Friday, December 11, 2009

दोस्तों ब्लॉग छोड़ कर मत जाओ, कौन लिखेगा वक्त ऐसा क्यों है ?


टूटने बिखरने के ब्योरे दर्ज कर पाना मेरे लिए सदा दुष्कर कार्य रहा है, मेरी प्रतिभा एक सामान्य बालक, युवा और फिर अधेड़ होने की ओर अग्रसर आम आदमी जैसी ही है. मेरी ज्ञानेन्द्रियाँ भी मुझे विशिष्ट नहीं बनाती है छठवे, सातवे और उससे आगे के सेन्स मुझ तक अभी पहुंचे नहीं हैं. पंद्रह बीस दिन पहले एक सपना देखा।

मैं अपने कुछ मित्रों के साथ किसी आर्मी एरिया के पास जंगल में किसी की हत्या करने का ताना बुन रहा हूँ. बेतरतीब खड़े पेड़ भयावहता का चित्र उकेरते हैं, अँधेरा उसमे कुटिलता भर रहा है. अनचीन्ही पदचापों पर हम सिहर जाते हैं या फिर किसी गुप्त आयोजन के लिए किये जाने वाले संवाद कि तरह हौले हौले बतिया रहे हैं. करवट बदलता हूँ और महसूस करता हूँ कि सपना देख रहा हूँ लेकिन वह फिर से से मुझे उसी जंगल में खींच ले जाता है.

एक दुबली सी लड़की और उसके साथ एक लड़का है जिसके बाल कुछ इस तरह बढे हुए हैं कि वह संगीत का साधक दीख पड़ता है और लड़की को देखते हुए वह मुझे नाटक में काम करनेवाली कोई प्रशिक्षु जान पड़ती है. इस लड़की को देखते हुए लगता है कि लड़का मुहब्बत का इज़हार करते ही शादी जैसे विकार से ग्रसित हो जायेगा. वे दोनों एक सड़क जैसे फुटपाथ पर चलते हुए हमारे जंगल में दाखिल होते हैं. मैं उकडूं बैठा हुआ उन्हें किसी गहन विचार विमर्श में व्यस्त देखता हूँ. एक पल में दृश्य बदलता है और उन दोनों के जाते ही मैं नायलोन की एक रस्सी से टेंट में लेटे हुए एक अजनबी आदमी का गला घोंटने लग जाता हूँ. अपने पूरे सामर्थ्य को झोंक देता हूँ कि कहीं ये बच न जाये. वह मर गया...

उसके चहरे को देखने पर सोचता हूँ कि क्या इसके चेहरे पर गला घोटे जाने से पहले भी यही भाव थे लेकिन मुझे स्मृति नहीं हो पाती कि इसका चेहरा मैंने पहले भी देखा था या नहीं. भय किसी सांप सी सरसराहट सा रेंगता हुआ मेरे चारों और पसर जाता है. मेरी कामयाबी के बाद तुरंत एक मित्र हाजिर होता है. हम दोनों अविश्वास से उस लाश को ठिकाने लगा देते हैं. एक घने झुरमुट के नीचे बनाये हुए गड्ढे में दफन कर दिए जाने के बाद लगता कि अब पाँव साथ नहीं देंगे. 

दरवाज़े के नीचे की झिरी से आती ठंडी हवा से सपना उचट जाता है. रजाई को खींचते हुए देखता हूँ कि आभा और दुशु पलंग पर आराम से सो रहे हैं. बाहर माँ के कदमों की आहट आती है, लगता है कि इस समय उन्होंने मुंह में ब्रश दबा रखा होगा और पिताजी के स्वभाव के ठीक विपरीत, घूमते हुए हुए दांत मांज रही है.

