गमले से किसी फूल से कोई सरोकार नहीं...हमे तो खुश्बू से मतलब....नैना के हाथ में फफोला नहीं पढ़ा था जो वक़्त के साथ ठीक हो जाता..एक गूमड़ था जो ज़िन्दगी भर रहेगा...
ReplyDeleteशाम उदास है.....
आपकी कहानियां मन पर ऐसे कब्जा जमा लेती हैं कि इनके प्रभाव से मुक्त हो कुछ सोचने कहने में बहुत समय लग जाता है.....
ReplyDeleteतो क्या कहूँ ?????
एक गोला सा ऐसे आकर अटक गया है कंठ में जिसे ना उगलने का मन कर रहा है न निगलने का...
रस की अवस्था संभवतः ऐसी ही होती है..
ईश्वर आपकी लेखनी को सदा समृद्धि प्रदान करें...
बहुत बहुत शुभाशीष !!!
" मैंने एतराजों को कनकोव्वे बना कर उड़ा दिया है,"
ReplyDeleteएक साँस में ही पढ़ गयी पूरी कहानी. हमेशा की तरह लाजवाब कहीं, भावनाएं तो कहीं शब्द दिमाग से दिल में उतरने लगते हैं एक कशिश सी रहती आपकी कहानियों में
अद्भुत...कहानी खतम करते ही जो पहला शब्द ज़ेहन में आया वो येही था...जिस के माध्यम से आपके ब्लॉग का पता मिला उसे दिल से धन्यवाद देना चाहता हूँ..आपकी लेखनी विलक्षण है...आपको पढकर जो खुशी मिली है उसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव है...
ReplyDeleteआप लिखते रहें...हम पढते रहेंगे...ऐसे ही.
नीरज
कभी कभी सोचता हूँ कभी बैठकी करेगे तो . पूछुंगा .के ..... मेन करेक्टर फिमेल क्यों होते है .....ओर अपने अन्दर दुनिया से इतनी असहमति क्यों रखते है ....पर दुनिया ऐसी ही होती है ....३३ साल की औरत ....जो बेहद सुन्दर है .....नींद की गोलिया लिखवाना चाहती है ..उसका पति कहता है कुछ नहीं डॉ साहब .इसको औरताना रोग है ...हम तो मेहनती लोग है ....दिन रात खटते है ......फिर किशोर को पढता हूँ......कहना चाहता हूँ .नैना जैसी कई देखी है ......तेजिंदर जैसे भी,,,,,,,बस थोड़े चिडचिडे ज्यादा हो गये है ....हमेशा गुस्से में ...उनकी आदमियत इतनी नहीं है.....
ReplyDeleteरचना में शब्दों का प्रवाह ने कहानी को गाह्य बना दिया।
ReplyDeleteनैना को कुछ अधिकार स्वतः प्राप्त लगते थे यानि वह पिछले दस सालों में इस बेल को कटवा सकती थी.
ReplyDelete"कई बार सोचा कि इस बेल को कटवा दूं मगर तुझे इन्हें देखते हुए देखा तो मन नहीं माना."
waah kya kahne ,bahut khoobsurat panktiyaan hai ,gahre ahsaas har bhavnao ki kadra karte hai aur mitne nahi dete khushi .rishta to wastav me dekha jaaye to sirf samvendanao se hi juda hota hai .man nahi bhara abhi bhopal jaa rahi hoon bahut kuchh kahna hai magar waqt rok raha hai .
कहानी में जिस सहजता से समय के साथ चलना और पीछे जाना होता है वो इसका एक और ज़बरदस्त पक्ष है.
ReplyDeleteकिशोरजी
ReplyDeleteआपकी पोस्ट कल दिन में पढ़ ली थी पर मोबाइल फोन से टिप्पणी पोस्ट नहीं कर पाया.
कहानी कैसी है इसके बारे में ऊपर सब मित्रों ने बहुत विवेचना कर दी है, वही सारी बातें नहीं दोहराऊंगा. कहानी मुझे क्यों अच्छी लगी यह ज़रूर बताना चाहता हूँ --
१. नैना जब सरदारजी के घर की चौखट पर होती है तब से लेकर कहानी के अंत तक एनवायरमेंट का चित्रण बहुत ही सटीक ढंग से किया हुआ है, सब कुछ नापा तुला चाहें वह सरदारजी के माकन का नक्शा हो या फिर खिड़कियों की डिजाईन. फिर चाहे प्लास्टिक की ट्रे, दो बिस्किट, निक्की को सँभालने वाली आया ४ घंटे के लोए आएगी, दो पेग शराब..नहीं रम यह भी साफ़ लिखा हुआ है.तीन साल पहले पत्नी चल बसी ... दसवीं बार फूल आये हैं... और भी बहुत सी बातें. यह सब मिलकर ऐसा चित्र बनाती हैं की ऐसा लगता हो मानो रविन्द्र मंच की पहली कुछ सीटों पर बैठकर नया नाटक देख रहे हों. आपकी यह अप्रोच कहानी को पाठक के और नजदीक लाती है.
