[जब इस कहानी को पढना शुरू करें तब घर से बाहर निकल आयें. सूनी सड़क से होते हुए धूप का लिबास ओढ़े एक कैफ़े में घुस जाएँ. वहीँ बैठें और चुप कहानी को देखते रहें.]
तुम कब से बैठी हो?
चालीस मिनट से.
सब मेज खाली पड़ी हुई थीं.
बिना खिड़की वाली इकलौती साबुत दीवार के बीच टंगे टीवी पर क्रिकेट मैच का प्रसारण दिख
रहा था. उसे देखने वाला कोई नहीं था. दुनिया के किसी कोने में खिलाड़ी अपने खेल में
मग्न थे. एक उड़ती निग़ाह उस तरफ डाल लेने के बाद जतिन ने सामने की कुर्सी को थोड़ा
पीछे खींचा. मेज पर कोहनियाँ टिका कर बैठ गया.
चालीस मिनट?
"हाँ"
कहते हुए सुरिन ने जतिन की आँखों में देखा. आँखों में झाँक से नीचे उतरते हुए
सुरिन ने देखा कि जतिन की आँखों के नीचे हलकी स्याही थी. स्याही के नीचे गालों पर
कुछ बेहद छोटी लाल फुंसियाँ निकली हुईं थी. बाल लम्बे थे और कलमें बेतरतीब थीं.
वह उसे देख रही थी तभी
उसका ध्यान टूटा. जतिन कह रहा था- तुम्हारे ब्रेसलेट के सुरमई पत्थर अच्छे हैं.
तुम्हें सलेटी रंग पसंद है न ?
हाँ. मगर हल्का सलेटी.
काउंटर पर एक लड़का बैठा
हुआ था. बाकी कोई दिख नहीं रहा था. प्रीपेड था सबकुछ. वे वहां आराम से बैठ सकते
थे. जब तक कि बहुत से लोग न आ जाएँ और मेजें खाली न बचें. काउंटर वाला लड़का
क्रिकेट मैच से अनजान ऊँचे स्टूल पर दीवार का सहारा लिए बैठा था. जतिन और सुरिन ने
एक-आध बार उसकी तरफ निगाह डाली और फिर वे दोनों लम्बे शीशे के बाहर पसरी हुई
दुपहरी को देखने लगे.
"ये
चुभता है"
जतिन ने कहा- क्या?
समय.
जतिन का मन अचानक किसी
छोटे बच्चे की तरह एक सीढ़ी से गिर पड़ा.- "क्या हुआ है?"
"कुछ
नहीं."
"क्या
कुछ नहीं?"
उस शहर में बेहिसाब कबूतर
थे मगर सब रोशनदानों और छज्जों पर चुप बैठे थे.
जतिन ने फिर से कहा-
"बताओ !!"
सुरिन ने जाने किस से मुंह
फेर रखा था, जतिन से या अपने आप से. मगर उसके मुंह से एक शब्द निकला-
"ज़िन्दगी."
बाहर सड़क पर पड़े कागज़ के
खाली कप को हवा उड़ाकर अपने साथ ले गयी.
[हवा के
झोंके से उड़ा पत्ता जाने कहाँ गिरे, तुम हैरत करना, दुःख न
करना]
सुरिन टेबल की तरफ नज़र
किये चुप बैठी थी. जतिन उठकर कुछ लेने गया. सुरिन ने जब नज़र उठाई जतिन उसके सामने
बैठा था. जतिन ने दोनों प्यालों की ओर देखते हुए सुरिन से पूछा- “बोलो कौनसा?”
सुरिन ने दोनों प्यालों को
नहीं देखा. वह जतिन की आँखों में देखते हुए हलके से मुस्कुराई. जतिन ने कहा- “चुन
लो, फिर कहोगी
तुम्हारे कारण पीना पड़ा.”
“दोनों में
क्या है?”
“कॉफ़ी”
“इसमें
कौनसी”
“फ्लेट
वाइट”
“और इसमें”
“फ्लेट
वाइट”
अचानक से सुरिन की आँखों
से मुस्कराहट खो गयी- “क्या तुम कभी थोड़े से बड़े हो जाओगे? मुझे तुम्हारी कुछ चीज़ें
जो अच्छी लगती थी, अब उनका न बदलना अच्छा नहीं लगता.”