ये सपना देखने के बाद, उस दिन मेरे साथ क्या हुआ याद ही नहीं आता. वैसे स्मृतियाँ इस बात पर ही निर्भर करती है कि आप उनसे कितनी नफ़रत या मुहब्बत करते हैं. एक शतरंज का खिलाड़ी अपने सामने बिछी शतरंज की बिसात की तस्वीर को एक सैकेंड में याद रख सकता है. उसका तरीका तभी तक कारगर है जब तक कि बिसात में रखे मोहरे, खेल के नियम तोड़ते ना हों. मेरी बिसात से डेढ़ साल पहले बादशाह अलविदा कहे बिना जा चुके हैं. गंभीर हृदयाघात ने पल भर में मुझे प्यादे से भी छोटे कद का बना दिया. दुनिया के दिए हुए हौसले हमेशा नाकाफी होते हैं. जब तक दो तीन तेज हवा के झोंकों से रूबरू होने का समय न आये. पिता जी एक निम्न मध्यम वर्ग के परिवार को मध्यम वर्ग का जीवन जीने लायक बना गए थे किन्तु उनके जाने के बारे में अब भी परिवार का कोई सदस्य बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता.

जीवन के पांच सौ दिन अधिक नहीं होते मगर जब आप भय की वादी में अकेले होने का अहसास पाते है तो साहस के पाठ याद नहीं आते. इन पांच सौ दिनों की हर सुबह मैं दुशु को नहलाने में लग जाता, आभा नाश्ता तैयार करती फिर दोनों बच्चों को स्कूल के लिए बस तक छोड़ने जाता रहा हूँ. दस बजे तक आभा अपने सरकारी स्कूल चली जाती, मैं दिन भर घर में कुछ पढ़ने या अपने पसंद के कामों में दिन बिता देता. मेरी पसंद का एक काम है कि शाम चार बजे नहाया जाये. इस पर पता नहीं घर वाले बीस पच्चीस साल से हँसते रहे होंगे पर मुझे याद नहीं आता क्योंकि मुझे इस कार्य पर होने वाली प्रतिक्रिया में कोई आकर्षण नहीं दीखता था. आभा चार बजे घर लौटती तब हमेशा मैं उसे बाय कहने के लिए आखिरी सीढ़ी उतर रहा होता. उसके लिए घर फिर से स्कूल जैसा हो जाता और मैं आकाशवाणी में शाम की ड्यूटी के दौरान बंद स्टूडियो में सूरज का उतरा हुआ मुंह नहीं देख पाता था. जब बाहर निकलता तब तक कस्बा सो चुका होता किन्तु दो तीन जोड़ी आँखों में इंतजार बना रहता था. बस घर लौटते ही दरवाजे के खुलने के के साथ कुछ स्मृतियाँ पांवों से लिपट जाती कि पहले हमेशा दरवाजा पापा ही खोला करते थे. 

जब वह सपना देखा था, उसके कुछ दिन बाद पाया कि मेरे बाएं पैर के नीचे एक कोन बनने लगा है. इस बीमारी को स्थानीय भाषा में आईठाण कहते हैं. अंगुली रखने जितने स्थान पर चमड़ी सख्त हो गयी थी और पाँव को ज़मीं पर रखते हुए कष्ट का अनुभव होने लगा था. एक सहपाठी दोस्त को फोन किया. यार डॉक्टर इसका क्या करें तो वह बच्चों के समाचार पूछने लग गया. मुझे निर्देश दिए कि जमाना बहुत कम्पीटीशन का है इसलिए बच्चों पर ध्यान दो. कुल मिला कर आठ मिनट के दौरान हुई बातचीत के बाद उसने बताया कि सोफ्ट शू पहना कर और कामरेडी चप्पल छोड़ दे. पाँव दर्द करता रहा मैं जींस पर कुरता डाल कर ऑफिस के रस्मो-रिवाज पूरे कर आता. रात को लौटते समय क़स्बे के अपनापन को हमेशा गुम ही पाता. सर्दी का मौसम रेगिस्तान में मेहमान बन के आता है रात भर ठण्ड दिन में तेज धूप. सुबह या देर रात अलाव तापने वाले नंगे बदन लोगों ने अब यहाँ रंग बिरंगी डांगरी पहन ली है. वे या तो केयर्न इण्डिया वाले नीले रंग में दीखती है या फिर एल टी की पीली वाली. फुरसत के दिन मल्टी नॅशनल कंपनियों ने लूट लिए हैं.

