Sunday, September 12, 2010

इक फासले के दरम्यान खिले हुए चमेली के फूल


रसोई की खिड़की से उन पर हल्की सफ़ेद रौशनी पड़ रही थी। वे चमेली की बेल पर लगे हुए फूल थे। दूधिया जुगनुओं की तहर चमकते हुए। बेल जो झाड़ी जैसी हो गई थी। रात की स्याही में ज़रा उचक कर गौर से देखो तो लगता था कि उसने एक घात लगाये हुए वन बिलाव की शक्ल ले ली है। वे अनगिनत फूल थे। दीवार के सहारे चमकते हुए और नीचे कहीं धुंधले से दिखते हुए। नैना की ज़िन्दगी की तरह बिना करीने के खिले हुए। जहाँ मरजी हुई खिल आये। खिड़की की वेल्डिंग पर, मुख्य दरवाज़े की कड़ियों के बीच और लोहे की कोबरा फेंसिंग पर भी खिले हुये। वे फूल हरदम मुस्कुराते रहते थे। नैना, जब से इस घर में आई तब से ही देख रही है कि फूल उसे चिढाते हुए उगा करते हैं। वह इसके प्रति ज्यादा रिएक्ट नहीं करती थी कि लोग समझेंगे पागल है। जो चमेली के फूलों से नफ़रत करती है। इसी सदाशयता का फायदा उठाते हुये चमेली के फूल हर साल खिलते और झड़ कर उसके पांवों में आ जाते। बैरी हवा भी उनका ही साथ देती। फूल आँगन में हवा के साथ तैरते हुये उसके पास चले आते। वह उचक कर अपने पैरों को लकड़ी की कुर्सी के ऊपर उठा लेती जैसे कोई सांप सरसरा गया हो।

उस घर में बहुत ज्यादा लोग नहीं थे। नैना की उम्र से बीस साल बड़े एक सरदार जी थे। कद कोई छह फीट, खिचड़ी दाढ़ी और बाल, गठीला बदन लेकिन किसी अनजाने भर को ढोता हुआ। निपट अकेले, वह जब पहली बार इस घर का दरवाज़ा खोल कर अंदर आई, तब वे बिना किसी को बुलाये चुग्गा डाल रहे थे। घर में कबूतर थे। वे कबूतर सरदार जी को देख कर शालीनता से संवाद कर रहे थे। उन कबूतरों के बैठने वाली खिड़की से एक दरिया की पतली धारा बहती हुई दिख रही थी। अपने आस पास हरियाली लिए हुये वह संकरा बहाव बेहद खूबसूरत दिख रहा था। जैसे किसी ने दीवार में कोई सजीव पेंटिंग लगा रखी हो। वे कबूतर इतने शांत थे जितना कि पास ही चुपचाप बहता हुआ दरिया।

नैना घर के बरामदे में खड़ी थी। सरदार जी ने कबूतरों की तरफ से ध्यान हटते ही उसकी तरफ देखा। उन्होंने सर उठाया और पूछा "कहिये..."

नैना ने उनको नमस्ते किया फिर अपनी गोद से निकी को उतारा और कमर सीधी करते हुए कहा। "मुझे मालूम हुआ कि आपके यहाँ रहने को जगह मिल जाएगी। मुझे किराये पर एक कमरा चाहिए"
उन्होंने शायद सुना नहीं अगर सुना था तो भी वे बरामदे से घर के अंदर चले गए। सरदार जी के अंदर जाते ही नैना के पास वही समस्या आ खड़ी हुई कि फिर जाने कितने घरों में मकान के लिए पूछना होगा। लेकिन वह वहीं बैठी थी। नैना को उस समय वह चमेली के फूलों वाली झाड़ी नहीं दिखाई दी वरना वह उठ कर चल देती। बरामदा दो सीढ़ी ऊपर था। पक्के सीमेंट से बना हुआ फर्श था। एक हाथ उस पर रखते हुए नैना को लगा कि बाहर गर्मी कुछ ज्यादा ही है और वह निकी के पास बैठ गयी। मकान मालिक का यूं अंदर चले जाना एक तरह से मना ही था। नैना थकी हुई थी और उसने शायद सोचा कि आगे कोई और घर देखना नहीं है इसलिए कुछ देर सुस्ता कर चली जाये।

कैसा अजब समय था कि सड़कें, गलियां, दीवारें, कहवाखाने, सिनेमाघर और ऐसी ही सब चीजें जिन्हें वह बरसों से जानती थी, सब अजनबी हो गए थे। अब कोई एक कमरा ऐसा न था, जो उसका इंतज़ार करता हो।
वह एक टांग बरामदे से नीचे और दूसरी को मोड़ कर निकी को गोदी में लिए बैठी हुई साहस बटोर रही थी कि कल फिर सायमन को कहेगी कि नया घर खोजो प्लीज़। सायमान उसके लिए बहुत सारे खाली घर तलाशता रहता था और नैना हर सप्ताह के आखिरी दो दिन उन घरों को देखने जाती थी। कभी घर पसंद नहीं आता कभी घर में रह रहे लोग पसंद नहीं आते। किराए का घर हज़ार समझौते मांगता है। नैना भी इस बात को जानती थी मगर कम से कम ऐसी जगह तो मिले जहां हर पल किसी चिंता से न घिरा रहना पड़े। ज़िंदगी है तो दुख अवश्यंभावी है। सुख कहाँ होता है? सीपी को उसके खोल में या फिर कछुए कि मजबूत पीठ के नीचे दबा हुआ। उसने चारों तरफ नज़र दौड़ाई कहीं सुख नहीं था। शांति थी, असीम शांति। फिर उसे याद आया कि शांति भी सुख का एक स्वरूप है। उसने सोचा कि क्या वह सुख से घिरी बैठी है?

एक आवाज़ आई। "ये लो..." सरदार जी ही थे। एक हाथ में प्लास्टिक की ट्रे लिए हुए। उसमें एक दूध का छोटा ग्लास, दो बिस्किट और एक पानी की बड़ी बोतल रखी हुई थी। वह हतप्रभ थी कि अगर थोड़ा सा और न रुकती तो अब तक पोस्ट ऑफिस के पार जा चुकी होती। उसे अगली तीन बातों से अहसास हुआ कि अगर वह सचमुच चली जाती तो इस दूरी को सुख और दुःख के सेंटीमीटर में नापना कितना मुश्किल हो जाता। पहली बात सरदार जी ने कही "मेरा नाम तेजिंदर सिंह है, मेरे दो बेटे हैं। वे विदेश में रहते हैं। पत्नी कई साल पहले चल बसी। खाना खुद बनाता हूँ और शाम को रोज़ ही ब्लेक रम के दो पैग नियम से लेता हूँ। इस घर के किराये से कबूतरों के लिए चुग्गा आ जाये ये मुझे पसंद नहीं फिर भी तुम चाहो तो यहाँ रह सकती हो" इतना कह कर, वे अपने चेहरे के लिए उपयुक्त धैर्य ढूँढने लगे।

निकी दूध पी कर खुश हो गई। उसने आधा बिस्किट गिरा दिया था और आधा कमीज से पौंछ लिया था। नैना ने कहा। "रहने को जगह कहाँ मिलेगी?"