जतिन ने पूछा- “तुम्हारा
हाथ छू लूँ?”
सुरिन की आँखें से खोई
मुस्कान से बनी खाली जगह को भरने के लिए दो बूंदें चली आई. “मुझे मालूम है. मेरे
हाँ कहने पर तुम कहोगे कि छूना थोड़े ही था, पूछना था”
गरम रुत थी. हवा बुहारने
के काम पर लगी थी. बड़े शीशे के पार कुछ एक कागज़ के टुकड़े उड़ते जा रहे थे. कबूतरों
ने आकाश के सूनेपन को बिखेरने के लिए एक फेरा दिया. वे लयबद्ध कलाबाज़ी खाते हुए
खिड़कियों, छज्जों,
मुंडेरों और तारों पर बैठ गए.
“वो पहली
बार इस तरह घर आया जैसे वहां पहले बहुत बार आ चुका हो. वह सोफे पर इस तरह बैठा
जैसे हमेशा से वहीँ बैठता रहा हो. मेरे घर वाले बहुत कुछ औपचारिक सी तैयारी करके
बैठे थे. चाय की पूछताछ हुई तो वह खड़ा होकर रसोई कहाँ है ? पूछता हुआ मम्मा के
पीछे चल दिया. मम्मा हैरत से देख रही थी. वह अचानक मुस्कुराई और कहा- “आइये.”
मम्मा आगे और वह पीछे. उसने पूछा- “अदरक कहाँ रखी है.” जवाब मिलने से पहले ही वो फ्रीज़
खोलकर अदरक निकाल चुका था और उसे कूटने के लिए कुछ खोजने लगा.” सुरिन की आँखों में
एक चेहरा था. वह उसी को देखते हुए जतिन को कह रही थी.
जतिन को बस इतना भर मालूम
था कि सुरिन का होने वाला था. हो गया था. और है. वो उसके बारे में कुछ नहीं जानता
था. जतिन ने कहा- “हाँ आज भी अगर तुम हां कहती तो भी मैं तुम्हारे हाथ नहीं
छूता... वैसे वो कैसे छूता है?”
"शटअप"
"क्या?"
“कुछ नहीं...
मालूम है सब चौंक गए थे. चाय पीने के ठीक बाद उसने कहा- “अब चलते हैं.” उसके साथ
उसके भाई और भाभी थे. वे अचकचाए किन्तु वह खड़ा हो गया था. मेरे पापा कुछ न बोले.
मम्मा बोली थी- “खाना खाकर जाइए.” वह हँसते हुए कहने लगा- “मेरी खाना बनाने की
इच्छा नहीं है.” अपनी बात को बीच में रोक कर सुरिन ने प्याले की ओर देखते हुए कहा-
“चीनी तुम डालोगे या मैं डालूं?”
जतिन ने कहा- “चख लो”
कॉफी मीठी थी. सुरिन से
जतिन ने कहा- “तुमको कैसा लगा था?”
“मुझे अजीब
लगा था. अव्वल तो ये ही अजीब है कि कोई किसी लड़की को देखने आये. फिर ये सब तमाशा
करना. मगर जब हम सब बाहर आये न तब उसने मुझे कहा- “एक मिनट इधर आना तो...” मैंने
देखा कि मम्मी और पापा हम दोनों को देखना छोड़कर उसके भैया भाभी के सामने देखने लगे
थे. उन्होंने हमसे नज़रें फेर ली थी. जैसे कह रहे हों, जाओ बात कर लो. मैं उसकी तरफ गयी. उसने कहा- “सॉरी, ये सब मुझे अच्छा नहीं लगता. मैंने पहले ही हाँ कर दी थी. मगर घरवाले माने
ही नहीं. कहते रहे जाओ देखकर आओ. फिर मैंने सोचा देखने के बहाने तुमसे पूछ लूँगा
कि क्या मैं तुमको पसंद हूँ.”