तेल उत्पादन शुरू हो चुका है और पैसे की होड़ में भाई ने भाई के विरुद्ध हर स्तर पर मोर्चे खोल लिए हैं. मेरा घर आदिवासी भील, मेघवाल, गाडोलिया लुहार और सिंध से आये शरणार्थी परिवारों के बीच है. यहाँ भी अब पुश्तैनी कामों को अलविदा कहा जा चुका है. मजदूरों की पहचान आसान नहीं रही. गली गली में यू पी, बिहार, और बंगाल से आये मजदूर किराये पर रहते हैं. रेगिस्तान की सहिष्णु परम्परा कभी किसी का विरोध नहीं करती, परन्तु से मुझे सख्त नफ़रत है. वैसे सभ्यताएं और संस्कृतियाँ उजडती रही हैं और उनका विकास भी होता रहा है. हमारी नस्लों में अगर रेत के जींस होंगे तो वे भी कोई नया ठिकाना ढूंढ लेगी, जहाँ आदमखोर दैत्याकार मशीनों का शोर नहीं होगा और कोई कोस भर दूर हवा में लहराते हुए कपडे को देख कर मन हुलस उठेगा. मुझे ये गहरा एकांत पसंद है.

कल रात ग्यारह बज कर तीस मिनट पर घर आया. सब जाग रहे थे. खाना गर्म करके खाया और सो गया. बड़ी बुरी आदत है. सब कुढ़ते हैं. मैं अच्छी आदतें पाल नहीं सकता फिर भी परिवार मुझे ख़ुशी से पाल रहा है. रात को करवट ली होगी, याद नहीं. सुबह फिर वही घना जंगल मेरे आस पास खिल उठा.

वही दुबली लड़की और उसका साथी लड़का बातें कर रहे थे. सरकारी एजेंसी के लोग गुम हुए आदमी का पता लगाने की प्रक्रिया में जांच का कार्य कर रहे थे. जंगल के उसी मुहाने पर मैंने सुना. जिस आदमी की मैंने हत्या की थी, वह इस लड़की का पिता था या कुछ इसी तरह का रिश्ता. एक संवाद किसी अजगर की तरह मेरे चारों ओर कुंडली मार गया कि लापता आदमी की लाश को बरामद किया जा चुका है. हत्यारा उसकी गर्दन को मिट्टी में दबाना भूल गया था.

मेरी रजाई फांसी के फंदे में तब्दील हो चुकी थी और वह निरंतर मेरे गले की और बढती हुई सी लगने लगी. एक अपराधबोध से पीड़ित मैं पाषाण हो कर अनंत अँधेरे में खुद को डूबते हुए देख रहा था. भयानक सपना, ऐसा सपना कि मैं दो घंटे तक उसका सच खोजता रहा. मेरे सजीव होने का आभास मुझे डराने लगा, वह सब अव्यक्त है. आभा ने जब दूसरी बार कॉफी दी तब मैंने तय किया कि आज सुबह ही नहा लेना चाहिए. गीजर का गर्म पानी मुझे किसी यातना गृह में रखे उबलते कड़ाहे का आभास देगा, ये सोच कर डर गया. फ्रायड का मनोवैज्ञानिक विश्लेष्ण मैंने कई बार पढ़ा है इसलिए समझ आ गया कि मैं अवसाद में हूँ. नहा लेने से राहत हुई और यकीन भी कि मानसिक तौर से अस्वस्थ होने की दिशा में जा रहा हूँ. मैंने पाया कि अभी आभा को स्कूल जाने में एक घंटा है तब तक कुछ ब्लॉग देख लूं. "सुख अकेले सिपाही की तरह आते हैं और दुःख फ़ौज की तरह" नेपोलियन के ये कथन मेरे सामने खड़ा था. अपूर्व की पोस्ट देखी, ब्लोगिंग को अलविदा. मेरे सपने के बाद की इस ख़बर ने मुझे और अवसाद की स्थिति में पहुंचा दिया. दिन भर ऑफिस में रहा, दो बार संजय से बात हुई. वे दुखी थे. उन्होंने अपनी चिंताओं से मुझे वाकिफ कराया थोड़ी राहत हुई, पर ये मेरे लिए नाकाफी थी.