तेजिंदर सिंह ने घर पर एक विहंगम दृष्टि डाली। जैसे अपने ही घर को बरसों बाद देख रहे हों। हर कमरे को, खिड़की को गौर से देखा। जैसे खिड़की, दरवाज़ों और दालान से पूछ रहे हों कि ये औरत तुम्हें बरदाश्त कर सकेगी? फिर बोले "दांई तरफ मेरे छोटे बेटे ने अलग पार्टीशन करवा लिया था। दो कमरे और किचन हैं उस तरफ। उसी में लेट-बाथ भी हैं। घर में होते हुए भी दोनों बहुत अलग है। एक ही घर में खड़े हुए इन दो घरों के बीच में बस एक छोटी सी खिड़की है। तुम्हें तकलीफ हो तो उसे बंद कर देना।"

इस दूसरी बात के बाद नैना ने तेजिंदर सिंह से मुखातिब होकर कहा "हर शाम एक लड़की आया करेगी, निकी को रखने के लिए। वह चार घंटे रहेगी आपको एतराज़ तो नहीं होगा?"

"तुम्हारा नाम क्या है?"

"नैना"

"नैना, मैंने एतराजों को कनकोवे बना कर उड़ा दिया है, मगर ज़रा देर से..." ये कहते हुए तेजिंदर सिंह अंदर चले गए।

एक फ़ौरी यानि तात्कालिक मुसीबत का हल होते ही पूरी ज़िन्दगी आसान लगने लगती है। नैना ने भी दूसरा पांव सीधा कर लिया और निकी को गोदी से उतार दिया। उस दिन के बाद से ऐसे ही कई साल बीत गए। अब यही वह घर था जिसकी छत के तले वह सो जाया करती थी।
***

यही तो ज़िद थी उसकी कि मुझे घर नहीं चाहिए। क्या एक बात पर दो लोग ज़िन्दगी को अलग रास्तों पर ले जा सकते हैं? क्या हज़ार सहमतियों को भुला कर एक असहमति को याद रखा जाना अच्छा है? उसके मन में ऐसा गुमान भी नहीं था कि ये एक असहमति वाली बात साथ रहेगी बाकी सब छूट जायेगा।

वह प्रेम करने का समय नहीं था। दिन के साढ़े तीन बज रहे थे। अभी दो घंटे और बाकी थे लेकिन उसने उसी समय उसे देखा था। वह गमलों को सरका रहा था। कैफ़े के शीशे लगे मुख्य दरवाज़े के बाहर दोनों तरफ तीन स्टेप्स में गमले रखे हुए थे। उनमें भांत-भांत के फूल खिले रहे थे। उसने दो गमलों के बाद तीसरा सरकाया और अपने लिए जगह बना ली। नैना ने उस समय नहीं सोचा कि जो आदमी दूसरों को सरका कर जगह बना रहा है, कब तक उसका साथ देगा। वास्तव में ये प्रेम करने का समय नहीं था फिर भी उसने दिन के ठीक साढ़े तीन बजे ही उसे पहली बार देखा था। ब्लू कलर की डेनिम जींस और लाल रंग का बदरंग कुरता पहने हुए। उसने अपनी दाई तरफ में गिटार का कवर रख कर उस पर मोड़ा हुआ घुटना रख लिया फिर उसने बायीं जांघ पर रखते हुए गिटार के एक तार को हल्के से छू भर दिया।

ज़िन्दगी में वक़्त का कोई हिसाब नहीं है। कभी आप एक गुड्डे गुड्डी के नाचते हुए खिलौने को दिन भर देखते हुए विंड चाइम का संगीत सुन सकते हैं और कभी एक पल भी भारी हो जाया करता है। उन दिनों नैना के पास विंड चाइम को सुनने का समय था। वह रात नौ बजे कैफ़े से निकलती। तब वह अपने गिटार को केस में डाल रहा होता। वह कई सारी छोटी छोटी चीज़ों को संभाल रहा होता। यह एक तरह से दुकान बंद करने जैसा काम था मगर चूंकि वह एक आर्टिस्ट था इसलिए इस काम की तुलना यूं करना उचित नहीं था। वह अपनी पोशाक में भी कुछ कम ज्यादा किया करता था। आखिर में वह उसी तरह का हो जाता जैसा दोपहर साढ़े तीन बजे दिखा करता था।

सड़क सबके लिए थी। अभिजात्य और निम्न वर्ग के लोगों में भेद करना कठिन था कि उस दौर में लोग जैसे थे, वैसा दिखना नहीं चाहते थे। रईस लोग चप्पल पहने हुये घूमा करते थे। गरीब लोग अपने फटे पाँवों को पुराने मगर ज्यादा पोलिश किए हुये जूतों में छिपाए हुये घूमते थे। ऐसे ही लोगों से भरी हुई उस सड़क पर वे दोनों एक साथ चलते थे। एक दिन बस स्टाप की बैंच पर देर तक बैठे रहे। हवा में कोई मादक गंध न थी। सूखे पत्तों से ज्यादा सिगरेट की पन्नियों का शोर था। शहर भर के लोग जिंदगी को धुआँ बना कर उड़ा देना चाहते होंगे। नैना और उसके बीच धुआँ न था। बस कोई एक खास किस्म की गंध थी। वही उन दोनों की पहचान कायम करती थी। एक ऐसी पहचान जो निरंतर गाढ़ी होती चली जा रही थी।

इस पहचान को गाढ़ा करने में बहुत सारी चीज़ें और घटनाएँ शामिल थीं। वे घटनाएँ यूं तो रोज़मर्रा में सबके साथ होती हैं मगर कुछ लोगों के लिए खास हो जाया करती थीं। जैसे कि सिम्पल कॉफी का ऑर्डर देने के लिए भी मेन्यू कार्ड पर दोनों का हाथ एक साथ जाना और फिर एक साथ ही वापस खींच लेना। जैसे बस की टिकट के लिए एक साथ ही पर्स खोलना और एक साथ ही वापस रख लेना। जैसे विदा होते वक़्त एक दूसरे के ज़रा करीब होकर चलना। आहिस्ता से ज़िंदगी आदमी को वो सब बातें भुला देती है जिनको वह एहतियात के तौर पर साथ रख कर रिश्ते की शुरुआत करता है। जैसे कम और संजीदगी से बोलना। खाने पीने में पूरे सलीके को ओढ़े हुये रखना। अगले के सम्मान में शालीन बने रहना। लेकिन भीतर का असली चेहरा हमेशा इन सब चेहरों को उतार फेंकने के लिए उकसाता रहता है।