जतिन ने कहा- “वो बेहद
अच्छा आदमी है”
सुरिन ने जतिन के होठ पर
लगे कॉफ़ी के छोटे से झाग को अपनी अंगुली से मिटाते हुए कहा-“हाँ वो बेहद अच्छा
आदमी है”
[मुस्कुराते
हुए होठ कई बार एक ठहरी हुई छवि भी हो सकते हैं, अक्सर समय
बह चुका होता है और चीज़ें बदल चुकी होती हैं]
एक बार उसने सुरिन से कहा
था- “हम कॉफ़ी पीने के लिए आते हैं या कोई और वजह है?” सवाल सुनकर सुरिन के बंद होठों पर हंसी ठहर
गयी थी. सुरिन ने कहा- “पगले ये उबला हुआ पानी पीने कौन आता है? ये कॉफ़ी तो बहाना है. असल में तुम्हारे साथ बैठने में मजा आता है. मैं
बहुत सी बातें भूल जाती हूँ. जब तक हम साथ होते हैं मन जाने क्यों सब सवालों को एक
तरफ रख देता है.”
ये सुनकर जतिन ने पीठ से
कुर्सी की टेक ले ली थी. उसे ऐसे देखकर सुरिन मुस्कुराई थी. जतिन ने पूछा- “अब किस
बात की मुस्कान है?” सुरिन ने
टेबल पर रखे सेल फोन को गोल घुमाते हुए कहा- “कभी बताउंगी तुमको” जतिन टेक छोड़कर
सीधा हो गया- “अभी बताओ” सुरिन फिर से मुस्कुराई. जतिन ने फिर से कहा- “प्लीज अभी
बताओ” सुरिन ने उसे कुछ न बताया- “तुम अभी ये समझने के लायक ही नहीं हो”
जतिन ने उसकी अँगुलियों के
बीच गोल घूम रहे फोन को उठा लिया. “अब ये नहीं मिलेगा. जब तक नहीं बताओगी, मैं दूंगा ही नहीं.”
“है क्या
तुमको... गधे कहीं के” सुरिन ने लगभग झल्लाते हुए उसके पास से फोन छीन लेना चाहा.
जतिन ने कुछ देर हाथ पीछे किये रखे मगर उसे लगा कि सुरिन लगभग रोने जैसी होने वाली
है. “ये क्या? तुम मजाक करो तो कुछ नहीं. मैं करूँ तो पल में
रुआंसा.”
सुरिन चुप बैठी रही. वह
कुछ न बोली. जतिन ने फिर से कहा- “अरे ऐसे ही लिया था, सचमुच का ले थोड़े ही
जाता.”
जतिन ने कई बार कहा और फिर
वह चुप हो गया. सुरिन उदास बैठी रही. उसने सामने रखे फोन को नहीं छुआ.
भरी गरमी के मौसम में बाहर
सडक पर कोई छाँव का टुकड़ा आया. कोई राह भूला हुआ बादल हवा की मद्धम लय से इस तरह
बह रहा था, जैसे रुका हुआ हो. वे दोनों बाहर उसी छाँव को देख रहे थे. छाँव
धीरे-धीरे उनसे दूर जा रही थी.
“चलते हैं”
ऐसा कहते हुए सुरिन ने अपने थैले में पानी की बोतल रखी. फोन को अगली जेब में रखा.
छोटा वाला पर्स बाहर निकाल कर हाथ में ले लिए. सुरिन बिना इंतजार किये रवाना हो
गयी. जतिन उसके पीछे था. वे बाहर जाने के पतले से, नीम
अँधेरे वाले रास्ते में फोम पर बिछे हुए कारपेट पर चल रहे थे. ऐसा लगता था जैसे
कोई रुई के फाहों से बना रास्ता है. छोटे दरवाज़े तक आते ही सुरिन रुकी. उसने पीछे
देखा. जतिन उसके पास ही खड़ा था. वह जतिन को देखने लगी और जतिन चुप खड़ा रहा. कुछ पल
देखने के बाद सुरिन मुड़ी और चल पड़ी.
वे सड़क तक आये. जतिन ने
कुछ न बोला. सुरिन ने एक ऑटो वाले को रुकवाया. उसने पूछा कहाँ जाना है. सुरिन ने
जतिन को कहा- “अब बताओ इसको कहाँ जाना है?” जतिन ने कहा- “मुझे क्या मालूम. बिना बताये
तुम उठकर आई हो.”
