जब कहीं से लौटना होता है
तब दुःख होता कि यहाँ से क्यों जा रहे हैं.
किन्तु कभी-कभी
लौटते समय दुःख होता है कि आये क्यों थे.
रंग रोगन किये जाने और नया फर्श डाल लेने के बाद भी रेलवे स्टेशन में बदला हुआ कुछ नहीं दिख रहा था. वे दोनों आधा घंटा से इंतज़ार कर रहे थे. जिस ट्रेक पर गाड़ी आनी थी. वह खाली पड़ा हुआ था. दूसरे प्लेटफार्म पर लोकल लगी हुई थी. लोकल में बैठी सवारियों में कोई हलचल नहीं थी. खिड़कियों से दिखने वाली सूरतें गाड़ी की ही तरह ठहरी हुई थीं.
“अब लौट जाओ. मैं आराम से बैठ जाउंगी." जैस्मिन ने कहा.
शरद अख़बारों के ठेले को देख रहा था. अख़बारों पर छपे काले अक्षरों के बीच अटकी उसकी निगाह लौट आई. शरद ने कहा- "मैं जाकर क्या करूँगा. घर खाली होगा."
साल के आख़िरी सप्ताह भर जैस्मिन की छुट्टी थी. आज उस छुट्टी का आख़िरी दिन था. ये इस साल का भी आख़िरी दिन था. 'जाकर क्या करूंगा' ये कहकर शरद चुप खड़ा था.
जैस्मिन उल्लास से भरी शरद से मिलने आया करती थी. इस बार आने से पहले उसने सोचा था कि वह हर बार छुट्टी में शरद के पास आने की जगह कभी मम्मा के पास भी चली जाए तो कितना अच्छा हो. लेकिन उसे एक डर था कि शरद से बात किये बिना आना स्थगित करने से उसे बुरा लगेगा. शरद को बुरा लगने से भी अधिक इस बात की चिंता थी कि अब तक उसने जो कुछ इस रिश्ते में बोया है वह बेकार हो जायेगा. वह अगर फ़ोन करके शरद को कुछ भी कहती तो वह यही कहता कि मम्मा के पास कभी भी जा सकती हो, इसलिए उसने कोई फ़ोन न किया. वह मम्मा के पास जाने की जगह शरद के पास आ गई थी.
शरद ने जैस्मिन की अँगुलियों को पकड़ा. ट्रेक पर रेल आ रही थी. जैस्मिन शरद की तरफ मुड़ी. उसे गले लगाया. शरद ने उसके बालों में अंगुलियाँ घुमाते हुए कहा- "हमेशा भरोसे की चीज़ों के साथ ही रहना" जैस्मिन ने शरद से दूर होते हुए कहा- "हाँ"
रेल का एसी कोच उनके ठीक सामने ही रुका. रेल से कोई नहीं उतरा. कुछ लोग जो इंतज़ार में थे, वे रेल में चढ़ गए. स्टेशन खाली हो गया. शरद ने जाते हुए मुड़कर एक बार हाथ हिलाया. रेल के प्लेटफार्म छोड़ने तक जैस्मिन दरवाज़े पर खड़ी रही.
जैस्मिन के पास सामान ज़्यादा नहीं था. एक छोटा पिट्ठू और दो-तीन किताबें रखने जितना एक हैंडबैग. वह अपनी सीट के पास आकर पलभर खड़ी रही. पहले से यात्रा कर रहा एक आदमी लैपटॉप में कुछ काम कर रहा था. जैस्मिन के खड़े रहने को देखकर उस आदमी ने पूछा- "कौनसी सीट?"
"ट्वेंटी फाइव"
“वह सामने वाली लोवर" इतना कहते हुए आदमी ने अपने पैर समेट लिए. उसने लैपटॉप को अपनी सीट पर एक तरफ रख दिया. वह आदमी गैलेरी की तरफ देखने लगा. उसने जानना चाहा कि क्या कोई और भी पीछे आ रहा है. या बहुत सा सामान हो. उस सामान को सीट के नीचे रखना पड़े तो वह मदद कर सकता है.
जैस्मिन ने चादर बिछाई और खिड़की के कांच के पास पालथी लगाकर बैठ गयी.
आदमी ने लैपटॉप को फिर से अपने सामने रख लिया. आदमी ने हल्की निगाह से देखा. उसकी सहयात्री ने आँखें बंद कर ली थीं. वह पुश्त का सहारा लिए थी. उसके दोनों हाथ गोदी में रखे थे.
आदमी लैपटॉप में काम करने लग गया.