वे खूबसूरत दिन थे। उनका अनावृत होते जाना और भी सुंदर हुआ करता था। ऐसे असंख्य दिनों की स्मृतियाँ नैना के साथ ही रहा करती थी।
***

नैना ने झट से उफन रही दाल पर रखे ढक्कन को उठाया। अंगुली जल गई। ऐसे ही उसने भी एक बार जली हुई अंगुली पर चमेली के फूलों को बाँध दिया था। हँसता था, खिल उठेगी अंगुली फूल की तरह। मगर अगली सुबह उसी अंगुली पर एक फफोला निकल आया। अब भी रसोई के बाहर रौशनी में फूल चमक रहे थे। वे ही नाकारा फूल। उसकी याद के, उसके साथ के सफ़ेद फूल। वह जब हाथ पकड़ता तब दौड़ने सा लगता था। नैना का साथ पाते ही उसे कोई जल्दी याद आ जाती थी। नैना के बिना वह अक्सर बास्केट बाल के खम्भे से टेक लिए गिटार बजाते हुए दिन बिता देता था। ये बास्केट बाल का मैदान सुबह दस से शाम तक खाली पड़ा रहता था। इसके पास खिलाड़ियों के लिए पानी पीने की टंकी बनी हुई थी। आराम करके के लिए शेड भी थी। उसे यही दो चीज़ें चाहिए होती थी। बाकी सब उसके झोले में रहा करती थी।

उसके पास एक चमेली के फूलों की तस्वीर वाला थर्मस था। इस थर्मस में ब्लेक कॉफ़ी भरी रहती थी। दिन चाहे कड़क हो या ठंडा उसकी कॉफ़ी का रंग कभी नहीं बदलता था। एक दोपहर उसने ख़ास नैना को बुलाया था। वह जाने क्यों हमेशा चाहता था कि नैना उस बास्केटबाल के मैदान में आए। वहाँ शेड के नीचे आराम से बैठ जाए और वह खंभे की टेक लिया हुआ, लातिन अमेरिकी चरवाहों की कोई धुन बजाए। जैसे ही नैना वहाँ पर आती उसकी धुन बदल जाती। उसने जो सोच रखा होता था, वह सब कुछ भूल जाता। ये अजीब बात थी कि प्यार की शुरुआत में उदास गाने याद आने लगते। एक आशंका हमेशा प्रेमियों को मिलने से पहले ही घेर लेती है कि वे बिछड़ जाएंगे। वह भी चरवाहों की उल्लास भरी धुन की जगह उड़ीसा की लोक गायिकी के जादू से सजा हुआ सचिन देब बर्मन हो जाता। उसका गिटार गहरी उदास लोक धुन बजाने लगता।

एक दोपहर नैना को देखते ही उठा और हाथ पकड़ कर भागने लगा। वह बेतहाशा भागता गया। नैना उससे हाथ छुड़ाने की जगह लोगों को देखने लगी कि वे उन दोनों को इस तरह भागते हुये देख कर कैसा मुंह बना रहे हैं। वह इन सब बातों से अनजान बना हुआ सिर्फ दौड़ता गया। वे जहां जाकर रुके, वह एक पॉश कॉलोनी का पुराना बंगला था। वह दरवाज़ा खोलते हुए दीवार से सटी खड़ी चमेली की बेल दिखाने लगा। नैना ने याद किया कि वह वाकई पागल था। अव्वल दर्ज़े का पागल कि कुछ एक फूलों को दिखाने के लिए इस तरह उसे भगा लाया था। वह खड़ा देखता रहा और नैना सोचती रही कि अभी इस घर से कोई आएगा और उन दोनों को दुत्कार कर बाहर कर देगा।
***

इस घर में रहते हुए नैना को दस साल हो गए। इन दस सालों में तेजिंदर सिंह ने कभी उस छोटी खिड़की से कोई चीज़ नहीं ली। वह खिड़की खुली है या बंद है इस पर कभी किसी का ध्यान नहीं जाता था। नैना कहती, आज मैंने कुछ आपके लिए बनाया है तो तेजी साहब कहते बड़े दरवाज़े से आओ। ये चोर खिड़कियाँ तो मुझे रिश्तों की जेल सी लगती हैं। नैना लगभग रोज़ उनका खाना बनाती और रोज़ ही ये संवाद होता था। इससे ज्यादा वे कुछ नहीं बोलते थे। खाने की परख नहीं करते थे, जैसा था वैसा था। निकी के साथ नहीं खेलते थे। उससे उतना ही नाता था, जितना कि गुटर गूं करते कबूतरों से। नैना को कुछ अधिकार स्वतः प्राप्त लगते थे यानि वह पिछले दस सालों में इसी घर में रहते हुये इतना अधिकार पा चुकी थी कि इस बेल को कटवा सकती थी। ये चमेली की गंध उससे दूर हो भी सकती थी मगर ऐसा हुआ नहीं। एक बार उसने चमेली को पास खड़े हो कर देखा था फिर यकायक लगा कि कोई देख रहा है। सरदार तेजिंदर सिंह उसे और चमेली को गूढ़ अर्थों में एक साथ देख रहे थे। वह सहम गई और फिर कभी उस बेल के साथ सट कर खड़ी नहीं हुई।

नैना कुछ भी न भूलने को अभिशप्त थी। उस दिन शहर में हादसा हो गया था। उसने किसी अधिकार से उसे रोक लिया। आज की रात मत जाओ। एक कमरे का फ्लेट। स्नान घर को छोड़ कर सब उसी में था। एक कोने में रसोई, एक में बेड रूम, एक में बालकनी। वे उस रात सोये नहीं थे। दो साल बाद नैना खुश थी। वह खुश नहीं था। उसको अचानक से लगने लगा कि ये बंधन है। ये पथरीली चट्टान है। ये इंसानी आज़ादी के साथ धोखा है। सच में वह वही था, जो गमलों को सरका कर अपने लिए जगह बना रहा था। गिटार बजता था मगर उसकी धुनें क्षण भर बाद व्योम के धूसर अंधेरे में खो जाती थी।

आखिर एक दिन नैना अनकही बातों को सुनते सुनते थक गयी।

"मैं बोझ हूँ तुम्हारे लिए, ये दो साल की बच्ची बोझ है, तुम्हारे लिए"

वह चुप रहा। खिड़की पर चला गया। नीचे गली में बाहर बच्चे खेल रहे थे। उन बच्चों के पास खेलने के लिए जगह नहीं थी। वे कारों और स्कूटरों के बीच अपनी जगह बना कर खेल रहे थे। उनमें चाहत थी कि खेला जाए इसलिए कम जगह में भी बहुत सारी जगह निकल आई थी। बच्चे हर बाल को फैंक कर और हिट करके खुश हो रहे थे। वह खुश नहीं हो पा रहा था। वह चाहता था कि अभी सीढ़ियाँ उतर कर उन बच्चों के पास चला जाए। वह खुद वापस एक बच्चा बन सके। वह जिंदगी के इन असमतल रास्तों पर कोई बोझ उठा कर नहीं चलना चाहता था। खिड़की से वापस लौटा तो वही एक साल की बच्ची और नैना चुप बैठे, उसके उत्तर का इंतजार कर रहे थे।

"मैं ऐसे परिवार बना कर नहीं रह सकता..."
"मैं बिना घर के नहीं रह सकती"
"मैंने पहले ही कहा था कि मुझे घर बनाने से नफ़रत है"
"मगर ये तो नहीं कहा था कि बच्चों से भी है..."