“कोई ऐसी
जगह मालूम है जहाँ अच्छी कॉफ़ी मिलती हो?”
“हाँ”
वे दोनों ऑटो में बैठे हुए
थे. सुरिन ने कहा- “एक बार मम्मा ने पापा से कहा कि आज शाम को बाहर चलते हैं. पापा
ने बिना किसी भाव के कहा- हाँ चलो. हम तीनों बाहर गए. अजीब सा हाल था. न मम्मा ने
पापा से कुछ कहा, न
उन्होंने कुछ पूछा. हम जहाँ गए थे, वहां बड़ा सुन्दर माहौल
था. बहुत से लोग थे. आपस में हंसते हुए, एक दूजे से सटकर खड़े
कुछ खाते पीते हुए. हमने भी वहीँ कुछ खाया. मम्मा जो खुद अपने मन से बाहर जाना
चाहती थी, वह खुश नहीं दिखी. मुझे इतना दुःख हुआ कि मैं
सोचती रही कि काश मैं साथ न आती. पापा नार्मल थे. हम लोग घर लौट आये. मैं अपने
कमरे में चली गयी. मैं बहुत देर तक सोचती रही. काश पापा ने थोड़ा गर्मजोशी से कहा
होता- हाँ बाहर चलते हैं.”
[ठंडी हवा जब लोहे को छूकर गुजरती है तब वह भी शीतल हो जाता है. आदमी मगर
ये बात नहीं समझता.]
उस दिन जब वे दोनों एक नयी जगह पर बैठे हुए दूसरी बार कॉफ़ी पी रहे थे तभी सुरिन ने
पूछा- “मैं जब भी बुलाऊं तब क्या तुम हर बार इस तरह कॉफ़ी पीने आ सकोगे?”
जतिन ने कहा- “हाँ अगर मैं
कहीं नौकर न हो गया तो...”
“तो क्या अब
जिस तरह हम मिलते हैं वैसे हमेशा मिलना नहीं होगा?”
“नहीं होगा”
“क्यों नहीं
होगा?”
“इसलिए कि
हमारे पास हमेशा मिलने की इच्छा से भरा ये आज का मन नहीं बचेगा”
सुरिन को उस दिन इस बात पर
यकीन नहीं हुआ था. मगर आज वह सचमुच तीन साल बाद जतिन के साथ बैठकर कॉफ़ी पी रही थी.
कैसे न? सबकुछ बदल
जाता है. इस पल लगता है कि जीवन स्थिरता से भरा है. मन जो चाहता है वही हो रहा है.
हम कल फिर से इसी तरह मिलने की अकाट्य आशा कर सकते हैं. और अचानक....
जतिन कुछ खाने को लेकर
आया. इस बार वह चुनने को नहीं कह सकता था. उसने कहा- “फिर आगे क्या हुआ?”
“हम मिले
थे. कई-कई बार मिले. शादी का दिन बहुत दूर था. वह फोन करता था. आ जाओ कहीं घूमने
चलते हैं. मैं जाने क्यों डरती ही न थी. किस तरह ये विश्वास मेरे भीतर आया कि वह
मुझे ऐसी किसी जगह न ले जायेगा जहाँ कुछ गलत हो. वह सचमुच कभी न ले गया. बस वह
अपने स्कूटर पर अगली सीट पर होता और मैं पीछे. हम शहर भर का लम्बा चक्कर लगाते हुए
बातें करते थे. वह बीच-बीच में पूछता था. कुल्फी वाला आ रहा है. चाट वाला आया. चाय
की दूकान है. मैं कहती- मुझे कुछ नहीं खाना. फिर भी वह कहीं न कहीं रुकता और कुछ
खिला देता था. बस फिर घर पर ड्राप करता और कहता फिर मिलते हैं” सुरिन के चेहरे पर
शांति थी.
“प्यार नहीं
करता था?”
“करता था.”
“अच्छा... कैसे?”
“एक बार
मैंने अपना पर्स उसके स्कूटर की डिक्की में रख दिया था. फिर उसे लेना भूल गयी. घर
आने के बाद याद आया. कई बार सोचा मम्मा के फोन से उसके फोन पर फोन करूँ और कहूँ कि
मेरा पर्स रह गया है. उसमें मेरा फोन भी है. मैं नहीं कर सकी. लेकिन रात को जब हम
लोग खाना खा रहे थे तब डोरबेल बजी. वह खड़ा था. मालूम है क्या बोला?”