कोई दस-पंद्रह मिनट हुए होंगे. आदमी का ध्यान आवाज़ से टूटा. कंडेक्टर खड़ा हुआ था. कंडेक्टर ने पूछा था- "क्या ये पिछले स्टेशन से चढ़ीं हैं?"
उस आदमी ने जवाब दिया.- "जी"
“मैडम... हेलो.." कंडेक्टर की आवाज़ से जागते हुए जैस्मिन ने अपने हैंडबैग से आईडी प्रूफ खोजा और आगे बढ़ा दिया.
“आप अगर सोना चाहें तो ये लाईट ऑफ कर दूँ." आदमी ने ऐसा कहते हुए खिड़की से सरक गए परदे को ठीक किया.
जैस्मिन ने कहा- "नहीं आप काम कीजिये."
किसी के आते ही कितना कुछ बदल जाता है. रेल कोच के इस कूपे में बैठे आदमी ने पाया कि उसके अधिकार का बंटवारा हो गया है. अब तक खाली पड़े कूपे में बैठे उसे लग रहा था कि सबकुछ उसी का है. वे सब खाली सीटें उसी के लिए हैं. अब एक लड़की उसके सामने की शैय्या पर है तो अधिकार जाता रहा.
ऐसा सोचते हुए आदमी को लगा कि लड़की उसे देख रही है. वह भूल गया था कि लड़की कंडक्टर के आने से जाग गयी है. आदमी ने लड़की को अपनी ओर देखते हुए देखकर कहा- “ये कोई इतना ज़रूरी काम नहीं है. मैं यूं ही कुछ लिखता रहता हूँ." आदमी ने अपना लैपटॉप फिर से सीट पर रख दिया. उसने खिड़की के नीचे सीट के कोने में छुपी पानी की बोतल निकाली. जैस्मिन उसे देख रही थी इसलिए आदमी ने शिष्टाचार के नाते पानी के लिए पूछा.
जैस्मिन ने कहा- "थैंक यू. मेरे पास है" आदमी ने दो घूँट भरे और बोतल को उसी जगह रख दिया.
जैस्मिन ने पूछा- "आप यूं ही क्या लिखते हैं?"
"वह जो लोग जानते हैं मगर नहीं लिख पाते"
जैस्मिन ने पूछा- "क्या आप अनपढ़ लोगों के लिए काम करते हैं?"
“ऐसा नहीं है. मैं सबके लिए काम करता हूँ" आदमी ने धैर्य भरा जवाब दिया.
“जैसे पहले ख़त नवीस होते थे. वे जिनसे लोग चिट्ठियां लिखवाते थे" ऐसा कहते हुए जैस्मिन मुस्कुराई.
जैस्मिन को देखते हुए आदमी भी मुस्कुराया. "आपको पता है इस दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं. जिनके पास कहने को बेहिसाब ख़ूबसूरत बातें हैं लेकिन वे कह नहीं पाते. बहुत से लोगों के पास अद्भुत जानकारियां हैं लेकिन सलीके से लिखकर दुनिया के सामने कैसे रखा जाये? ये उनको नहीं आता." आदमी ने अपनी पीठ टिका ली थी. उसकी अँगुलियों से खिड़की का परदा छूट गया था.
जैस्मिन ने पूछा- "तो वे लोग बोलते हैं और आप उनकी बातों को अच्छे से लिखते हैं?"
“मैं उनकी बातें सुनता हूँ. फिर ये भी सुनने की कोशिश करता हूँ कि वे कौनसे शब्द हैं ? जो उन्होंने बोले नहीं. वो कौनसी बात है जो उनके दिमाग में है मगर उन्होंने कही नहीं है"
“मनोविज्ञान?"
आदमी मुस्कुराने लगा- "नहीं. घोस्ट राइटिंग"
जैस्मिन ने हँसते हुए कहा- "घोस्ट राइटिंग कितना भुतहा लगता है न? बचपन में मैंने जब ये शब्द पहली बार सुना था तब बहुत हंसी आई थी कि कोई भूत लिखता होगा"
जैस्मिन जब भी शरद के पास से लौट रही होती थी. रेल बहुत धीरे सरकती थी. बदन में शिथिलता उतर आती थी. मन मर जाता था. वह अपनी सीट पर चुप पड़ी रहती थी. इस यात्रा में एक अजनबी सामने की सीट पर था. जो बात करने में सहज लग रहा था.