एक चुप्पी के बाद वह बोला। "ये तुम्हारी ज़िद थी, और घर भी... मैं इसका भागीदार नहीं हूँ" वह टहलने लगा जैसे उत्तर का इंतजार कर रहा हो।

"ओ के, तुम जा सकते हो"

"तुम कहाँ जाओगी?"

"ये पूछने का हक़ उसको नहीं है, जो छोड़ कर जाना चाहता है"

"मेरा ठिकाना नहीं है इसलिए बता नहीं सकता, मगर तुम तो घर बनाओगी ना"

"नहीं, तुम ये अधिकार नहीं पा सकते कि लौटने के लिए एक पता रखो और मैं..."

वे अलग हो गए थे। शामें यूं ही गुज़रती रही। एक कैफ़े था। जहाँ वह पार्ट टाइम जॉब को फुल टाइम के तरीके से करती। गिटार बजाने वालों की जगहें डी जे ने ले ली थी मगर उसकी ज़िंदगी की खाली जगह में कुछ धुनें ठहर गयी थी। जैसे बास्केट बाल का पोल पुराना होने के बावजूद गिरता नहीं था।
***

नैना ने एक बार अपने कंधों को पीछे की ओर झुकाया। निकी टेबल पर अपने खिलौने सजा रही थी। निकी ने जाने कैसे एक आदत बना ली थी कि वह अपना होमवर्क स्कूल में ही पूरा कर लिया करती थी। नैना ने सोचा, काश उसने भी एक आदत बना ली होती कि वह जाने कि ज़िद करता और वह हर बार चुप रह कर उसे रोक लेती। कितना अच्छा होता कि उसकी यादें गिनी चुनी चीजों में रह जाती। ऐसा नहीं हुआ। जिन चीजों को को वो पसंद करता था, उनमें वह याद आता था और जिनको नहीं उनमें भी।

तेजिंदर सिंह के घर में वह बिना किसी रिश्ते और किराये के दस साल से रह रही है। पहली बार जब किराया लेकर गई थी तब तेजिंदर सिंह बोले। इसे अपने पास रखो, मैं ले लूँगा। इसके बाद दूसरी बार गई तब भी यही कहा था। तीसरी बार उन्होने कहा कि जाने क्यों मुझे कोई बात कहनी आती ही नहीं है। मैं किसी को अपने मन की बात समझा नहीं पाता हूँ। तुम तीन महीने से यहाँ रह रही हो। तुम मुझे जान न पाई... इसके आगे भी वे कुछ कहना चाहते थे मगर अचानक से रुक गए।

इसके सिवा वे कभी उससे बात नहीं करते बस जवाब देते हैं। क्या वो ऐसे नहीं रह सकता था। कोई बात न करता। चुपचाप अपना काम कर लेता। हमारी कोई मदद न करता, बस वह होता। कभी उदास कभी खुश, कभी कभी होता।
***

शाम उदास, सुबह खाली और दिन पीले... बस बीतते गए। इधर साझे घर में तेजी साहब कबूतरों की कौनसी पीढ़ी को पाल रहे थे, पता नहीं था। नैना ने दाल को बघार लगाया। चमेली के सफ़ेद फूलों की तरफ एक उजड़ी हुई निगाह डाली। सलाद को सलीके से रखा और रसोई से चल पड़ी। दरवाज़ा खुला था। तेजी साहब तहमद और कुरता पहने चुप बैठे थे। सामने टी वी पर कोई पंजाबी गीत बज रहा था। इस गीत में एक नौजवान सरदार उछल कर गा रहा था। लड़की पीले फूलों वाले खेत में चुप चली जा रही थी। नैना ने सलाद और दाल की कटोरी रखी। वे कुछ नहीं बोले। एक नज़र घुमाई और लेपटोप को देखने लगे। मेल खुला हुआ था और इन बोक्स खाली था।

नैना बैठ गयी।

घर कैसा हो गया है। खाली पड़े स्वीमिंग पूल की सूखी हुई काई जैसे हरे रंग सी दीवारें। तस्वीरों से झांकते बेनूर चेहरे और जगह जगह उगा हुआ खालीपन। ये दीवारें अगर न हों तो कैसा दिखेगा? आसमां से टूटे तारे के बचे हुए अवशेष जैसा या फिर से हरियाने के लिए खुद को ही आग लगाते जंगल जैसा। जंगल खुद को आग लगाता है, कई पंछी भी इसी आग में कूद जाते हैं। जंगल अपनी मुक्ति के लिए दहकता है या अपने प्रिय पंछियों के लिए, ये नैना को आज तक समझ नहीं आया था।

चुप्पी में दाल के तड़के की गंध तैरती रही। तेजी साहब नहीं उठे। नैना, इन दस सालों में पहली बार उनके पास आकर बैठी थी। उसने आगे बढ़ कर एक ग्लास और ब्लेक रम की बोतल उठा ली। उसके ऐसा करने के पीछे जो भी महान या क्षुद्र विचार रहा होगा उसे झटकते हुए आहिस्ता से तेजिंदर सिंह उठे। ला अपना हाथ दे। नैना का हाथ पकड़ कर सरदार जी कमरे से बाहर आ गए। वे दोनों धीरे धीरे चलने लगे। बाहर हवा में ठंडक थी। कहीं दूर कोई पंछी बोल कर चुप हुआ जाता था। वे बरामदे से भी बाहर निकल आए।

मकान के दायें हिस्से की तरफ बढ़ते हुए नैना रोने जैसी थी कि उसको समझ नहीं आया कि ये हाथ पापा ने थाम रखा है या उसने... मन भीगने लगा। वे अब चमेली के फूलों से दस कदम दूर खड़े थे। तेजिंदर सिंह ने एक ठंडी आह भरी। "ये बेल मेरे छोटे बेटे ने लगाई थी। जिसने इस घर में रहते हुए इसके दो हिस्से किये फिर वही एक दिन रूठ कर विदेश चला गया। इस पर जाने कितनी ही बार फूल आए हैं। पता है, ये फूल उसने इसलिए लगाए कि उसकी माँ को पसंद थे"