“क्या?”
“तेरे से तो
ये फोन ही अच्छा है, जो मेरे पास रहना चाहता है.”
जतिन ने देखा कि सुरिन के
होठों के पास ज़रा सा केचअप लगा रह गया है. उसने सोचा कि क्या वह अपनी अंगुली से
इसे मिटा दे. उसे सचमुच समझ न आया कि क्या करे. उसने कहा- “ऐसे अच्छे आदमी से मैं
कभी मिलूँगा”
“जिससे से
भी मिलो, उसे उसी की नज़र से देखना”
बहुत देर से मैच देख रहे
सर्विस बॉय के मुंह से निकला- “यस, यस... यस” टीवी के स्क्रीन पर स्लो मोशन में
एक गेंद विकेट को छूकर जा रही थी और गिल्ली हवा में कलाबाजी खाती हुई आहिस्ता से
ज़मीन की ओर जा रही थी.
[जीवन किसी
ख़राब साधू का दिया हुआ शाप है जो कभी फलता नहीं मगर हमेशा डराता रहता है]
उस खाली-खाली से पड़े
रेस्तरां में अलसाया लड़का क्रिकेट मैच देख रहा था. वहीँ पास ही बैठे हुए जतिन और
सुरिन की दुनिया अलग थी. लड़का किसी एकांत से उपजे खालीपन में खेल भर रहा था. सुरिन
इतनी ज्यादा भरी हुई थी कि कुछ खालीपन जुटाना चाहती थी. जतिन ने खालीपन और भरे
होने के भावों को स्थगित कर रखा था. उसके ठीक सामने तीन साल बाद सुरिन थी और वह इन
लम्हों को सलीके जीना और स्मृति में बचा लेना चाहता था. जब सुरिन उसके जीवन वृत्त
से बाहर कदम रख चुकी थी तब जतिन ये याद करने की कोशिश करता था कि सुरिन के इस
वृत्त में होने से क्या था और न होने से क्या नहीं है?
“तुम” सुरिन
ने कहा.
“मैं क्या?”
जतिन ने पूछा.
“क्या सोच
रहे हो?”
“मैं सोच
रहा हूँ कि हम जो कुछ करते हैं उसकी कोई पक्की वजह होती है.”
“जैसे?”
“जैसे हम
मिलते थे. फिर हम सालों नहीं मिले. जैसे अभी एक दूजे के सामने बैठे हैं और
शायद..."
जतिन ने कांच के पार देखा.
वो जो बादल चला गया था, उसकी
स्मृति भर बची थी. सड़क धूप से भरी थी. दोपहर का रंग वैसा ही था. जैसा बादल के आने
से पहले था.
जतिन को इस तरह बाहर देखते
हुए देखकर सुरिन ने कहा- “ये पीले पत्थरों से बनी सड़कें कितनी अच्छी लगती है न”
“हाँ बहुत
अच्छी”
“क्यों?”
“पीले
पत्थरों से बनी सड़कें इसलिए अच्छी लगती है कि हमने सडकों के बारे में जो सोच रखा
है उससे अलग हैं.”
“अगर हमने
ये पहले से न सोच रखा होता कि सड़क कोलतार से बनी होती है. उसका रंग काला होता है. वह
दूर तक अनगिनत मोड़ों और हादसों से भरी होती हैं. तो क्या ये पीले पत्थर वाली सड़क
अच्छी न लगती?”
“हाँ”
“तो अगर
हमने जीवन के बारे में पहले से कुछ न सोच रखा होता तो भी वह हमें अच्छा लगता?”
प्रश्न सिर्फ शब्दों में
नहीं था. प्रश्न स्वर में था. प्रश्न सुरिन की आँखों में भी था. हर प्रश्न का
उत्तर नहीं होता है. कुछ प्रश्नों के उत्तर केवल प्रश्न ही हो सकते हैं. इसलिए
जतिन ने प्रतिप्रश्न किया- “तुमने जीवन के बारे में क्या सोच रखा था?”