इन्हीं उजड़े बिखरे दिनों में, मैं लंगड़ाते हुए चलता हूँ, दोस्तों से बात करने को बेताब रहता हूँ कि कोई राहत की लहर इधर भी आये मगर दोस्तों को खुश नहीं रख पाता और अपने बेटे से कहता हूँ आज बेडमिन्टन की जगह एक चेस की बाज़ी हो जाये. आज की शाम होते होते एक मित्र से बात हुई. वो मित्र, एक सोने की अंगूठी है. जिसका हीरा अब आसमान का नक्षत्र हो चुका है. जब भी अंगूठी पर हाथ जाता है, खाली किनारे अन्दर तक चुभते हैं. अकेले बच्चों को बड़ा करते हुए, सिटी बस, स्कूटर, ट्राम का पीछा कर हमेशा ज़िन्दगी पर एक दिन की जीत दर्ज करता है. उन्हें जीवन से हार जाने वालों के प्रति सहानुभूति हो सकती है पर मैदान छोड़ जाने वालों के लिए शायद नहीं. उनकी हज़ार तकलीफों के आगे मेरे भयावह सपने बौने हैं. हमारी बातचीत इस वाक्य के साथ समाप्त हुई कि हम बात नहीं कर सकते.

ये एक बुरे दिन की बुरी शाम थी. मेरा मन असंयमित और अजीब सी उदासी में था. जो लोग ब्लॉग छोड़ कर जा रहे थे, उनके कोई पते मेरे पास न थे. मेरे पास थी आर्थर नोर्त्जे की स्मृतियाँ, नोर्त्जे यानि दक्षिण अफ्रीका का सबसे संभावनाशील कवि जो 1942 में जन्मा और 1970 में विलोपित हो गया. मात्र अट्ठाईस साल की उम्र में दुनिया छोड़ जाना कितना दुखद है. कहते हैं कि उसने ख़ुदकुशी कर ली थी. उसमे रंगभेद नीति का विरोध करने के लिए स्वदेश लौटने का साहस नहीं था. दोस्तों, मैं उस ऑर्थर नोर्त्जे की स्मृतियों के सहारे ही नहीं जीना चाहता हूँ. मुझे अपने आस पास संभावनाशील कवि कथाकारों की जरूरत है. सोचता हूँ कि क्या हिंदी ब्लॉग में सिर्फ लफ्फाज, लम्पट व शोहदे बचे रहेंगे और कवि कथाकार अपनी आहत आत्मा की संतुष्टि के लिए अलविदा कहते जायेंगे ? और कुछ सापेक्ष प्रश्नों के उत्तर में अपना लेखन स्थगित कर देंगे.

मेरा मन विचलित है और मेरे ख़यालों की दौड़ भंवर में फंस गयी है. ऑर्थर नोर्त्जे के कुछ शब्द आप तक भेज रहा हूँ, अगर वे अपील करे तो सब लौट आओ. हिंदी ब्लोगिंग में सिर्फ लम्पट ही नहीं बचे रहने चाहिए ? मैं आपको मेरे ब्लॉग रोल में देखना चाहता हूँ.

मुझे भय नहीं है सृष्टि की अनंतता
या प्रलय से

यह तन्हाई है जो क्षत विक्षित करती है
और रात को बल्ब की रोशनी

जो दिखाती है मेरी बाँह पर राख...

[ Photo Courtesy : http://www.unisa.ac.za/]