सरदार तेजिंदर सिंह और नैना दोनों अतीत के उस तालाब में गिर पड़े जिसके पानी में सिर्फ चमेली के फूलों की गंध घुली हुई थी। वे दोनों रो ही पड़ते, वे दोनों डूब ही जाते मगर अचानक वे लौटने लगे। तेजिंदर सिंह ने मुड़ कर मुस्कुराते हुए चमेली के फूलों को देखा। "नैना, मैंने कई बार सोचा कि इस बेल को कटवा दूं मगर तुझे इन फूलों को इतने प्यार से देखते हुए देखा तो मन नहीं माना."
***

[Painting Image Credit : Mizzi]

Sunday, April 11, 2010

अंजलि, तुम्हारी डायरी से बयान मेल नहीं खाते हैं



निस्तब्ध कोठरी के कोनों से निकलकर अँधेरा बीच आँगन में पसरा हुआ था। दीवारों से सटी चुप्पी से अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल था कि यहाँ पाँच लोग बैठे हैं। उन सब लोगों में एक ही साम्य था कि वे सभी एक लड़की को जानते थे या उसकी ज़िंदगी को कहीं से छू गए थे। चमकदार सड़क से होता हुआ गठीले बदन वाला ऑफिसर मद्धम प्रकाश वाली इस बड़ी कोठरी में दाखिल हुआ। दुनिया देख कर घिस चुकी उसकी आँखें छाया प्रकाश की अभ्यस्त थीं। ऑफिसर ने कम रोशनी में भी पंक्ति बना कर बैठे लोगों को पहचान लिया। एक पर्दा कोठरी को दो भागों में बाँट रहा था। नीम अँधेरे में ये पर्दा और अधिक भय एवं रहस्य को बुन रहा था।

ऑफिसर ने पर्दे के ठीक आगे, एक बिना हत्थे वाली बाबू-कुर्सी रखी। उस पर अपना पाँव रखते हुए बोला "कोतवाल साहब, अब रीडर जी और एल. सी. को बुलाओ।" बिना पदचाप के दो साये आये और कोने में एक टेबल के पीछे रखी दो कुर्सियों पर बैठ गए। जबकि ऑफिसर अभी भी उसी मुद्रा में खड़ा था। सन्नाटा तोड़ने के लिए कोई तिनका भी न था, मानो ऑफिसर इसे एक मनोवैज्ञानिक हथियार की तरह धार दे रहा हो। कै हो जाने से पहले की हालात में बैठे हुए लोगों के चहरे पर यहाँ से बाहर निकल पाने की उम्मीद जगी, जब कुछ क्षणों के बाद बयान दर्ज़ किये जाने की प्रक्रिया आरंभ हुई।

ऑफिसर का इशारा पाकर एक लड़का खड़ा हुआ और बोला विनीत श्रीवास्तव यानि दोस्त

पहचान ?
सर, मेरे पिता नहर परियोजना में इंजीनियर हैं और माँ कॉलेज में दर्शनशास्त्र पढ़ाती हैं। मैं बेंगलुरु के एक निजी अभियांत्रिकी कॉलेज में पढ़ता हूँ।

क्या जानते हो लड़की के बारे में ?

मैंने उसे पहली बार घर के बाहर दूब में पानी देते हुए देखा था फिर वह कई बार कॉलेज जाती हुई दिखी। हमारी जान पहचान बढ़ती गयी क्योंकि हम दोनों के पापा एक ही ऑफिस में थे। सर फिर हमारी दोस्ती हो गयी थी। कभी-कभी हम शाम को पार्क में मिला करते थे। ऐसे ही जैसे और लड़के लड़कियाँ मिला करते हैं। वहाँ उसके साथ बैठकर शाम को पंद्रह-बीस मिनट रोज़ बात किया करता था। वह कई बार मुझसे कुछ किताबें मँगाया करती थी। मैं अपने दोस्तों से लाकर उसे दिया करता था। वह पढ़ने में बहुत अच्छी थी, वह देखने में बेहद सुंदर थी। उसके कपड़े पहनने का सलीका भी आधुनिक था। वह किसी से डरती नहीं थी और उसने मुझे दोस्त कहा था इसलिए मैं उसे पसंद करता था।

कितना पसंद ?

विनीत ने बुझी हुई आशंकित निगाह से देखा और कहा। सर पहले करता था मगर बाद में उसका व्यवहार बदलने लगा बहुत देर तक पार्क में बैठी रहने लगी। वह अजीब से सवाल भी करने लगी। मुझे कहती थी कि तुम बदल गए हो। जबकि मैं और वह सिर्फ दोस्त ही थे। हम छोटे से क़स्बे में रहते हैं, वहाँ लोग कई तरह की बातें बना लिया करते हैं। इस तरह से बागीचों में मिलना अच्छी बात नहीं मानी जाती है। ये मैंने उसे समझाया लेकिन उसने मेरी बात नहीं मानी। एक बार वह मेरा हाथ पकड़ कर बैठी थी तब मेरी मम्मी ने देख लिया और फिर मुझे बहुत डांटा गया। हम दोनों को अलग रहने की हिदायतें दी गयीं। उसके बाद भी वह ज़िद करती थी मगर मैं फिर कभी उससे नहीं मिला।

कभी नहीं ?

जी कभी नहीं।

ऑफिसर ने लड़के को उसी जगह बैठ जाने को कहा जहाँ से वह खड़ा हुआ था। उसके आगे एक सुंदर-सी नाटे कद की लड़की बैठी हुई थी। लड़की ने उठकर अपना नाम बताया। रमा दीवान। मैं अंजलि के साथ पढ़ती थी।

रमा दीवान यानि सहपाठी
एक रात को कॉलेज हॉस्टल में हो-हल्ला सुन कर मैं अपने रूम से बाहर निकली तब पहली बार उसके नाम पर मेरा ध्यान गया, अंजलि सिंह। हॉस्टल की कुछ लड़कियों ने वॉर्डन से शिकायत की थी कि पास के रूम से सिगरेट के धुँए की गंध आ रही है। उसका रूम खुलवाया गया। उसमे से बहुत तेज गंध आ रही थी। आप जानते हैं कि बंद कमरे में भले ही एक सिगरेट पी जाये किंतु उसमें बहुत देर तक गंध बसी रहती है। अंजलि रूम में रखे हुए लकड़ी के पाट पर चुप बैठी थी और शिकायत करने वाली लड़कियाँ अपनी नाक को इस तरह सिकोड़ रही थीं जैसे वे किसी अस्पृश्य बू से नापाक हो गयी हों। कमरे की बालकनी में बहुत सारे सिगरेट के टोटे पड़े हुए थे। वॉर्डन और उनकी सहायक ने हिकारत भरी निगाह से अंजलि और उसके सामान को देखा। उनकी निगाहें इस अक्षम्य अपराध पर सब कुछ उठा कर बाहर फेंक दिये जाने जैसे भाव दिखा रही थीं।