“मैं उस घर
में गयी, जहाँ मुझे उम्र भर होना था. वहां बुजुर्ग नहीं थे.
वे आशीर्वाद देने आये थे और देकर लौट गए. उनका तय था कि वे उसी क़स्बे में रहेंगे
जहाँ पुश्तैनी घर है. एक बड़े भैया और उनका परिवार था. वह बराबर के मकान में रहता
था. उनके वहां आना-जाना और बोलना न बोलना कुछ भी नियमों में नहीं बांधा हुआ था. मन
हो तो आओ, न हो न आओ. अकेले नहीं रहना तो जब तक चाहो दोनों
उसी घर में रह लो. क्या पहनना-ओढना है सब अपने मन का चुनो. कब सोना-जागना है,
तुम स्वयं समझदार हो.”
“कितना अच्छा
घर है न?”
“हाँ.”
“फिर...”
“क्या तुमने
कभी फूल को डाली से टूटकर गिरते देखा है?”
“हाँ”
“क्या कभी
पत्ते झड़ते हुए देखे हैं?”
“हाँ”
“बस ऐसा ही
है.”
“माने?”
“जहाँ
प्रसन्नता पर प्रसन्नता न हो और दुःख पर दुःख... ऐसा साधा हुआ जीवन.”
“लोग यही
चाहते हैं”
“चाहने के बाद?” एक चटकता
हुआ रूखापन जाने कहाँ से सुरिन के स्वर में घुलकर गिरा.
सुरिन ने जतिन को छुआ.
जैसे बरसात की पहली बूँद अचानक ललाट पर गिरती हो. जैसे नंगी पीठ पर पंख फिसलता हो.
जैसे पानी में रखे पैर के तलवे को कोई गुदगुदा दे. जतिन की अंगुलियाँ सुरिन की
अँगुलियों से बाहर आ रही थी. जतिन की हथेलियाँ भीग चुकी थीं. वह जिस अनुभूति से भर
गया था, उसका कोई
उपचार नहीं था.
उसने कांपते स्वर में
अधूरा प्रश्न किया- “क्या तुम...?”
सुरिन ने अधूरे प्रश्न को
बिना समझे कहा- “नहीं”
[टूटती
पत्ती के पीछे एक कोंपल खिल रही होती है, दुःख के पीछे...]
सुरिन ने जतिन को कहा कि
मैं कुछ लेकर आती हूँ. वह तेज़ी से उठी और बिल काउंटर तक चली गयी. बिल काउंटर पर
बैठे लड़के से सुरिन ने पूछा- “यहाँ फ्लेट वाइट के अलावा कोई दूसरा फ्लेवर है ?” काउन्टर के अंदर की तरफ
खड़े लड़के ने अपनी पीठ की ओर संकेत किया. वहां एक लम्बी सूची थी.
सुरिन कॉफ़ी लेकर आई तो
जतिन ने कहा- “कैफ़े
लात्ते...”
“तुम्हें
कैसे मालूम?”
“जाने दो.
मैं तुम्हें एक बात याद दिलाता हूँ शायद तुम भूल गयी हो.”
सुरिन अचरज से देखने लगी.
उसने अपने होठों पर लम्बी मुस्कान रखी. वे दोनों जीवन की अबूझ बातें करते हुए थक
गए थे. उनके पास यही रास्ता था कि वे कोई ख़ुशी की बात करें. अक्सर ख़ुशी को लालच
देना होता है. जैसे आप बड़ी मछली को फांसने के लिए छोटी मछली को चारे की तरह कांटे
में फंसाते हैं न वैसे ही बड़ी हंसी तक पहुँचने के लिए एक छोटी मुस्कान खुद बनानी
पड़ती है. फिर ये छोटी मुस्कान बड़ी मुस्कान को खींच लाती है. इसलिए सुरिन ने अपने
चेहरे पर एक लम्बी मुस्कान रखी. “हाँ बताओ वो बात जो शायद मैं भूल गयी हूँ”
“वो बी
ब्लॉक वाला शोपिंग काम्प्लेक्स याद है?”
“जहाँ हम
पहली बार मिले थे”
“अच्छा
तुम्हें तो खूब याद है सब. मैंने समझा तुम भूल गयी हो. तो सुरिन तुम्हें ये भी याद
होगा कि वहां एक नन्हा गुलमोहर था.”