कभी हम एक उदास झांक में खोये रहते हैं. एक जगह बैठे रहते हैं. हम कहीं नहीं जाते और इसी खोये रहने में बहुत दूर तक सफ़र हो जाता है. कभी हम जा रहे होते हैं मगर हमारी नज़र ठहरी रहती है. मन के भीतर से लावा की तरह कुछ बहता हुआ दूर तक पसरने लगता है. ऐसा लगता है कि रंग फीके पड़ गए हैं. हम राख़ के रंग में ढलते जा रहे हैं. चारों ओर पसरे सूखे-भुरभुरे, पपड़ीदार या हलके दलदली विस्तार पर निगाहें रुक जाती हैं.
जैस्मिन का ध्यान इस बात से टूटा कि सामने बैठा आदमी चाय लेकर आया था. दो कागज़ के कप थामे खड़ा था. जाने कब स्टेशन आया और कब वह उतरकर चाय लेता हुआ वापस भी आ गया. उसने कहा- "लीजिये"
जैस्मिन ने अपने पाँव सीट से नीचे किये. वह अपलक उस आदमी के चेहरे को देखती रही. आदमी ने कहा- "घोस्ट राइटिंग ही करता हूँ. ज़हरखुरानी का काम शुरू नहीं किया है."
"क्या भरोसा? ऐसे कैसे मान लूँ?" ऐसा कहते हुए जैस्मिन ने सोचा कि दोनों कप में कुछ मिलाया हुआ नहीं हो सकता है. एक में ही होगा. कितना अच्छा है कि नशीली चीज़ से कोई लूटना चाहे और हमारे पास तक़दीर जैसी चीज़ को आजमाने का अवसर हो.
जैस्मिन रेल में थी मगर उसे लग रहा था कि वह अब भी अपने ही चुने हुए रस्ते से ऐसी जगह गिर पड़ी है जहाँ केवल चिकनाई है. जैसे कोई चींटी किसी तेल लगी कड़ाही में गिर पड़ी हो. कुछ चीज़ें लौट कर क्यों नहीं आती. जैसे फैसला करने की घड़ी. जिसे हम लौटते ही बदल सकें. नया फैसला कर लें. जैस्मिन अपनी ज़िन्दगी की जेबें टटोलती तो याद करने लगती कि क्या वे दिन ऐसे ही थे. यकीन के लिए ख़ुद से बार-बार पूछती. कहो क्या सचमुच ऐसे ही? कहीं-कहीं बची हुई शिनाख्त से उड़कर गुज़रा मौसम लौटता कि वह टीनएज से बाहर आई एक लड़की है, जो खुल जीना चाहती है. वह अपनी पसंद के लोगों के साथ होने का सोचती है. वह सोचती है कि अब हर काम करने के लिए किसी की अनुमति न लेनी पड़ेगी. उसने शरद को चुना था. अपने आज़ाद होने के पहले ख़्वाब की तरह मगर वह एक चिपचिपे रिश्ते में गिर पड़ी थी. आज एक अजनबी आदमी के साथ इस तरह सहज हो जाने को उसे कौन धकेल रहा था. शायद टीनएज के बाद आज़ाद होने के ख़्वाब की याद धेकेल रही थी.
जैस्मिन रेल में थी मगर उसे लग रहा था कि वह अब भी अपने ही चुने हुए रस्ते से ऐसी जगह गिर पड़ी है जहाँ केवल चिकनाई है. जैसे कोई चींटी किसी तेल लगी कड़ाही में गिर पड़ी हो. कुछ चीज़ें लौट कर क्यों नहीं आती. जैसे फैसला करने की घड़ी. जिसे हम लौटते ही बदल सकें. नया फैसला कर लें. जैस्मिन अपनी ज़िन्दगी की जेबें टटोलती तो याद करने लगती कि क्या वे दिन ऐसे ही थे. यकीन के लिए ख़ुद से बार-बार पूछती. कहो क्या सचमुच ऐसे ही? कहीं-कहीं बची हुई शिनाख्त से उड़कर गुज़रा मौसम लौटता कि वह टीनएज से बाहर आई एक लड़की है, जो खुल जीना चाहती है. वह अपनी पसंद के लोगों के साथ होने का सोचती है. वह सोचती है कि अब हर काम करने के लिए किसी की अनुमति न लेनी पड़ेगी. उसने शरद को चुना था. अपने आज़ाद होने के पहले ख़्वाब की तरह मगर वह एक चिपचिपे रिश्ते में गिर पड़ी थी. आज एक अजनबी आदमी के साथ इस तरह सहज हो जाने को उसे कौन धकेल रहा था. शायद टीनएज के बाद आज़ाद होने के ख़्वाब की याद धेकेल रही थी.