सर, अंजलि को कल सुबह ऑफिस में आने को कह कर वॉर्डन चली गयीं। कुछ लड़कियाँ फुसफुसाती, मंद-मंद हँसती और कुछ चेहरे पर आश्चर्य के भाव बनाते हुए, अपने-अपने कमरे में चली गयीं। मुझे इसतरह एक लड़की को अकेली छोड़ कर आना अच्छा नहीं लगा तो मैं उसके पास रुक गयी। “क्या हुआ?’’ मेरे पूछने पर बोली। “क्या हुआ सिगरेट ही तो पी है” उसके चेहरे पर किसी तरह के नए भाव नहीं थे। वह बेहद शांत थी और उसकी आँखें किसी शून्य के मोह में बँधी हुई दिख रही थीं। “किसने सिखाया तुम्हें सिगरेट पीना?” अंजलि ने एक डूबी हुई किंतु गहराई से उपजी मुस्कान से कहा- “मेरे दोस्त ने।“ उस रात के बाद मैं हमेशा उसे अपने साथ रखती थी लेकिन उसका अकेलापन चारों ओर से उसे घेरे रहता था।

उससे घनिष्ठता के बाद के दिनों में, कई बार वह शाम होने से पहले हॉस्टल से निकल जाया करती थी। रात को मालूम नहीं किसी तरीके से अपने रूम में बिना किसी को ख़बर हुए पहुँच जाया करती थी। अंजलि ने एक बार मुझे बताया था कि वह किसी मंदिर जाया करती है। वह सुनसान पहाड़ी के बीच में बना हुआ है। वहाँ एक बाबा रहता है मगर बड़ा बेकार आदमी है। एक ख़ास बात उसने मुझे बताई थी, जिसे मैं आज तक नहीं भूल पाई हूँ। वह एक शाम बेहद निराश होकर सड़क पर खड़ी थी और उसने एक ऑटो रुकवाया था फिर जब ऑटो वाले ने पूछा कहाँ जाना है तो उसने कहा था। “जहाँ चाहो ले चलो।” उसने जब मुझे ये बताया तो मैं उसके एकाकीपन से डर गयी थी।

सर हम लोग कोई एक साल तक साथ में रहे थे, उसके बाद।

एक मौन का सिरा थामे हुए, रमा चुप हो गयी। ऑफिसर ने तीसरे आदमी की तरफ देखा।

मंडल नाथ यानि पहाड़ी शिव मंदिर के महंत
बम भोले!, ईश्वर सबका भला करें। साहेब, उस दिन शाम के सात बजने को थे और मैं आरती के लिए नहाकर मंदिर की झुक आई ध्वजा को सही करने के लिए दीवार पर खड़ा हुआ था। वहाँ से मैंने देखा एक लड़का पहाड़ी से कूद कर अपनी जान देना चाहता है। मैंने चिल्लाना उचित नहीं समझा क्योंकि मैं ऐसा करता तो वह निश्चित ही कूद जाता। इसलिए मैं बिना आवाज़ किये उस तक पहुँचा और उसको कमर से कस कर पकड़ लिया। पहाड़ी के ठीक ऊपर खड़ा देखकर जिसे मैंने लड़का समझा था, वह वास्तव में एक लड़की थी। उसने कमीज और पैंट पहनी थी इसलिए मुझे धोखा हो गया था। मैं उसे अपने साथ मंदिर तक लाया और पूछा- “बेटी ऐसा गलत काम क्यों करना चाहती हो?” साहेबान वह बेहद दुखी लड़की थी। हमारे समाज में स्त्रियों को घनघोर कष्ट दिये जाते हैं, कुछ हल्के होते हैं जिन्हें आप शारीरिक कहते हैं और बाकी गंभीर जिन्हें मानसिक कहा जाता है। वह मानसिक कष्टों से घिरी थी। ईश्वर की कृपा से उस बच्ची ने मेरी बात मानी अपने मन के विकारों को प्रकट किया। प्रभु के द्वार पर मैंने उसे चरणामृत दिया, धूणे की चुटकी भर राख उसको दी और फिर वह चली गयी।

और क्या हुआ था उस दिन ?

मैं भगवान का भक्त हूँ, उसकी आराधना में लीन रहता हूँ। उसे सीढियाँ उतरते हुए देख लेने के बाद, मैं आश्वस्त हो गया था। मेरा मन भी प्रसन्न था कि देव चरणों में बैठने से मैं ये शुभ कार्य कर सका। ईश्वर की लीला अपरंपार है फिर कभी उसका आगमन उस मंदिर में नहीं हुआ।

बाबा की जिज्ञासु आँखों के कोरों पर अटकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा को अनदेखा करते हुए ऑफिसर ने चौथे आदमी की तरफ देखा, जिसने नीली जींस पर खाकी रंग का कमीज पहना हुआ था।

बीदा रावत यानि टैक्सी ड्राईवर
नमस्कार साब! सितंबर का महीना था और शाम को पाँच बजे थे, तब मैंने उसे पहली बार देखा था। उसने मुझे रुकने का इशारा किया। वह टैक्सी में बैठी और बोली, फतेहसागर चलो। मैं उसको वहाँ ले गया। उसने मुझे पंद्रह रुपये दिये और झील के सामने पहाड़ी पर बने बागीचे की सीढियाँ चढ़ गयी। मैं वहाँ से घाटी में अपने घर चला गया। शाम की चाय पीकर जब वापस जा रहा था तब सड़क के किनारे कुछ लोग गोल घेरा बनाये हुए खड़े थे। मैंने उन लोगों के बीच जाकर देखा तो वही लड़की सड़क के किनारे आधी बेहोशी जैसी हालात में थी।

साहब, मैंने लोगों से कहा कि इसे अस्पताल पहुँचा देते हैं लेकिन मुँह पर पानी के छींटे मारने से वह होश में आने लगी थी। वह टैक्सी में बैठते ही बोली- “मैं यहाँ अकेली हूँ इसलिए मुझे अपने घर ले चलो।“ साहब मैं उसको अपने घर ले गया। मेरी बीवी ने उसको एक ग्लास जूस पिलाया, पंखे से हवा की। मैंने इशारा कर बीवी को एक तरफ बुलाया और कहा कि पता करे मामला क्या है? खामखाह हम न उलझ बैठें। उसने बताया कि वह यहाँ अकेली रहती है और उसका मन नहीं लगता इसलिए बाहर घूमने चली आया करती है और कमजोरी से चक्कर आ गया है। उसको अपने परिवार की बहुत याद आती है। जब हम ने देखा कि वह यहाँ आराम से है तो मैंने कहा- “तुम मुझे अपना भाई समझो और जब भी जी करे यहाँ भाभी के पास चली आया करो।“