सुरिन का फोन बजने लगा.
उसने फोन उठाया और स्क्रीन देखने लगी. उसने फोन पर बात नहीं की. फोन को थैले में
रखा और जतिन से कहा.- “अब चलना होगा.”
“पांच मिनट
और रुको”
“फिर क्या
हुआ ये बताती जाओ”
“एक दिन वो
चक्कर खाकर गिर पडा. हम उसे अस्पताल लेकर गए. वहां पहुँचते ही वह काफी नार्मल हो
गया. लेकिन ये सिलसिला बढ़ता ही गया. वह लगातार कमजोर होता गया. आखिरकार बोन मेरो
ट्रांसप्लांट हुआ. और एक रोज़ डॉक्टर्स ने कहा कि आप इनको घर ले जाइए. अब हम एक बंद
कमरे में रहते हैं. वह काफी अच्छा है. अपना काम खुद कर लेता है.”
ये सुनकर जतिन बहुत उदास
हो गया.
सुरिन ने कहा- “मालूम है
वह पिछले एक साल से मुझे कह रहा था कि तुम बाहर जाया करो. हमेशा मेरे पास बैठी हुई
बोर नहीं हो जाती हो. मैं उसे कहती- तुम पागल हो क्या. मुझे यहीं अच्छा लगता है.
फिर कुछ रोज़ पहले उसने कहा कि मुझे गिल्ट होने लगी है. तुम बाहर नहीं जाती हो तो
मुझे लगता है कि मैंने तुम्हें क़ैद कर लिया है. मुझे सचमुच अच्छा नहीं लगता. मैंने
कहा- जाती तो हूँ. इतना सारा सामन ले आती हूँ. वह बोला कि ऐसे नहीं तुम सिर्फ अपने
खुद के लिए बाहर जाओ. तुमको लगे कि तुम्ह सिर्फ इस घर में क़ैद रहने के लिए नहीं
हो.”
एक और मुस्कान होठों पर
रखकर सुरिन ने कहा- “मुझे कभी समझ नहीं आता कि क्या करूँ. मुझे उदासी नहीं है.
मेरे पास तन्हाई नहीं है. मेरे पास एक दुबले से आदमी के दो हाथ हैं. जिनको मैं
अक्सर चूमती रहती हूँ. उन हथेलियों में कई सारे रास्ते बन गए हैं. मैं उन रास्तों
पर चलती हूँ. कुछ छोटे पहाड़ हैं. कुछ कम गहरी खाइयाँ हैं. दो एक सरल रास्ते
हैं...” अचानक सुरिन की ऑंखें चमकी और उसने कहा- “तुम्हें मालूम है अगर ये सब न
होता तो मैं उसकी हथेलियों को कभी इस तरह न देख पाती”
कांच के पार धूप कम हो गयी
थी. लम्बी छायाओं ने सड़क को ढक लिया था. तीन चार बच्चे गेंद और बल्ला लिए आ गए थे.
वे इस तरह बैठे और खड़े थे कि लगता था, पक्का कुछ और दोस्तों का इंतज़ार कर रहे थे.
सुरिन ने अपना थैला उठाया. जतिन ने अपना चश्मा लिया. दोनों बाहर निकल पड़े.
रेस्तरां से बाहर आते ही जतिन ने कहा- “बी ब्लाक की तरफ से होते हुए चलें.?”
वे चलते हुए काफी दूर आ गए
थे. सड़क खाली थी. शोपिंग कॉम्प्लेक्स के आगे मोड़ था मगर गुलमोहर नहीं था. जतिन रुक
कर उस जगह को देखने लगा. जहाँ वे पहली बार मिले थे. कुछ एक पल वहीँ खड़े रहने के
बाद उसे सुरिन का खयाल आया. जतिन ने देखा कि सुरिन बिना रुके बहुत दूर जा चुकी थी.
बहुत दूर सड़क पर एक सुर्ख रंग का छोटा स्कार्फ था. जो कभी जतिन को दिखता और कभी
उसकी निगाह से खो जाता.
[याद,
एक अमरबेल है.]
Painting Koil street, courtesy : Alexraj GD
Painting Koil street, courtesy : Alexraj GD