अपने उलझे ख़यालों में वह देख रही थी कि दोनों हाथों में दो प्याले थे. जैसे वह शरद के पास लौट रही है या जैसे वह हमेशा के लिए शरद को छोड़कर जा रही है. आदमी की आवाज़ आई- "लीजिये घबराइए नहीं."
जैस्मिन ने कहा- "अच्छा सुनिए. आप सोचिये कि आपने किसी एक प्याले में कुछ मिला दिया है. किसी एक प्याले को सोच लीजिये." आदमी हैरत से मुस्कुराया. उसने कहा- "ठीक है सोच लिया" जैस्मिन ने अपना हाथ आगे बढाया. तर्जनी को एक कप की तरफ किया. फिर दूसरे की तरफ. फिर वापस. अचानक एक कप को छू दिया.
कप को छूने के समय जैस्मिन ने अपनी नज़रें उस आदमी के चेहरे पर जमाये रखी. वह देख लेना चाहती थी कि वहां क्या भाव आते हैं. आदमी का चेहरा भाव शून्य था. उसने कुछ प्रतिक्रिया न की. जैस्मिन ने इशारे से पूछा कि कौनसा कप सोचा था?
आदमी सीट पर बैठ चुका था. उसने मुस्कुराते हुए कहा- "मैं जो जवाब दूंगा. उस पर आप कैसे भरोसा करेंगी?"
जैस्मिन ने कहा- "हाँ ये बात तो है." चाय का घूँट भरते हुए उसने पूछा- "तो क्या जिन चीज़ों का लिखित प्रमाण न हों, उनके बारे में हमें हर बार अगले व्यक्ति की कही बात पर भरोसा ही करना होगा."
आदमी खिड़की से बाहर देख रहा था. उसने अपना चेहरा जैस्मिन की ओर घुमाया. "किसी भी बात के बारे में पक्का और स्थायी कुछ नहीं कहा जा सकता."
जैस्मिन के पास शरद की दुनिया की बातें थी. वे बातें अक्सर उसे परेशान करती थी. उसे लगता था कि शरद एकतरफा सोचता है. इससे भी ज़्यादा वह जो सोचता है उसमें कोई नयी चीज़ शामिल ही नहीं हो पाती. वह बेहद तनहा होती है. तब शरद से कहती है कि यहाँ रहा नहीं जा रहा. तो शरद के पास एक ही जवाब होता है. अगली छुट्टी में कितने दिन बचे हैं. यूं भी हमको कुछ होने वाला नहीं है. ऐसे जवाब सुनकर जैस्मिन को लगता कि शरद को उसकी उदासी और उदासी से आया दुःख समझ नहीं आता. या वह समझना नहीं चाहता.
जैस्मिन ने आदमी से पूछा- "जब आप किसी के दुःख लिखते हैं तब आपको दुःख नहीं होता?"
आदमी ने कहा- "नहीं, ये एक अवस्था है. कुछ सोचते हुए खो जाने की अवस्था. आपको पता है कि ऐसी अवस्था में पंछी और जानवर दुःख नहीं करते. वे इसे भोगते हुए टाल देते हैं. मैं कई बार उनको देखता हूँ. लगभग सांस रोके पड़े हुए जानवर मृत दिखाई देते हैं. जैसे जीवन विदा ले चुका हो और नष्ट होने के इंतज़ार में देह पड़ी हो. उनको देखते हुए मैं ठहर जाता हूँ. फिर मैं अचानक देखता हूँ कि पंछी उड़ जाता है. जानवर खड़ा हो जाता है. इसी तरह मैं भी किसी के दुःख लिख देने के बाद बाहर आ जाता हूँ."
रेल इंजन और पहियों का मद्धम शोर कोच के भीतर तक आ रहा था. खिड़की के बाहर कहीं-कहीं बादलों की छाँव के टुकड़े दीखते थे. सूनी बंजर ज़मीन के फैलाव के बीच खड़े कुछ आधे सूखे से पेड़ पीछे छूटते जा रहे थे. उन पेड़ों को देखते हुए फिर से शरद की याद आई. क्या वह भी कभी इसी तरह पीछे छूट जायेगा. क्या मैं कभी रेलगाड़ी की तरह सम्बन्ध के इस बंजर के पार गुज़र सकूंगी? ऐसा सोचते हुए जैस्मिन ने कहा- "क्या किसी इन्सान को सुनना, उसको जीना नहीं होता.?"