२. कुछ वाक्य बहुत ही दमदार बन पड़े हैं- हों सकता है आपने जानबूझकर किया हों या फिर आपके लिए यह 'नेचुरल' हों.
"नैना ने भी दूसरा पांव सीधा कर ........दिया. " यह वाक्य पढ़ने भर से सरल लगे पर यह अपने आप में नैना की मनोस्थिति को इंगित करता है, किस तरह वह निश्चिंत हों कर बैठना चाहती है.
"उसने दो गमलों के बाद तीसरा सरकाया और अपने लिए जगह बना ली." यह वाक्य यह दर्शाता है की नायक खुद को कहीं भी अडजस्ट करने में माहिर है और अपने लिए थोड़ी सी जगह बना लेना उसे आता है.
" दो बार उसने चमेली को पास खड़े ......................एक साथ देख रहे थे." कहानी के अंत में कुछ पंक्तियों में यह साफ हों जाता है की यह वाक्य यहाँ कितने मायने रखता है.
"एक नज़र घुमाई और लेपटोप .......इन बोक्स खाली था." तेजिन्दर सिंह के ईमेल का खाली इन्बोक्स कहीं उसके एकांकी जीवन को तो नहीं दिखा रहा ??
"जगह जगह उगा हुआ खालीपन" क्या खूब लिख दिया किशोरजी .. बिल्कुल ऐसा लग रहा है जैसे बिन रुकी बरसात ने हर जगह हर सामान पर फंगस को उगा दिया हों
३. कहानी में वार्तालाप बहुत संक्षिप्त होते हैं इस कहानी में तो बिल्कुल ही कम हैं. यह आपके लिए किसी अचीवमेंट से कम नहीं क्योंकि आप जैसे व्यक्ति जिनका काम बोलना है और जो मिलने पर भी बहुत सहज हो कर बात करते हों वह अगर ऐसा कुछ लिख दें तो उनकी लेखनी का सशक्त पक्ष ही तो है..
मनोज खत्री
बेहतर ढंग से लिखी हुई कहानी ,प्रवाह अवरुद्ध हुए बिना ,दो एकाकी जीवन का .साथ और जिन्दगी की छोटी छोटी बातों का खूबसूरत विन्यास ,मसलन
ReplyDeleteये पंक्तियाँ ............
उसे अगली तीन बातों से अहसास हुआ कि अगर वह सचमुच चली जाती तो इस दूरी को सुख और दुःख के सेंटीमीटर में नापना कितना मुश्किल हो जाता................
किशोर जी तारीफ़ के काबिल तो है ही यह कहानी .....
इस कहानी में मुझे कई जगह स्वयं किशोर चौधरी नज़र आये जैसा की मैं आँख बंद कर उन्हें पाटा हूँ मसलन जींस पर बदरंग कुरता, कोफी और सदाशयता ... कल देर रात यह कहानी पढ़ी गयी जो आपके पिछले कहानियों की तुलना में कमतर हैं फिर भी असंवाद के बीच चलता संवाद और शांति, सुख का ही एक स्वरुप है दिल ले गयी.
ReplyDeletebahut achhi kahani hai apki
ReplyDeleteशाम उदास, सुबह खाली और दिन पीले... बस बीतते गए. ..isee tarah kuch vaky vinyas...majbuut pakad darshate huve , bahut kuch kah jate hain...
ReplyDeleteroomaniyat se duur , magar kasak saath lekar chalti bhavpoorn kahani .
kuch mere man ke bhav see...
किशोर भाई, आपका अंदाजे बयां सचमुच लाजवाब है।
ReplyDelete................
खूबसरत वादियों का जीव है ये....?
"नैना, मैंने एतराजों को कनकोव्वे बना कर उड़ा दिया है, मगर जरा देर से..." ये कहते हुए तेजिंदर सिंह अंदर चले गए............
ReplyDeleteबहुत अच्छे...किशोर जी..