बड़ी जल्दी रिश्तेदारी हो गयी ?
साब, बच्चों की कसम खा के कहता हूँ कि मैंने उस अकेली लड़की की मदद करने को ही बहन बोला था। वह मेरे राखी बाँध के गई। मेरी बीवी ने उसको अपने हाथों से गरम खाना खिलाया। परदेस में कहीं अपनापन मिल जाये तो बड़ा आसरा होता है। हाँ वो खुश थी, उसके बाद हमारे घर नहीं आई मगर उसने कहा था कि लौट के आएगी तब यहीं रुकेगी।

अधेड़ उम्र के इस आदमी ने दोनों हाथ एक याचक की तरह जोड़ लिए थे। एक चालीस-पैंतालीस साल की औरत अपनी जगह से उठ कर ऑफिसर के सामने चली आई।

बादामी यानि काम वाली बाई
अंजलि बेबी बहुत अच्छी लड़की थी साब, उसको संगत सही नहीं मिली। एक सुबह झाड़ू मारते हुए मैंने फर्श पर गिरी हुई, उसकी पैंट को अलमारी में टाँगा। उसमें एक टूटी हुई सिगरेट थी। मुझे उसी समय मालूम हो गया कि कुछ गड़बड़ है। मैं रोज़ उसका ध्यान रखने लगी। मुझे मालूम था कि बीड़ी पीती है तो जरुर कुछ गड़बड़ है। इसी चक्कर में एक दिन मैंने उसके पेट पर लाल निशान देखा तो उसे पकड़ लिया। फिर पूछा किसने किया? वह बहुत देर तक नहीं बोली फिर रोने लगी। उसको दोस्त लोगों ने ख़राब कर दिया था। उसके बदन पर नोंच के निशान देखकर मुझे भी अपनी पीठ याद आ गयी। ऐसा होता है सब औरत के साथ, पर साब उसकी तकलीफ़ थी कि ये शादी से पहले होने लगा। मैंने उसको बोला कि छोड़ दे सबको, अच्छा अफसर की बेटी है, अच्छा काम करो अच्छा से जीयो। वो मेरी सब बात सुन कर भी चुप रही।

किसने ख़राब किया ?
साब उसने कभी नाम बताया नहीं, वो बोलती थी कि कौन किसको ख़राब करता है? सब आप डूबते हैं। मुझे डूबे रहने दो। बाई, तुम बड़ी मूरख बात करती हो।

बादामी देवी के बयान की आखिरी पंक्ति बीदा रावत, मंडल नाथ और विनीत को किसी वेदवाक्य की तरह सुनाई दी। ज्यादा सवाल न पूछे जाने से और सख्ती किये जाने के भय से निकल आने के कारण कोठरी का मटमैला अँधियारा कुछ हल्का हो गया था। सब अपने फ़र्ज़ की अदायगी हो जाने के अहसास से कुछ आराम में आ गए थे। ऑफिसर अभी भी उसी पोजीशन में खड़ा हुआ था जैसे कोई विचारमग्न मूर्ति एक नियत अंतराल से निर्धारित सवाल पूछने के लिए बनाई गयी हो। घड़ीभर की ख़ामोशी के बाद ऑफिसर ने मीता पुरी को आवाज़ लगाई।

ठक-ठक की आवाज़ वाले कील लगे जूतों की जगह चीते जैसी चुप्पी वाले क़दमों से कंधे पर दो सितारे लगी वर्दी पहने हुए एक लड़की रौशनी से नीम अँधेरे की तरफ आकर सेल्यूट करके खड़ी हो गयी।

सर!, मीता पुरी यानि इन्वेस्टिगेशन ऑफिसर फॉर स्युसाईड केस ऑफ़ अंजलि सिंह

जनाब थाना कोतवाली सिटी में सुबह आठ बजे सूचना मिली कि अशोक सिंह वल्द हनुवंत सिंह की पुत्री अंजलि की मौत हो गयी है। मौका मुआयना करने पर पाया गया कि किसी प्रकार के संघर्ष के निशान मर्ग कारित होने के स्थान पर नहीं थे। कमरे में सभी सामान सलामती के साथ था। दरवाज़े के अलावा कमरे में आ सकने के स्थान, खिड़की से भी किसी आमद का कोई संकेत नहीं पाया गया। लड़की के शरीर के नीला हो जाने के कारण उसको ज़हर दिये जाने की आशंका के चलते परिवारजनों को पोस्टमार्टम के लिए राज़ी किया गया। लड़की के चाल-चलन और ताअल्लुकात पर कोई एतराज़ पडौ़सियों को नहीं था।

इस जाँच के दौरान मुझे यानि मीता पुरी को मृतका की एक निजी डायरी भी मिली है। इसके कुछ पन्ने इस मर्ग को सुलझाने में अहम हैं।

अंजलि ने एक विनीत नामक लड़के के बारे में लिखा है।

तुम मुझे छूते हो तो अच्छा नहीं लगता, मगर तुम्हारी बातें मुझे बहुत अच्छी लगती हैं। आज की शाम हमेशा की तरह बहुत सुंदर होती अगर तुमने मुझे पार्क के मूर्तिकक्ष वाले कोने में ले जाकर, जानबूझ कर अपनी सौगंध देकर सिगरेट ना पिलाई होती। तुम कहते हो कि मैं मर जाऊँगा। मगर मैं ऐसा होने नहीं दूँगी। तुम्हारे लिए मैं हज़ार सिगरेट पी सकती हूँ। आई लव यू। लव लव लव यू।

आगे एक महीने के बाद अंजलि ने लिखा है कि विनीत उससे प्यार नहीं करता।

आज की शाम मरी हुई है पर मैं ज़िंदा क्यों हूँ। उस राक्षस ने मुझे सिगरेट में जाने क्या पिलाया। उसने मुझे नोंच खाया। मेरा बदन दर्द से भरा है मगर उससे ज्यादा मुझे अपमान की तकलीफ़ है। वो कहता तो मैं कुछ भी करती मगर... तुम नफ़रत के लायक हो, तुम हर बार बात प्यार से शुरू करते हो और शरीर पर ख़त्म। कितने कमीने हो तुम..।

जनाब इन पंक्तियों के आगे एक पीपल के पत्ते जैसा दिल बना हुआ है और उसके कई टुकड़े हो गए हैं। पन्ने पर बूँद- बूँद टपकता हुआ पानी है, जो शायद आँसुओं का चित्रण है। आगे दो-तीन जगह विनीत लिख कर उसे काट कर वि-नीच कर दिया गया है।