“हाँ होता है. लेकिन मैं ख़ुद को याद दिलाता रहता हूँ कि ये उसका जीवन है."
“तो जब आप किसी के साथ रहते हैं तब उससे ज़रा भी नहीं जुड़ते?"
आदमी ने जैस्मिन से पूछा- "आप अकेली हैं या किसी रिलेशन में हैं?"
जैस्मिन इस सवाल में उलझ गयी. उसने टालते हुए पूछा- "इससे क्या हमारे जुड़ने न जुड़ने में फर्क आता है?"
“नहीं कोई फर्क नहीं आता. मगर आप ब्लड रिलेशन के बाहर किसी रिश्ते में रही होती तो आसानी से समझ पाती."
जैस्मिन ने कहा- "आप बताएं मैं समझ जाउंगी"
“देखिये हम जिससे प्रेम करते हैं. उसके दुःख-सुख से जुड़ जाते हैं. लेकिन आप अगर कभी ध्यान से सोचे तो पाएंगे कि आप उसके लिए कुछ भी करने में असमर्थ होते हैं. आप उसके दुखों में रोने और सुख में ख़ुश होने के समानांतर जीवन में लग जाते हैं. ऐसा करने की जगह उस व्यक्ति की ख़ुशी और दुःख को समझना ज्यादा अच्छा होता है. इस तरह आप उसका साथ अच्छे से दे पाते हैं. लेकिन हम या तो उसके साथ दुखी-सुखी होते हैं या उसकी परवाह ही नहीं करते." इतना कहकर आदमी गैलेरी में झांकने लगा.
शरद और जैस्मिन कई महीनों से साथ थे. पहली बार जैस्मिन को तब अजीब लगा जब शरद ने कहा था कि जीवन में नयापन, एक नयी तकलीफ है. जैस्मिन ने इस पर सवाल पूछा कि ऐसा कैसे? शरद ने कहा- "मैं नयी बातें, चीज़ें और जगहें नहीं चाहता हूँ. बस."
उस शाम जैस्मिन ने कहा- "ये तुम कैसे कर सकते हो. असल में हर पल नया है."
उस शाम जैस्मिन ने कहा- "ये तुम कैसे कर सकते हो. असल में हर पल नया है."
उसी शाम की याद हमेशा उदास करती थी. जैस्मिन को लगता था कि शरद सचमुच बहुत ठहर गया है. उसके जीवन में कोई उत्साह नहीं बचा है. शायद इसीलिए उन दोनों के बीच का रिश्ता बेहद करीब का होते हुए भी अक्सर रुखा-ठंडा और बेजान सा लगता है.
जैस्मिन ने सामने चुप बैठे आदमी से कहा- "अच्छा अपने लिखने की कोई ऐसी बात बताओ जो आपको बहुत पसंद हो."
आदमी ने कहा- "मुझे बहुत सी बातें पसंद हैं. जैसे एक बार मुझे एक जोड़े ने अपनी कहानी लिखने को बुलाया था. वे दोनों अपनी कहानी लिखना चाहते थे. उनको किसी ऐसे व्यक्ति की ही तलाश थी जो उनकी कहानी लिखकर उको दे और वे उसे अपने नाम से छपवा सकें. आदमी की उम्र चालीस के आस पास थी और उसकी पत्नी शायद चार-पांच साल छोटी रही होगी. मैं उनके साथ सिटिंग्स लेता था. हम कोई चालीस दिन मिले. फिर मैंने उनकी कहानी लिख दी. वे असल में अपना जीवन लिखवाना चाहते थे. उनको यकीन था कि ऐसा बुरा किसी के जीवन में नहीं हुआ है. इसे लोग पढ़ें और उनके दुःख के बारे में जानें. उन्होंने ये भी तय किया हुआ था कि वे इस किताब को लिख लेने के बाद जीवन का ज़रूरी फैसला लेंगे."
ये बताते हुए आदमी की आँखें किसी पुरानी याद से चमक उठी- "उस लम्बी कहानी में गहरा दुःख था. उन्होंने जो कुछ खोया था, वह अविश्वसनीय था. मैंने उनकी कहानी लिखकर दे दी. इसके बाद उन्होंने मुझसे यही बात पूछी जो आपने पूछी है कि कोई ऐसी कहानी बताओ जो आपने लिखी हो और आपको खूब पसंद हो."
“तो मैंने एक बेहद सरल सी बात यानी ऐसी सामान्य घटना जो हम रोज़ देखते हैं. उस घटना को उनके मेल पर भेज दिया. मैंने उनसे कहा था कि ये आप आराम से पढना." ऐसा कहते हुए घोस्ट राइटर ने जैस्मिन से पूछा आपको सुनाऊँ?