बहुत ही सुन्दर तथा रोचक कहानी ..जो मन को झकझोर दे ...बहुत बधाई
ReplyDeleteकहानी का सबसे खूबसूरत पक्ष और उसका बारीक और परिस्कृत टेक्स्चर है..बैकग्राउंड को इतनी खूबसूरती और सहजता से बुना है कि अक्सर वह फ़ोरग्राउंड को भी पीछे धकेल देता है..गमले सरका कर ्बीच की जगह भरती गिटार की धुन, खाली इनबाक्स के बावजूद अहर्निश खुला मेल, चोरखिड़की, लंबी उम्र वाली चमेली की लताएं, चुग्गे की तलाश मे कबूतर..सब मिला कर वातावरण मे एक खास अवसाद को रचते हैं..जो यहाँ प्रोटैगनिस्ट्स की जिंदगी पर कुंडली मारे बैठा है..यहाँ नैना और तेजिंदर मुझे एक ही कैरेक्टर के अलहदा ऐंगल्स लगे..जो बस वक्त के चाकू से दो अलग इंसानों मे बाँट दिये गये हों..नदी एक एक छोर पर पड़े हुए..अपने-अपने रिश्तों से परित्यक्त..फिर भी उनकी बाट जोहते..और जैसे दोनो के संधिस्थल पर चमेली की वह बाड़ उगी हो..जो दोनो को अपने अतात से जोड़े रखती है..जिससे वे छुटकारा पाना चाहते हैं..मगर कोशिश नही करना चाहते..चमेली के बस मे नही होता है कि वह कहाँ उगे और कहाँ नही..न कबूतरों का कोई अपना पता होता है..फिर भी वे बार-बार लौट कर वहीं आते हैं..जहाँ उन्हे आना होता है...
ReplyDeleteथोड़ा सरप्राइजिंग यह लगा कि नैना जैसी विकसित सोच की धैर्यशील स्त्री दस साल तक किसका इंतजार करती है और क्यों..किसी दूसरे और ज्यादा अनुकूल पुरुष का प्रवेश उसके लिये उस चमेली की गंध से मुक्ति पाने का रास्ता हो सकता था..और निकी के बचपन के लिये जरूरी भी..जबकि उसे पता था कि गिटार की उस धुन का उसकी जिंदगी से निकल जाना सर्वथा अप्रत्याशित नही था...मगर फिर यह जिंदगी है..हम अपने अधूरेपन मे खुश रहते हैं..इतना कि उसे भरना नही चाहते.....
bahut umdha prastuti :)
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दो जिंदगी का अतीत किस तरह चमेली के फूलों से जुड़ा था... जीवन के उतार चढ़ाव और अवसादों को उजागर करती हुई कहानी आरम्भ से अंत तक चमेली की गंध में भिगो जाती है अंत में एक जादू की तरह वह बेल अब इंसानियत की खुशबू से सरोबार है.... आहा....!
ReplyDeleteiska karan mujh ko bhi maloom nahi........
ReplyDeleteaap mujhe kyoon itne achhe lagte hain......
अद्भुत लेखनी...
ReplyDeleteकई बार सोचा कि इस बेल को कटवा दूं मगर तुझे इन्हें देखते हुए देखा तो मन नहीं माना
-बस, यहीं रुका हूँ....
जबरदस्त रचते हैं आप!
kishor ji
ReplyDeletevehtarin kahani hai
A perfection requires no comments,but a silence of admiration...thanks kishor ji!
ReplyDeleteकम शब्दों में बहुत कह जाती है यह कहानी....सादर।
ReplyDeleteआपको दशहरे की शुभकामनाएं...
ReplyDeleteसुख कहाँ होता है, सीपी को उसके खोल में या फिर कछुए कि मजबूत पीठ के नीचे दबा हुआ. उसने चारों तरफ नज़र दौड़ाई कहीं सुख नहीं था. शांति थी, असीम शांति फिर उसे याद आया कि शांति भी सुख का एक स्वरूप है. तो क्या वह सुख से घिरी बैठी थी ?........किशोर जी आपकी कहानियों की जमीन ही अद्भुत है ! एक सुकून भरा अहसास ! तकलीफ के बावजूद तकलीफ नही ! भरोसा है उन सुघड़ हाथों का जो ऊँगली पकड़ के कोने अंतरे दिखता है !समय मिलता तो यहीं कहीं किसी जगह बैठी रहती ! बड़ी कहानी पढ़ सकूंगी कभी ! सिरजते रहिये इस संसार को जो आपका है !
ReplyDeleteकमेंट करने की बाध्यता तो होती नहीं, लेकिन फिर भी मन नहीं माना। एक साथी ब्लॉगर ने मुझे आपका लिखा पढ़ने को कहा था। मुझे अभी के अभी उन्हें शुक्रिया अदा करना चाहिए। फिर लौटूंगी। और पढ़ने के लिए। फिलहाल, हैरान हूं कि शब्द कहानी के ज़रिए कैसे बांध सकते हैं, कैसे चमेली के फूलों का उजलापन, उसकी थरथराती बेल, उसकी गंध सोच में ठहर सी जाती है...
ReplyDeletebehtreen .....kai baar socha ki bel katwa dun .................par man nhi mana..bahut hi sundar likha hai kishor aapne...../
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