जनाब, इस डायरी में हॉस्टल के बारे में भी लिखा है। 
आज मुझे लगा कि मेरी साँस फूल रही है। मैं दम घुटने जैसा महसूस करने लगी हूँ इसलिए समझ नहीं आया कि क्या करूँ..। इस कमरे में कितनी उदासियाँ हैं और बाहर कितने तन्हा साये डोलते हैं। मैंने सिगरेट पी। मुझे बहुत आराम मिला। पता है कि ये थोड़ी देर ही रहेगा मगर है तो सही। वे कमीनी लड़कियाँ शोर मचाती हैं, तो मचाती रहें। मैं रमा के गले लग कर रोना चाहती हूँ मगर नहीं अब थक गयी हूँ रो-रोकर। हॉस्टल में यही एक सही लड़की है बाकी साली सब की सब मुँह में राम और बगल में कंडोम लिए घूमती है।

आगे कुछ शब्द और उनके अर्थ लिखे गए हैं।

समर्पण- अत्याचार की मौन स्वीकृति, वफ़ा- तू जो चाहे करने की अनुमति, पतिता- जो साथ सोने से इंकार कर दे, वॉर्डन- सरकार की ओर से नियुक्त दलाल। इसके बाद ज़िंदगी लिखकर कई सारे अपमानजनक शब्द लिखे गए हैं।

बीदा रावत का भी इसमें उल्लेख है। 
शाम से बेचैन हूँ। मुझे नहीं पता कि क्यों पर मैं सड़क पर निकल गयी। कहाँ जाना था ये भी नहीं पता। ये भी मालूम नहीं कि मैं हूँ क्यों? आज जब टैक्सी में बैठी तो उसने पूछा कहाँ जाना है? मैं ज़िंदगी से परेशान थी तो कहा ' कहीं भी ले चलो '। वह ऑटो चलाते हुए कुछ देर मौन रहा फिर उसने अपना नाम बीदा रावत बताया और कहा 'बहन परेशान न हो'। वह मुझे अपने घर ले गया, शायद वो उसका घर भी नहीं था। उसकी किसी गिरी हुई दोस्त का रहा होगा। मुझे उस घर में मौजूद औरत ने जूस पिलाया फिर कुछ नया नहीं हुआ।

मीता पुरी ने डायरी के कुछ खास पन्नों को पढ़ना जारी रखा।

जनाब एक पन्ने पर शीर्षक लिखा है “एक हसीन शाम का भाग-दौड़ भरा अंत”

पहाड़ी के छोर पर बैठ कर ढलते हुए सूरज को देखना कितना प्रीतिकर होता है। यह तेज़ चमकता हुआ सूरज जाने कैसे एक सिंदूरी थाली में बदल जाता है। पेड़ों से छनकर जब इसकी किरणें मेरे चेहरे पर गिरती हैं तो मैं उनको हथेली में लेकर देखती हूँ। वे कितनी पवित्र हैं लेकिन ये ढोंगी लोग कहाँ नहीं है। मैं सूरज को देखते हुए सिगरेट पी रही थी कि किसी ने पीछे से आकर मुझे पकड़ लिया। मेरे प्राण सूख गए। उन बलिष्ठ बाँहों के उत्पात से मैं कभी न छूट पाती अगर मैंने दिमाग से काम लेकर उन बाबाजी को पटाया ना होता। वह मूर्ख, मेरे सहमति भरे संकेतात्मक वाक्य सुन कर सहज हो गया था। मैंने उसका नाम पूछा तो उसने बताया मंडलनाथ फिर कहने लगा कि ज़िंदगी में बहुत मज़ा है, जितना चाहो ले लो। वह कुदरत के उपहारों का वर्णन करने में खोया हुआ था तभी मैंने सीढ़ियों से भाग लेने का फ़ैसला किया। उसने मेरा वहशी तरीके से पीछा किया। मैं दौड़कर थक गयी हूँ बहुत ज्यादा.. बहुत ज्यादा। ये बाबा से बचने की दौड़ नहीं है वरन ज़िंदगी के उपहारों से बचने की है।

इस डायरी में बादामी देवी का शुक्रिया अदा किया गया है। 

उसके चोट खाए बदन और नोंची गयी छातियों को देखकर मुझे क्रोध हुआ, अपार दुःख हुआ मगर क्या ये मेरी ज़िंदगी से मिलता जुलता नहीं है? क्या हर औरत की ज़िंदगी से मिलता-जुलता नहीं है? आज उसने मुझे गले लगाया, मुझे अच्छा होने की याद दिलाई। उसने अपने दुःख सुनाये, जो मेरे से मिलते हैं। वो घर में बर्तन माँजती है, झाडू़ लगाती है। उससे मिले पैसे से उसका पति दारू पीकर, उसी को पीटता है और अपमानित करता है। मैं उसके लिए सिगरेट पीने लगी हूँ और अपमानित होने भी। मैं तुम्हारी आभारी हूँ कि तुमने मुझे शादी यानि समझौते के बाद के सीन भी अभी दिखा दिये हैं। यानि मेरा आगे भी क्या होगा..।

आखिरी पन्ना
सोमेन्द्र से मेरा विवाह होने वाला है। वह जाने कैसा इंसान होगा? हालाँकि पढ़ा लिखा तो बहुत है। अभी उसकी पीएच डी भी होने वाली है। मैं क्या सोचूँ उस आदमी के बारे में कि ज़िंदगी अब उतनी अपरिचित नहीं है। कोई ऐसा ख़याल आता ही नहीं जो ख़ुशी से भर दे। रात को सपने आते हैं कि मैं मंडप से गिरकर मर गई हूँ। बादामी कहती है, मरने का सपना अच्छा होता है मगर शादी का नहीं। जाने क्या अच्छा और क्या बुरा होता है।

आज एक किताब पढ़ी, राबर्ट लुई स्टीवेंसन की। उसमें किसी के लिए लिखा है कि उसका एकाकीपन किसी हारी हुई पलटन के एकाकीपन से भी बड़ा था तो क्या ये मेरे बारे में लिखा है?

ज़िंदगी आज मैं तुम्हारा आभार व्यक्त करना चाहती हूँ। सिगरेट के कड़वे और नशे भरे स्वाद लिए, मुहब्बत के होने और खोने के अहसास को समझाने के लिए, सबको अलग सुख और अलग तरीके की तकलीफ़ देने के लिए, भेड़ियों के पंजों से भाग जाने का साहस देने के लिए और मनुष्य को इतनी बुद्धि देने के लिए कि वह शुद्ध और पीड़ारहित ज़हर बना सकने में कामयाब हुआ।

मीता पुरी ने बयान के बाद आज्ञा के लिए प्रश्नवाचक दृष्टि से ऑफिसर को देखा। ऑफिसर ने तेज़ हवा में झुक आई घास की तरह झुके हुए सरों को देखा और फिर ऐसे झुके हुए कई हज़ार और सरों के बारे में सोचा। ऑफिसर ने अपनी जेब पर हाथ रखा लेकिन सिगरेट की डिबिया आज शायद टेबल पर छूट गयी थी।
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[Painting Image : Vinod More]