जैस्मिन ने कहा- "कितना अच्छा है न कि लोग कहानियां पढ़ते हुए यात्राएँ करते हैं और मुझे कहानी सुनाने वाला सहयात्री मिल गया है. आप सुनाइए. मुझे अच्छा लगेगा."
आदमी कहानी सुनाने लगा- “मेरे दफ़्तर के एक कमरे में कबूतर का एक जोड़ा रहता था. कमरे के रोशनदान में उन्होंने घरोंदा बना रखा था. वहां से उनको उड़ाने के खूब जतन किये जाते थे. वे कबूतर किसी न किसी तरीके से लौट आते. एक रोज़ मेरा ध्यान उधर गया. जहाँ कबूतर बैठे रहते थे. वह जगह सूनी पड़ी थी. आँगन पर कितना कचरा है? ये देखने के लिए मैं उधर गया. देखा तो पाया कि वहाँ एक अंडा फूटा पड़ा है. कुछ एक तिनके बिखरे हैं मगर कबूतरों की गंदगी लगभग नहीं है.
रोशनदान खाली पड़ा था. उस जगह जब कबूतरों को नहीं देखा तो निगाहें इधर-उधर कबूतरों को खोजने लगी. बाहर पास ही के एक छज्जे पर दो जोड़े बैठे थे. उनको देखकर मैं कभी नहीं कह सकता कि ये वही कबूतर हैं. जो जिद्दी थे और उस जगह को नहीं छोड़ते थे. लेकिन अब वह जगह खाली पड़ी हुई थी.
ऐसा क्या हुआ? मैंने कई सारी बातें सोची. वजहें तलाशी.
क्या कबूतरों ने उस जगह को दुःख के कारण छोड़ दिया था? क्या कबूतर समझते हैं कि जब तक वे फिर से अंडे न दे सकें तब तक अंडे के फूट जाने के दुःख से दूर हो जाएँ. वे कबूतर अगर दो-एक रोज़ वहां रुकते तो उनकी गंदगी से फूटे हुए अंडे की छवि ढक जाती. वे अपनी प्रिय जगह पर रह सकते थे.
क्या सचमुच पंछी दुखी होते हैं? क्या वे ये भी समझते हैं कि दुखों का इलाज सिर्फ दुखों का त्याग है. कबूतरों के जीवन में जो सीलापन आया, उसे छोड़कर उन्होंने नयी जगह चुनी. या कोई और वजह थी. मैं कभी समझ नहीं पाया. मगर इतना तो था ही कि कबूतर अपने दुःख को छोड़ गए थे."
आदमी ने ये बात सुनाने के बाद कहा- "मेरी लिखी ये बात उन्होंने मालूम नहीं कब पढ़ी. उन्होंने मुझे तीन महीने बाद फोन किया. हम फिर से उसी जगह मिले. उन्होंने कहा कि उनके घर में नया बेबी आने वाला है. वे अपने असमय के दुखों को स्वीकार ही नहीं पाए थे. लेकिन मेरी कबूतरों वाली कहानी पढने के बाद उन्होंने कई बार जीवन के बारे में नए सिरे से सोचा था. आख़िर उन्होंने तय किया कि जीवन नित नए हो जाने का नाम है. पुराने दुखों को गले लगाये जीने का कोई अर्थ नहीं होता. वे दुःख केवल एक सीख भर हो सकते हैं"
जैस्मिन ने कहा- "क्या नई चीज़ें और नयी जगहें दुखों से बाहर आने में मदद करती है?"
उस आदमी ने कहा- "मैं नहीं जानता. लेकिन मैं कई बार उदास होता हूँ. मेरी समझ ठहर जाती है. मुझ में उदासी के प्रति समर्पण करने की हताशा जागती है. फिर मैं कई बार उन कबूतरों को याद करता हूँ. मुझे नहीं मालूम कि मैंने उनके बारे में जो सोचा वह एक कल्पना भर है या किसी वास्तविकता के आस-पास की बात है. लेकिन ये मुझे थोड़ा हौसला देता है. मैं ख़ुद को याद दिलाता हूँ कि तुम एक मनुष्य हो. मनुष्य चिंतनशील हो सकते हैं. उदासी और दुखों के बारे में ये सोचकर तय क्यों नहीं करते कि तुम जिसके साथ हो वह दुःख से दूर उड़कर कहीं तुम्हारे साथ जा बैठता है या फिर दुखों के सीलेपन पर परदे डालता रहता है."
“अच्छा एक सवाल पूछूं?" जैस्मिन ने कहा.
आदमी ने कहा- "हाँ पूछो."
“हम कितनी भी कोशिश करें लेकिन जीवन का नष्ट हो जाना तय है. तो हम कोशिश करने की तकलीफ क्यों उठाते जाते हैं. इन नाकाम कोशिशों से हम उदास, निराश और फिर हताश होते रहते हैं."
आदमी हंसने लगा- "मैं दूसरों के लिए लिखने का काम करता हूँ. ऐसे सवालों के जवाब दे सकता तो अच्छा प्रवचनकर्ता बन जाता."
“हाँ वह दुनिया का सबसे अधिक फलदायी कार्य है लेकिन प्लीज़ आप बताइए न. क्या सचमुच जीवन जब नष्ट होना ही हो, तो हमें कुछ न करना चाहिए?"
आदमी ने बड़े स्नेह से जैस्मिन को देखते हुए कहा- "मैं अपने आप से कहता हूँ कि चीज़ों का नष्ट होना, उनकी चाहना और नियति है. जैसे फल को खाया जा सकता है. फल को कुदरत ने खाए जाने के लिए ही बनाया है. आदमी खायेगा, जानवर खायेगा, पंछी खायेंगे. इनमें से किसी ने नहीं खाया तो कुदरत कीड़ों को मौका देगी. वह एक आखिरी मौका होगा. इसी तरह चीज़ें बनी होती हैं. वे अपनी और बुलाती हैं. ये उनकी प्रकृति है. वे बुलाये बिना रह नहीं सकती. उनकी पूर्णता इन्हीं बुलावों में छिपी हैं. हम क्यों दुःख मनाएं? क्या कोई ऐसी चीज़ हमने इस दुनिया में देखी है. जो अपने आपको बचाए हुए हो? ऐसा कुछ नहीं है. बदलाव में ही जीवन है. चीज़ों को गिरने दो. उनको नष्ट होने दो. उनका लोभ त्याग दो. उनके भले की जो तुम कामना करते हो असल में वह उनकी आंतरिक प्रवृति का विरोध है. उन्हें नष्ट होने के लिए कोई माध्यम चाहिए ही."
आदमी ने इतना कहते हुए सीट के नीचे से अपना बैकपैक बाहर खींचा. उसने कहा- "मेरा स्टेशन आने को है. आपसे बातें करते हुए समय का मालूम ही न हुआ." जैस्मिन ने अचरज से बाहर देखा. ये तो उसी का स्टॉप था.
जैस्मिन ने अपना सामान उठाते हुए उस आदमी को कहा- "थैंक यू" फिर दूर जा रहे आदमी से पूछा क्या आप इसी शहर में रहते हैं?" आदमी ने कहा- "अभी सात दिन पहले ही इस शहर में आया हूँ. आप अपना ख़याल रखना. बाय" दूर जाते हुए आदमी ने मुड़कर दो-तीन बार देखा.
जैस्मिन प्लेटफार्म पर खड़ी थी.
भीड़ का रेला गुज़र गया था. तीन-चार सूटकेस उठाये कुली ने पास से गुज़रते हुए कहा-"संभलना मैडम" जैस्मिन चौंक कर बेख़याली से बाहर आई. वह शरद को सोच रही थी. शरद ने कहा था- "नए साल में पुराने जूते पहन कर जाना." ये सुनकर जैस्मिन ने हँसते हुए पूछा था- "इसका क्या मतलब है?"
शरद ने कहा- "पुराने दुखों के साथ रहना अच्छा है कि नए दुःख जाने कैसे निकलें."
जैस्मिन और शरद की बातें एक धावक और उसकी बाधाओं जैसी थी. जैस्मिन जीवन के प्रति लालायित होकर भागती थी. शरद उसकी राह में बाधाएं खड़ी करता था. शरद का कहना था कि कुछ न करो. कुछ नया करना भी नष्ट होने को ही होगा.
जैस्मिन के भीतर एक सीलापन उतरता था. उसे एक बासी गंध घेर लेती थी. वह इस सब से उकता गयी थी. जैस्मिन को लगा कि वह आदमी सही कर रहा था. शरद एक फूटे हुए अंडे के पास बैठ गया था. उसने दुखों को त्यागने का कभी सोचा ही नहीं. या उसने जीवन को जीने के बारे में सोचा ही नहीं था. वह उसे एक ही तरीके से घसीट रहा था. जैस्मिन इसी से परेशान थी.
शायद इसलिए ही इस बार लौटते हुए जैस्मिन को लगा कि उसने शरद के पास आकर गलती की है. वह उसके लिए या उसके जैसा नहीं है. इस रिश्ते को केवल ढोया जा सकता है.
एक बारिश की फुहार आई. अचानक और तेज़ बारिश आने लगी. प्लेटफार्म पर बचे लोग शेड्स के नीचे सिकुड़ने लगे. जैस्मिन भीगने लगी. उसने अपनी चाल धीमे कर दी. वह भीगती हुई आहिस्ता बाहर आई. स्टेशन के बाहर सड़क पर पानी बह रहा था.
जैस्मिन ने चाहा कि पांव से बहते हुए पानी को छूकर देखे. उसने अपना एक जूता उतारा. जूता खुलते ही तेज़ बहाव में बह गया. उसने जूते को पानी में डूबते तैरते हुए देखा. जूता बहुत दूर जा चुका था. वह मुस्कुराई और दूसरा जूता भी खोल दिया.
बारिश में भीगते हुए उसने सोचा कि नए जूते खरीद ले लेकिन बिना जूतों के उसे अच्छा लग रहा था. कैब के आते ही वह नंगे पाँव कैब में बैठ गयी.
पंद्रह मिनट लगातार वह कैब की खिड़की से बाहर देखती रही. जिस शहर में पिछले पांच साल से रह रही थी, उसे उसने बहुत कम देखा था. सोसाइटी तक के पूरे रास्ते में जगमग दुकानें थी. वह नए बच्चे की जिज्ञासा भरी आँखों से देख रही थी. इससे पहले वह जब भी आई उसने कार के कभी बाहर नहीं देखा था. वह जीपीएस पर रास्ते को ट्रेक करती या आँखें मूंदे हुए फ्लेट तक पहुँचने का इंतज़ार करती थी.
कैब सोसाइटी के गेट पर आई तब जैस्मिन ने हड़बड़ी में कहा- "भैया रोकना."
सोसायटी के संकरे वाले गेट से एक स्कूटर निकला. स्कूटर पर वही आदमी था. वो जो रेलगाड़ी में सामने की सीट पर था. कैब रुकी तब तक वो गेट से बाहर जा चुका था. जैस्मिन ने कैब वाले से कहा- "बस यहीं तक"
सोसाइटी के गेट के बाहर से ही कैब वापस मुड़ गयी. सड़क खाली थी. स्कूटर पर सामने से गुज़रा आदमी पल भर में एक याद बनकर रह गया था. अभी-अभी उसके यहाँ से गुजरने की याद. जैस्मिन ने कुछ देर सड़क पर दूर तक देखा.
जैस्मिन अन्दर आ गयी. वह सिक्योरिटी के पास पलभर को रुकी. उसने चाहा कि पूछे. अभी जो स्कूटर वाला गया उसका नाम क्या है? क्या यहीं रहता है? लेकिन उसने नहीं पूछा. वह नंगे पाँव अपने फ्लेट की तरफ जजाने लगी. उसने ये पहली बार देखा कि सीमेंट के ब्लॉक्स से बने रास्ते में हर ब्लॉक के बीच छूटी हुई जगह में कोमल घास उगी हुई है.
जैस्मिन ने ख़ुद से पूछा कि तुमने इतनी जल्दबाज़ी में कैब क्यों रुकवाई. तुम सिक्योरिटी वालों से उस आदमी के बारे में जानने को उतावली क्यों हो? इसका जवाब ख़ुद ही देती मगर उसके पांवों में घास से गुदगुदी हो रही थी. उसे अपने कमरे के बिस्तर तक पहुँच जाने को जल्दी होने लगी थी.
* * *
[Paintin image courtesy ; Pintrest account of Katy Koloman]
वाह सर जी वाह ।
ReplyDeleteकुंठाग्रस्त दुनिया से निकलने में काफी सहायक होगी ये कहानी ।
मुझे बहुत बहुत बहुत पसंद आई ।
आभार आपका
ने उसके बालों में अंगुलियाँ घुमाते हुए कहा- "हमेशा भरोसे की चीज़ों के साथ ही रहना" जैस्मिन ने शरद से दूर होते हुए कहा- "हाँ"
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कहानी ,धन्यवाद
बहुत ही लाजवाब, सुंदर औऱ सराहनीय कहानी.... धन्यवाद।
ReplyDeleteआप हमेशा ही ऐसे लिखते रहिएगा.....
नयी कहानी के इंतजार में हम......
नाइस स्टोरी.... धन्यवाद।
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